मनुष्य अल्पज्ञ प्राणी होता है। इसका कारण जीवात्मा का एकदेशी, ससीम, अणु परिमाण, इच्छा व द्वेष आदि से युक्त होना होता है। मनुष्य सर्वज्ञ व सर्वज्ञान युक्त कभी नहीं बन सकता। सर्वज्ञता से युक्त संसार में एक ही सत्ता है और वह है सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान, सच्चिदानन्दस्वरूप परमात्मा। परमात्मा ही सृष्टि में विद्यमान अनन्त संख्या वाले जीवों को उनके पूर्वजन्म के कर्मों व प्रारब्ध के आधार पर मनुष्य आदि अनेक योनियों में जन्म देता है। मनुष्य का जन्म भोग व अपवर्ग अर्थात् मोक्ष प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने के लिये होता है। मनुष्य जन्म लेकर हम अपने पूर्वजन्मों के संचित वा प्रारब्ध कर्मों के अनुसार सुख व दुःख रूपी भोगों को प्राप्त करते हैं। मनुष्य योनि उभय योनि है। अतः पूर्वजन्मों के कर्मों का भोग करते हुए हम नये शुभ व अशुभ कर्मों को भी करते हैं। नये कर्म मुख्यतः तीन प्रकार के होते हैं। इन्हें क्रियमाण, संचित व प्रारब्ध कर्म कहा जाता है। क्रियमाण कर्मों का फल व परिणाम हमें साथ साथ प्राप्त होता है। संचित कर्मों का फल इसी जीवन के उत्तर काल में उनके परिपक्व होने पर मिलता है। प्रारब्ध कर्म वह कर्म होते हैं जिनका हमें इस जन्म में फल नहीं मिलता। इन कर्मों का फल भोगने के लिये ही परमात्मा हमें नया जन्म देते हैं।
हमारे प्रारब्ध कर्मों के आधार पर ही परमात्मा द्वारा हमारी मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि अगणित जातियों में से किसी एक का निर्धारण होकर हमें वहां जन्म मिलता है। प्रारब्ध के अनुसार ही हमारी आयु निश्चित होती है तथा सुख व दुःख प्राप्त होते हैं। मनुष्य जो कर्म कर लेता है, उसका फल उसे भोगना ही पड़ता है। उसके फल से बचने का मनुष्य के पास कोई उपाय नहीं है। कोई धर्मात्मा, आचार्य व मत-मतान्तर कर आचार्य या संस्थापक किसी मनुष्य के किये हुए पाप आदि कर्मों से उसे मुक्त व क्षमा प्रदान नहीं करा सकते। यदि कोई ऐसा कहता व मानता है तो वह सत्य न होकर असत्य होता है। ऋषि दयानन्द ने कहा है कि यदि परमात्मा स्वयं व किसी की प्रार्थना व प्रेरणा से कर्मों को क्षमा कर दे तो उसकी न्याय व्यवस्था समाप्त हो जायेगी। परमात्मा सभी जीवों के शुभाशुभ कर्मों का याथातथ्य फल यथासमय देता है। वह फल हमें साथ साथ अथवा भावी काल सहित जन्म व जन्मान्तर में भोगने होते हैं। हमें इन सब बातों को जानकर ही अपने जीवन को जीना चाहिये। ऐसा करने से हम सत्कर्मों को करके अपने सुखों में वृद्धि तथा दुःखों को दूर कर सकते हैं। इससे अनभिज्ञ रहने पर हमसे अनजानें में भी अनेक अशुभ कर्म हो सकते हैं जिसका परिणाम हमें दुःख वा दुःखों के रूप में भोगना पड़ता है। कर्म फल सिद्धान्त ही इस सृष्टि की उत्पत्ति, संचालन व पालन तथा जीवों के जन्म व मरण का मुख्य कारण व आधार है।
मनुष्य को अधिक से अधिक सुख मिले तथा वह जन्म व मरण के बन्धन व इससे होने वाले दुःखों से दूर हों, इसके लिये मनुष्य को प्रयत्न करने होते हैं। वेदज्ञान इसमें एक आचार्य एवं मार्गदर्शक के रूप में सहायक होता है। इसके लिये हमें संसारस्थ सभी मनुष्यों को ज्ञानवान तथा सत्कर्मों का करने वाला और साथ ही सच्चा ईश्वर उपासक बनाना होगा। यदि यह गुण मनुष्यों में नहीं होंगे तो मनुष्य के व्यक्तिगत जीवन तथा सामाजिक जीवन भी सुखमय नहीं हो सकते। संसार में सुख तभी हो सकता है कि जब सब मनुष्य ज्ञानवान हों तथा अपने निजी व सामाजिक कर्तव्यों को जानकर उनका यथोचित रीति से पालन करें। इस आवश्यकता की पूर्ति के लिये परमात्मा ने सृष्टि के आरम्भ में ही वेदों का ज्ञान दिया था। वेदों में मनुष्य का सर्वांगीण विकास करने की क्षमता है। वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक हैं। वेदों में ईश्वर, जीवात्मा तथा प्रकृति सहित मनुष्य के लिये आवश्यक सभी विषयों का ज्ञान है। ईश्वर सहित जीवात्मा तथा प्रकृति का सत्यस्वरूप जानकर ही हम ईश्वर की सच्ची स्तुति, प्रार्थना व उपासना कर सकते हैं। वेदज्ञान से शून्य मनुष्य ईश्वर के सत्यस्वरूप व उसकी उपासना की विधि को नहीं जान सकते। महाभारत युद्ध के बाद वेदों का व्यवहार न होने के कारण वेद विलुप्त हो गये थे। वेदज्ञान के विलुप्त होने वा वेदों का प्रचार बन्द होने के कारण ही समाज में अज्ञान व अन्धविश्वास, पाखण्ड तथा कुरीतियां उत्पन्न हुई थी जिससे मनुष्य के व्यक्ति जीवन सहित संसार में दुःखों का प्रसार हुआ था।
वेद ज्ञान के विलुप्त होने के कारण ही संसार में अविद्यायुक्त मत-मतान्तर उत्पन्न हुए जिन्होंने परस्पर स्पर्धा करते हुए मतान्तरण व परस्पर संघर्ष कर सामान्य मनुष्यों के जीवन को दुःखों से युक्त किया। अतः मत-मतान्तरों की अविद्या व परस्पर विरोधी बातों को दूर कर ही देश व समाज में सुख व शान्ति की स्थापना की जा सकती है। यही कार्य ऋषि दयानन्द ने अपने समय में किया था। इसके लिये ऋषि दयानन्द ने ईश्वर के सच्चे स्वरूप तथा मृत्यु पर विजय पाने के उपायों की खोज की थी। ऐसा करते हुए वह अनेक धार्मिक विद्वानों तथा योग गुरुओं सहित विद्या गुरुओं के सम्पर्क में आये। उन्होंने उन सबसे संगति कर ईश्वर, सत्यधर्म तथा मृत्यु पर विजय के साधनों पर चर्चा की। योगाभ्यास से वह ईश्वर के सत्यस्वरूप को जानकर उसका साक्षात्कार कर सके थे। इस पर भी उनके मन में अनेक शंकायें थी जो विद्या प्राप्त कर ही दूर हो सकती थी। इसके लिये उन्होंने अपने लिए एक विद्यागुरु की खोज की थी। सौभाग्य से उन्हें वेदों के उच्च कोटि के विद्वान प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती, मथुरा विद्या गुरु के रूप में प्राप्त हुए थे।
स्वामी विरजानन्द जी से अध्ययन कर स्वामी दयानन्द जी की सभी शंकायें दूर हुई थी तथा उनकी सभी जिज्ञासाओं का समाधान हो गया था। स्वामी दयानन्द जी ने स्वामी विरजानन्द जी से सन् 1860 से सन् 1863 तक लगभग तीन वर्ष वेदांगों मुख्यतः आर्ष व्याकरण का अध्ययन किया था। इस अध्ययन से वह वेदों के मन्त्रों के यथार्थ अर्थों को जानने की क्षमता से सम्पन्न हुए थे। कालान्तर में उन्होंने वेदों को प्राप्त कर अपने धार्मिक व सामाजिक सिद्धान्त निश्चित किये। ऐसा कर लेने पर उन्होंने सभी मत-मतान्तरों के ग्रन्थों का गहन अध्ययन कर उनकी मान्यताओं व सिद्धान्तों एवं परम्पराओं का भी अध्ययन किया था। उन्हें विदित हुआ था कि सभी मत-मतान्तर अविद्या व अज्ञान से युक्त हैं। सभी मनुष्यों का यथार्थ धर्म तो एक ही होता है। संसार में ईश्वर एक ही है। सब मनुष्यों का जन्मदाता भी वही एक ईश्वर है। अतः ईश्वर की शिक्षा व उसके कर्म-फल सिद्धान्त को जानकर आचरण करना ही सत्यधर्म होता है। सब मनुष्यों का वह धर्म वेदों में निहित ईश्वर की आज्ञा का पालन करना है। इस निश्चय को प्राप्त होकर ही विश्व के कल्याण हेतु महर्षि दयानन्द ने वेद प्रचार का कार्य आरम्भ किया था।
ऋषि दयानन्द ने एक आदर्श आचार्य व गुरु की तरह धर्म व समाज संबंधी अविद्या को दूर करने के लिये उसका खण्डन किया और अविद्या युक्त कथनों के स्थान पर विद्यायुक्त वैदिक मान्यताओं व सिद्धान्तों से देश देशान्तर की जनता को परिचित कराया। उन्होंने मनुष्य जीवन में यम व नियम अर्थात् अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय तथा ईश्वर प्रणिधान आदि गुणों को अपनाने पर बल दिया था। बिना इसके अपनाये मनुष्य सच्चा व आध्यात्मिक दृष्टि से उन्नत मनुष्य नहीं बन सकता। ऐसा बन कर ही मनुष्य को वर्तमान तथा भविष्य सहित पुनर्जन्म में भी सुख प्राप्त हो सकते हैं। मनुष्य व समाज की उन्नति के लिए सत्य का मण्डन तथा असत्य का खण्डन व समालोचना आवश्यक होती है। यही कार्य ऋषि दयानन्द ने किया। ऐसा करके ऋषि दयानन्द ने समाज के समाने सत्यधर्म जिसे मानवधर्म का पर्याय कह सकते हैं, प्रस्तुत किया है।
ऋषि दयानन्द को आशा थी कि संसार के सत्यप्रेमी सभी लोग उनके विचारों व मान्यताओं को स्वीकार कर लेंगे परन्तु ऐसा हुआ नहीं। ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में कहा है कि मनुष्य का आत्मा सत्य व असत्य को जानने वाला होता है तथापि अपने प्रयोजन की सिद्धि, हठ, दुराग्रह तथा अविद्या आदि दोषों के कारण सत्य को छोड़कर असत्य में झुक जाता वा प्रवृत्त हो जाता है। इन्हीं कारणों से मनुष्य सत्य से दूर होकर मत-मतानतरों में रहकर अपना पूरा जीवन गुजार देते हैं। वर्तमान यही स्थिति में संसार में परिलक्षित होती है। ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में वेदों के सत्यस्वरूप सहित सत्य मानवधर्म का प्रकाश भी किया है। सहस्रों व लाखों निष्पक्ष सत्य प्रिय लोगों ने सत्यार्थप्रकाश, वेद तथा आर्यसमाज को अपनाया। किसी ने पूर्ण तो किसी ने आंशिक रूप में अपने हिताहित के अनुसार ऋषि दयानन्द व वेदों के सिद्धान्तों को स्वीकार किया। इससे देश देशान्तर में समाज सुधार की नींव पड़ी थी। यह देश व संसार का दुर्भाग्य ही है कि सभी लोगों ने सत्यार्थप्रकाश में वर्णित वेदों की सत्य मान्यताओं को स्वीकार नहीं किया। इसके परिणाम हमारे सामने हैं। वेद के मानने वाले भी पूर्णतः संगठित नहीं हैं। इससे देश व समाज को अनेक हानियां हो रही है। संगठित होकर धर्म का प्रभावशाली प्रचार इसी कारण से विगत अनेक वर्षों से नहीं हो सका। अतः सभी मनुष्यों को वेद व ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों का अध्ययन कर सत्य को जानने व उसे अपनाने की प्रेरणा लेनी चाहिये। इससे ही मनुष्य के निजी जीवन सहित परलोक के जीवन का सुधार व उन्नति होगी।
वेदों का अध्ययन करने से हमें मनुष्य के धारण करने योग्य सभी सत्य गुणों का ज्ञान होता है। यम व नियमों में भी उनका दिग्दर्शन होता है। हमें मनुष्य को धारण करने योग्य सभी गुणों को जानकर उन्हें धारण करना चाहिये। सबको पक्षपात रहित होना चाहिये व न्याय के सिद्धान्तों का पालन करना चाहिये। वेद अनुमोदित पंच महायज्ञों का भी सबको सेवन करना चाहिये। इससे हम सच्चे ईश्वर, मातृ, पितृ तथा आचार्यों के भक्त बनेंगे। इससे हमारी अविद्या दूर होकर हम सर्वज्ञ ईश्वर की विद्या वेद से युक्त होकर अज्ञान से मुक्त और विद्या से युक्त हो सकेंगे। ऐसा करके ही हमारे जीवन से पाप कर्मों की निवृत्ति होने तथा शुभ कर्मों की अधिकता होने से हम दुःखों से मुक्त तथा सुखों व आनन्द से युक्त होंगे तथा परलोक में भी हमें सुख, शान्ति व मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है। वेदों के अनुसार जीवन व्यतीत करने से ही मनुष्य की सर्वांगीण उन्नति होती है। वेदों का ज्ञान ही सबके लिये जानने योग्य व आचरण करने योग्य है। वेद का अध्ययन व आचरण करने वाले मनुष्य को जीवन में कभी पश्चाताप नहीं होता। वह जन्म व जन्मान्तरों में सुख पाता है। ईश्वर ऐसी ही अपेक्षा सभी जीवों से करते हैं कि वह सब वेद विहित कर्मों को करते हुए अपने जीवन का कल्याण करें। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
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