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अपनी बात स्वयं कहती लघुकथाएं

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17 Jun 22
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अपनी बात स्वयं कहती लघुकथाएं

 ‘आज सुबह की प्रार्थना सभा में आप ही ने तो बताया था कि पर्यावरण को बचाना है तो हर संभव प्रयास से पेड़ों को बचाना होगा। और सर! कागज भी तो पेड़ों से ही बनता है ना?’ 
    लघुकथाकार राम निवास बांयला की लघुकथा में एक बालक का अपने प्राचार्य से यह संवाद अपने आप में बहुत कुछ कहता है। जब यह छोटा सा संवाद संग्रह की लघुकथा ‘पर्यावरण दिवस’ में हमदेखते हैं तो पूरा प्रसंग हमारे भीतर कहीं अटक सा जाता है। माना बहुत नई बात नहीं है और कथनी-करनी भेद पर अनेक रचनाएं लिखीं जा चुकी हैं, आगे भी लिखी जाएंगी। कुछ विषय जैसे पर्यावरण-चेतना की आवश्यकता कल भी थी, आज भी हैं और कल भी हमें इस विषय पर बात करनी होगी। समय के प्रवाह में अपनी प्रासंगिता और उपयोगिता को बचाए रखने से भी जरूरी बात है यह देखना होता है कि किसी रचना में विषय को किस प्रकार प्रस्तुत किया है। रचना में रचनाकार का अवदान ही समग्र रूप से उसकी साहित्य में उपस्थिति को तय करने का प्रमुख घटक होता है।  
    प्रस्तुत लघुकथा संग्रह ‘उजास’ में अनेक लघुकथाएं ऐसी हैं जिनमें लेखक राम निवास बांयला की संवेदनाएं हमारे अनुभव का हिस्सा बनने में सफल रही हैं। वर्तमान समय में साहित्य और समाज की स्थितियों में बड़ा बदलाब हुआ है, पाठकों में लघुकथाओं की प्रासंगकिता बढ़ती जा रही है। इसका कारण है कि किसी बात को बहुत कम शब्दों में कहना हो तो हमारे पास एक सशक्त माध्यम लघुकथा है।
    आज राम निवास बांयला का नाम इक्कीसवी शताब्दी के प्रमुख लघुकथाकारों में राजस्थान से उभर कर बड़े पटल पर छाया हुआ है। वैसे तो बांयला जी ने गद्य-पद्य की अनेकविधाओं में लिखा है और वे वर्षों से लिख-पढ़ रहे हैं।उनके दो कविता-संग्रह-‘बोनसाई’और ‘बिसात’ प्रकाशित हैं। लघुकथा की बात करें तो लघुकथा संग्रह-‘हिमायत’ (2011)के बाद यहदूसरा संग्रह ‘उजास’ लगभग दस वर्षों के अंतराल से आ रहा है। मेरा मानना है कि इस अंतराल में उन्होंने हिंदी लघुकथा को अनेक महत्त्वपूर्ण लघुकथाएं दी हैं, जो इस संकलन में शामिल हुई है।
    एक रचनाकार के रूप में राम निवास बांयला ने विगत बीस-पच्चीस वर्षों में अपने आस-पास के परिवेश को जिस ढंग से परिवर्तित होते देखा-परखा और अनुभूत किया है, वह उनकी रचनाओं में मुखरता से बोलता है। यह बोलना वाचाल किस्म का नहीं है। यहां बोलने और कहने में एक संयम और प्रतिकार सहज रूप से शामिल है। बांयला जी की इन रचनाओं में प्रमुखता से हम हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक बदलाव को देखते हैं। यहां यह बहुत बड़ा खतरा था कि वे शिक्षण से जुड़े होने के करण सीधे सीधे उपदेशक की भूमिका में हमारे समाने आ जाते किंतु उन्होंने इस स्थिति से बचते हुए अपनी भूमिका में एक शिक्षक की तुलना में एक रचनाकार की भूमिका को स्वीकार किया है। रचनाकार और शिक्षक के कामों में काफी समानताएं है किंतु विभेद भी है। 
    आदर्श, नैतिकता, शिक्षा और संस्कारों की अनेक बातें ‘उजास’ संग्रह की अनेक लघुकथाओं में किसी उपदेश अथवा सीख के रूप में नहीं, वरन इस प्रकार प्रस्तुत है कि लघुकथाकार अपने पाठकों में स्वविवेक जाग्रत करना चाहता है।भाषा की गरिमा में यह समाहित है कि रचनात्मक अनुभवों से पाठक स्वयं अपनी दिशा तय करते हुए फैसले लेने में सक्षम बनें। लघुकथा शब्द में ‘कथा’ संलग्न है और कथा शब्द से रचनाएं व्यापक-विशद घरातल को स्पर्श करती हैं। संभवतः इसी कारण विद्वानों में लघुकथा विधा के लिए ‘गागर में सागर’ की बात कही है। 
    किसी असंभव कार्य को शब्द ही संभव बनाने में सक्षम हो सकते हैं। सवाल यह है कि लघुकथा में शब्दों का प्रयोग बहुत सावधानीपूर्वक किस प्रकार किया जाए जिससे बड़ी से बड़ी बड़ी बात को कहना भी सहज संभव हो जाए। यह सहज संभव कैसे होता है, इसके लिए संग्रह की लघुकथा ‘भेजे में घुसी लकड़ी’ को देखें-
    मैंने कुल्हाड़ी को उलाहना दिया : हे कुल्हाड़ी! तू कितनी दुष्ट है? जो फल, फूल, छाया व प्राण वायु प्रदाता है, तू उन्हीं पेड़ों को काटती है।
    कुल्हाड़ी ने सहजता से उत्तर दिया : जो भेजे में घुस कर दिमाग खराब करेगा तो भुगतेगा भी वही।
    यहां महज एक सवाल है और उसका छोटा सा जवाब है। यह संवाद प्रस्तुत करते हुए लघुकथार ने बहुत कम शब्दों में बिना मुखर हुए बहुत बड़ी बात कह दी है। किस बात को कहने के लिए कैसा फार्मेट रहेगा, यह रचनाकार ही तय करता है अथवा कहें कि यह एक लेखन-प्रक्रिया है। कहा जाता है कि सर्वाधिक कला वहां होती है जहां वह दिखाई नहीं देती है। आज ज्ञान विज्ञान के क्षेत्रों में अत्यधिक विकास हुआ है कि हम हमारी परंपरा और संस्कृति-संस्कारों से किसी न किसी रूप में कटते जा रहे हैं। यह एक डोर है जो मानव को मानव से बांधती है वह कमजोर हो रही है ऐसे में अनेक जीवनानुभव हैं। हमारी गतिविधियों और संबंधों का निर्धारण कैस होता है यह एक बहुत जटिल प्रक्रिया नहीं है फिर भी भारतीय परंपरा में कुछ ऐसा है जिसे हमें बचना-सहेजना और संवारना है। वह है मानव मूल्य।
    हमारे आस-पास के जीवन में अनेक रचनाएं फैली-बिखरी हुई है। कुछ को सीधे-सीधे और कुछ को प्रतीक के रूप में यहां इस संग्रह में प्रस्तुत किया गया है। लघुकथाकार राम निवास बांयला के इस लघुकथा संग्रह में अनुभव है तो चिंतन और मनन भी है। इसे ऐसा भी कह कहते हैं कि इनमें ज्ञान के कुछ सूत्र भी हैं जो हमें जीवन में सीखने-समझने और निरंतर आगे बढ़ने की प्रेरणा देने वाले हो सकते हैं। सूक्ष्म-सूत्रों की बात को समझने के लिए लघुकथा- ‘मीठापन’ देखें-
    : हे ईख! तुम कितनी मीठी हो?
    : हां सो तो हूं।
    : इस मीठेपन का ईनाम?
    : आखिरी बूंद तक निचुड़ते रहना।
    यह संवाद किसी कविता की भांति हमें चिंतन के व्यापक वितान में ले जाता है, जैसे किसी ब्योम में यह हमें छोड़ कर चल देता है। यहां जीवन और अनुभव के विभिन्न क्षेत्रों से जुड़ी सच्चाइयां नजर आने लगती है। ऐसा बार बार कहा-सुना गया है कि जो काम करेगा वही मरेगा... या फिर उसी पेड़ पर पत्थर फेंके जाते हैं, जो फलदार होता है। लघुकथाओं की महज कुछ पंक्तियों से गुजरते हुए अनेक ऐसी कुछ उक्तियां और संदर्भ हमारे दिलो-दिमाग में एक साथ सक्रिय हो उठते हैं। 
    लघुकथा विधा में कविता, कहानी, नाटक जैसी अनेक विधाओं का समावेश यहां प्रयोग के रूप में भी हम देख सकते हैं। एक रचनाकार यही चाहता है कि किसी भी प्रकार से अच्छे समाज के लिए ऐसी ईखें समाज घर-परिवार में सदा उपस्थित रहें और इस जीवन को वे अंत तक मीठा करती रहें। जीवन में जहर और अमृत दोनों है, यह फैसला हमारा है कि हम अपने भीतर क्या भरना रखना चाहते हैं।
    यहां संसार को मीठा और सरस बनाने में स्वयं लघुकथाकार राम निवास बांयला रचनाकार के रूप में सतत सक्रिय हैं। वे केंद्रीय विद्यालय संगठन में हिंदी शिक्षक के रूप में सेवाएं देते हुए नई पीढ़ी के उज्जवल भविष्य हेतु प्रत्यनशील हैं। उनकी संवेदनाओं-अनुभूतियों-चिंतनधारों में विचारों की बहुआयामी छटा के अनेक क्षितिज इस संग्रह में हम यत्र-तत्र कहें सर्वत्र देख सकते हैं। कहने को बहुत कुछ है, किंतु यहांयह कहना पर्याप्त होगा कि प्रत्येक लघुकथा अपनी बात स्वयं कह रही है। मैं ‘उजास’ संग्रह का स्वागत करते हुए अपनी शुभकानाएं देता हूं।


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