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“उपासना, उपासना की आवश्यकता एवं उपासना से लाभ”

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13 Jan 22
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“उपासना, उपासना की आवश्यकता एवं उपासना से लाभ”

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। यह अकेला रहकर अपना जीवन व्यतीत नहीं कर सकता। इसे सज्जन पुरुषों की संगति तो अवश्य ही करनी होती है। ऐसा करके ही यह उनसे कुछ सद्गुणों को ग्रहण कर अपने जीवन को संवार सकता है। जिस मनुष्य के जीवन में सद्गुण नहीं होते, उस जीवन की कोई कीमत नहीं होती। एक खिले हुए फूल का महत्व होता है, वह सुन्दर दीखता है और हमें सुगन्ध प्रदान करता है तथा वायु शोधन में भी फूल की सुगन्ध की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। वही फूल जब मुरझा जाता है तो उसका महत्व समाप्त हो जाता है। वह खाद का काम तो कर सकता है अथवा ओषधियों के रूप में भी उपयोग में आ सकता है परन्तु उसका इससे अधिक महत्व नहीं होता। मनुष्य जीवन सद्गुणों से सुगन्धित होता है। जिस मनुष्य के जीवन में सद्गुण न हों, ऐसे मनुष्य की कोई कीमत नहीं होती। उसे कोई सज्जन मनुष्य अपने पास बैठाना भी पसन्द नहीं करता। हम कह सकते हैं कि सद्गुणों से रहित मनुष्य जीवन निरूपयोगी होता है। वह ससार से जो हवा, पानी व भोजन लेता है, उसके प्रत्युत्तर में वह समाज व देश को कुछ देता नहीं है। वृद्धावस्था में रोगी होकर व मृत्यु होने पर उसके शरीर का कोई उपयोग नहीं होता अपितु बहुमूल्य लकड़ियों व घृतादि पदार्थों का प्रयोग कर उसे अग्नि को समर्पित करना होता है। उससे भी वायु में प्रदुषण व मनुष्य एवं प्राणियों को दुःख होता है। 

    दो मनुष्य जब कहीं पर मिलते हैं, वार्तालाप करते हैं तो इसे संगतिकरण कहते हैं। इसी का नाम उपासना भी है। उपासना का अर्थ समीप बैठना होता है। उपासना से दो मनुष्यों के गुणों का एक दूसरे में संचार होता है। अच्छे गुणों वाले मनुष्य के गुण कम अच्छे गुण वाले मनुष्य में संचरित होते हैं। इसे गुण ग्रहण करने व बुराईयों को छोड़ने की एक प्रक्रिया कह सकते हैं। यदि किसी बुरे मनुष्य को अच्छा बनाना हो, तो उसे किसी अच्छे व ज्ञानी मनुष्य की संगति में रखना चाहिये। ऐसा करके धीरे धीरे उसकी बुराईयां कम होने लगेंगी और उसमें संगति करने वाले मनुष्य के ज्ञानादि गुणों का धारण होना आरम्भ हो जायेगा। हम स्वामी श्रद्धानन्द जी के आरम्भिक जीवन में मांस-मदिरा के सेवन सहित अन्य कुछ अवगुणों को भी पाते हैं। विदेशी साहित्य पढ़कर वह नास्तिक तक हो गये थे। उनके पिता द्वारा उन्हें बरेली में स्वामी दयानन्द जी के सत्संग में जाने को कहा जाता है। पिता समझते हैं कि इससे उनके पुत्र मुंशीराम जी का जीवन व चरित्र सुधर सकता है। मुंशीराम जी पिता की आज्ञा का पालन कर वहां जाते हैं और कुछ दिनों की ही संगति का भविष्य में यह परिणाम होता है कि वह एक साधारण मनुष्य, पहले महात्मा मुंशीराम बनता है और बाद में संन्यास लेकर स्वामी श्रद्धानन्द बन जाता है। स्वामी श्रद्धानन्द जी के जीवन की विशेषताओं को कुछ शब्दों में बताया नहीं जा सकता। वह एक सच्चे एवं आदर्श महापुरुष थे। उनके बारे में कहा जा सकता है कि उनके जीवन की सभी बुराईयां स्वामी दयानन्द जी की संगति के प्रभाव से व आर्यसमाज के सज्जन पुरुषों की संगति से दूर हो गई थीं। वह सच्चे महात्मा, समाज सुधारक, स्वतन्त्रता आन्दोलन को नेतृत्व देने वाले, अशिक्षा को दूर कर वैदिक मूल्य प्रदान गुरुकुलीय शिक्षा पद्धति के पुरस्कर्ता, दलितोद्धारक, धर्म प्रचारक, ईश्वर व वेद भक्त, देशभक्त व शुद्धि आन्दोलन के अप्रतिम नेता बने और उन्होंने देश और धर्म की उन्नति के लिए उत्कृष्ट कार्य किये व मार्गदर्शन किया। 

    मनुष्य जीवन अनादि व नित्य चेतन आत्मा और जड़ शरीर को मिलाकर परमात्मा ने बनाया है। हमारी आत्मा अनुत्पन्न, अविनाशी व अमर चेतन सत्ता है। परमात्मा ने ही इस सृष्टि को सत्व, रज व तम गुणों वाली प्रकृति से बनाया है। सभी प्रकार का ज्ञान व विज्ञान इस सृष्टि में उपलब्ध है जिसे हम गुरुओं की शिक्षा, वेद, ऋषिकृत वैदिक साहित्य के स्वाध्याय, विचार एवं चिन्तन से बढ़ा सकते हैं। इसी प्रणाली से हमारे देश के मनुष्य ईश्वर भक्त, उपासक, ज्ञानी, विद्वान, ऋषि व ईश्वर का साक्षात्कार करने वाले ध्यानी व योगी बनते थे। ध्यान एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें मनुष्य किसी एक विषय का चिन्तन कर उसे अधिकाधिक जानने व समझने में समर्थ होता जाता है। किसी विषय का जितना अधिक मनोयोग पूर्वक ध्यान हम करेंगे, उस विषय को उतना ही अधिक जान व समझ पायेंगे। ईश्वर ने हमारे व संसार के सभी प्राणियों के लिये इस सृष्टि को बनाया है व पालन कर रहा है। हमारे जन्म-मरण व पुनर्जन्म की व्यवस्था भी वही करता है। इस मनुष्य शरीर में ज्ञान व कर्मेन्द्रियों सहित शरीर द्वारा हमारी आत्मा जिन सुखों का भोग करती है, उन सुखों को देने वाला भी ईश्वर ही है। अतः ईश्वर के इस ऋण को चुकाना सभी मनुष्यों का मुख्य कर्तव्य है। ईश्वर का ऋण चुकाने के लिए हमारे पास हमारी आत्मा के अतिरिक्त अन्य कोई भी उत्तम पदार्थ नहीं है। हमारा शरीर भी परमात्मा का दिया हुआ है। हमारा यह शरीर परमात्मा द्वारा बिना किसी मूल्य व अपेक्षा से दिए जाने के कारण हम पर परमात्मा के ऋण के रूप में है। संसार के सभी भौतिक पदार्थ सूर्य, चन्द्र, भूमि, अग्नि, वायु, जल, आकाश, शब्द आदि भी परमात्मा के ही बनाये हुए हैं। उस परमात्मा को किसी भौतिक पदार्थ, फूल, जल, दक्षिणा आदि की आवश्यकता नहीं है। जो ऐसा करते हैं वह ईश्वर की पूजा नहीं अपितु अज्ञानपूर्वक ऐसा करते हैं, यह बात विचार करने पर सिद्ध होती है। ऐसे अविद्यायुक्त कार्यों से छोटे-मोटे लाभ हो सकते हैं। हानियां भी बहुत होती है। वेदविरुद्ध आचरणों, मत-मतान्तरों की वेदविरुद्ध शिक्षाओं, मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, अवतारवाद के नियम तथा जन्मना-जाति-व्यवस्था आदि से देश गुलाम तक हुआ है। मूर्तिपूजा आदि करने से ईश्वर तो किसी को मिलता नहीं वा प्राप्त नहीं होता है। 

    ईश्वर की आज्ञा पालन करके ही मनुष्य ईश्वर का ऋण चुका सकता है। ईश्वर की आज्ञा जानने के लिए ईश्वरीय ज्ञान वेद है अथवा वेदों के शिखर विद्वान-पुरुष ऋषियों व उनके उपलब्ध ग्रन्थ हैं। हमें वेद और ऋषिकृत ग्रन्थों का अध्ययन, उनकी रक्षा व प्रचार करना है। इन ग्रन्थों में वेदानुकुल जो आज्ञायें व शिक्षायें हैं उनका पालन भी हमें करना है। जब हम ऋषि दयानन्द कृत वेदभाष्य या आर्य विद्वानों के वेदभाष्यों के द्वारा वेदों का स्वाध्याय करते हैं तो हमारी आत्मा में ईश्वर के सत्यस्वरूप व उसकी शिक्षाओं से साक्षात्कार या उनका प्रत्यक्षीकरण होता है। किसी आसन में बैठकर अधिक से अधिक समय तक ंईश्वर के स्वरूप व गुणों का ध्यान करना व ईश्वर की कृपाओं के लिए उसका धन्यवाद करना ही ईश्वरोपासना सिद्ध होती है। इससे हमारी आत्मा में ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव के अनुकूल गुण, कर्म व स्वभावों का बनना आरम्भ हो जाता है और बुराईयां दूर होती जाती है। आत्मा का बल भी बढ़ता है। ऋषि कहते हैं कि पहाड़ के समान दुःख प्राप्त होने पर भी ईश्वर की उपासना करने वाला मनुष्य घबराता नहीं है। पहाड़ के समान दुःख में मृत्यु के समय होने वाला दुःख भी सम्मिलित है जो अज्ञानी मनुष्यों को अधिक होता है।

    ऋषि दयानन्द कृत स्तुति, प्रार्थना, उपासना के आठ मंत्रों के प्रथम मंत्र में उपासक ईश्वर से प्रार्थना करता हुआ कहता है कि हे सकल जगत् के उत्पत्तिकर्ता, समग्र ऐश्वर्ययुक्त शुद्धस्वरूप, सब सुखों के दाता परमेश्वर! आप कृपा करके हमारे समस्त दुर्गुण, दुव्र्यसन और दुःखों को दूर कर दीजिए और जो कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ हैं, वह सब हमको प्राप्त कीजिए। ईश्वर की उपासना करने के लिए ऋषि दयानन्द ने वेद एवं योगदर्शन के आधार पर सन्ध्योपासना की एक सरल, सारगर्भित तथा ईश्वर का साक्षात्कार कराने में समर्थ व सफल करने वाली विधि लिखी है। ऋषि ने विधान किया है कि प्रत्येक मनुष्य को प्रातः व सायं न्यूनातिन्यून एक घंटा उपासना करनी चाहिये। यदि सभी मनुष्य सन्ध्योपासना विधि के आधार पर मन्त्रों का पाठ करने के साथ उनके अर्थों पर विचार करते हुए ईश्वर की उपासना व ध्यान करेंगे तो उससे भावी जीवन में अवश्यमेव उनकी आत्मा की पवित्रता स्थापित होगी। इसके साथ साधना में वह काफी आगे बढ़ सकते हैं। इससे साधक व उपासक का यह जीवन व परजन्म सुधर सकता है। उपासना के लिए योगदर्शन पर महात्मा नारायण स्वामी, आचार्य उदयवीर शास्त्री आदि अनेक आर्य विद्वानों के भाष्य उपलब्ध है। पं. राजवीर शास्त्री सम्पादित योगदर्शन पर व्यासभाष्य पर हिन्दी टीका भी उपलब्ध है। इस ग्रन्थ की अन्य विशेषतायें भी हैं। योग व उपासना पर अन्य प्रचुर सहित्य भी उपलब्ध है। सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका एवं संस्कारविधि आदि ऋषि दयानन्द कृत ग्रन्थों से भी उपासना के महत्व व विधि को जाना जा सकता है। उपासना साधक व उपासक का ईश्वर से मेल कराती है वा दोनों को आपस में जोड़ती है। मनुष्य की आत्मा शुद्ध व पवित्र होकर वैदिक कर्तव्यों का पालन करने वाली बनती है। ऐसा मनुष्य दूसरों को भी अपने ज्ञान से लाभान्वित करता है। इससे हम समझते हैं कि ईश्वर का ऋण जो इस मनुष्य जन्म के रूप में हम पर है, वह कुछ सीमा तक कम होता है। उपासना की सफलता ईश्वर का साक्षात्कार वा ईश्वर-प्रत्यक्ष की सिद्धि पर होती है। यह असम्प्रज्ञात समाधि में होता है। इस स्थिति को प्राप्त योगी वा जीवात्मा का पुनर्जन्म नहीं होता। उसे आवागमन से छूट अर्थात् मुक्ति मिल जाती है। मुक्ति मोक्ष को कहते हैं। मोक्ष प्राप्त होने पर उपासक 31 नील 10 खरब से अधिक वर्षों तक बिना जन्म-मरण वा पुनर्जन्म लिए ईश्वर के सान्निध्य में रहकर ईश्वर का आनन्द को प्राप्त करता है और मुक्त आत्माओं से मिलता व उनसे संवाद आदि करता है। जीवात्मा की सर्वोत्तम गति वा उन्नति मुक्ति वा मोक्ष प्राप्ति ही है। यह लाभ उपासना की सफलता का होता है। आईये, सन्ध्या उपासना द्वारा हम ईश्वर की संगति कर अपने दुर्गुणों व दुःखों को दूर करें, सद्गुणों को प्राप्त हों, ईश्वर के ऋण से उऋण होकर अपने वर्तमान व भावी जीवन को श्रेष्ठ बनायें तथा मोक्ष को प्राप्त होकर आवागमन के दुःखों से दीर्घकाल तक के लिए मुक्त होंवे। ओ३म् शम्। 
-मनमोहन कुमार आर्य
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