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“मकर संक्रान्ति पर्व कब, क्यों एवं कैसे मनाते हैं?”

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24 Nov 21
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“मकर संक्रान्ति पर्व कब, क्यों एवं कैसे मनाते हैं?”

भारतीय पर्वों में एक पर्व मकर संक्रान्ति पर्व है। यह शीतकाल में जनवरी महीने की 14 जनवरी को मनाया जाता है। इस दिन सूर्य वा पृथिवी मकर संक्रान्ति में प्रवेश करते हैं। इसी दिन से रात्रि की अवधि का घटना तथा दिन (सूर्योदय से सूर्यास्त) की समयावधि का बढ़ना आरम्भ होता है। मकर संक्रान्ति से दिन के समय के बढ़ने की यह प्रक्रिया निरन्तर 6 महीनों तक चलती रहती है वा विद्यमान रहती है। इन 6 महीनों की अवधि को ‘‘देवयान” के नाम से जाना जाता है। अतीत में यह मान्यता रही है कि देवयान में शरीर त्याग करने से आत्मा की उत्तम गति होती है। अतः हमें इस पर्व के महत्व व इसे मनाये जाने के कारण को जानना चाहिये और इसे मनाकर प्राचीन काल से चली आ रही परम्परा को सुरक्षित रखना चाहिये। मकर संक्रान्ति पर्व विषयक निम्न जानकारी उपलब्ध है। 

    हमारी पृथिवी सूर्य की परिक्रमा करती है। यह सूर्य की परिक्रमा में जो समय लेती है उसे ‘‘सौर वर्ष” कहा जाता है। पृथिवी सूर्य के चारों ओर कुछ लम्बी जिस वर्तुलाकार परिधि पर परिभ्रमण करती है, उस को ‘‘क्रान्तिवृत” कहते हैं। खगोल ज्योतिषियों द्वारा इस क्रांतिवृत्त के 12 भाग कल्पित किए हुए हैं और उन 12 भागों के नाम उन-उन स्थानों पर आकश में नक्षत्र पुंजों से मिलकर बनी हुई कुछ मिलती-जुलती आकृति वाले पदार्थों के नाम पर रख लिये गए हैं। जैसे 1 मेष, 2 वृष, 3 मिथुन, 4 कर्क, 5 सिंह, 6 कन्या, 7 तुला, 8 वृश्चिक, 9 धनु, 10 मकर, 11 कुम्भ तथा 12 मीन। क्रान्ति वृत्त का यह प्रत्येक 12 वां भाग वा आकृति ‘‘राशि” कहलाती है। जब पृथिवी एक राशि से दूसरी राशि में संक्रमण करती है तो उसको ‘संक्रान्ति’ कहते हैं। लोक में उपचार से पृथिवी के संक्रमण को सूर्य का संक्रमण कहने लगे हैं। छः मास तक सूर्य क्रान्तिवृत्त से उत्तर की ओर उदय होता रहता है और छः मास तक दक्षिण की ओर निकलता रहता है। प्रत्येक षण्मास की उवधि का नाम ‘अयन’ है। सूर्य के उत्तर की ओर उदय की अवधि को ‘उत्तरायण’ और दक्षिण की ओर उदय की अवधि को ‘दक्षिणायन’ कहते हैं। उत्तरायण-काल में सूर्य उत्तर की ओर से उदाय होता हुआ दीखता है और उसमें दिन बढ़ता जाता है और रात्रि घटती जाती है। दक्षिणायन में सूर्याेदय दक्षिण की ओर होता हुआ दृष्टिगोचर होता है और उसमें रात्रि बढ़ती जाती है और दिन घटता जाता है। सूर्य की मकर राशि की संक्रान्ति से उत्तरायण और कर्क संक्रान्ति से दक्षिणायन प्रारम्भ होता है। सूर्य के प्रकाशाधिक्य के कारण उत्तरायण विशेष महत्वशाली माना जाता है अतएव उत्तरायण के आरम्भ दिवस मकर की संक्रान्ति को भी अधिक महत्व दिया जाता है और स्मरणातीत-चिरकाल से उस पर पर्व मनाया जाता है। यद्यपि इस समय उत्तरायण परिवर्तन ठीक-ठीक मकर संक्रान्ति पर नहीं होता और अयन-चयन की गति बराबर पिछली ओर को होते रहने के कारण संवत् 1994 विक्रमी में मकर-संक्रान्ति से 22 दिन पूर्व धनु राशि के 7 अंश 24 कला पर ‘‘उत्तरायण” होता है। इस परिवर्तन को लगभग 1350 वर्ष लगे हैं परन्तु पर्व मकर-संक्रान्ति के दिन ही होता चला आता है। इससे सर्वसाधारण जनों को जो ‘मकर-संक्रान्ति’ पर पर्व मानते हैं ज्योतिष-शास्त्र से अनभिज्ञता का कुछ परिचय मिलता है, किन्तु शायद पर्व का चलते न रहना अनुचित मानकर मकर-संक्रान्ति के दिन ही उत्तरायण या देवयान पर्व मनाने की रीति चली आती हो। 

    मकर संक्रान्ति पर्व क्यों मनाया जाता है, इसका कारण इस दिन आकाश में घट रही घटना को स्मरण रखना व उसको जानने का भाव प्रतीत होता है। मकर संक्रान्ति को मनाने की विधि हमारे पूर्वजों ने ऋतु को ध्यान में रखकर बनाई है। मकर-संक्रान्ति के अवसर पर शीत अपने यौवन पर होता है। जनावासों सहित जगंल, वन, पर्वत सर्वत्र शीत का आतंक छा रहा है, चराचर जगत् शीतराज का लोहा मान रहा है, हाथ-पैर जाड़े से सिकुड़ जाते हैं, ‘‘रात्रौ जानु दिवा भानुः” रात्रि मे जंघा और दिन में सूर्य, किसी कवि की यह उक्ति दोनों पर आजकल ही पूर्णरूप से चरितार्थ होती है। दिन की अब तक यह अवस्था थी कि सूर्यदेव उदय होते ही अस्तांचल के गमन की तैयारियां आरम्भ कर देते थे, मानो दिन रात्रि में लीन ही हुआ जाता था। रात्रि सुरसा राक्षसी के समान अपनी देह बढ़ाती ही चली आती थी। अन्त को उस का भी अन्त आया। मकर संक्रान्ति के दिन मकर ने उसको निगलना आरम्भ कर दिया होता है। इस दिन सूर्य देव ने उत्तरायण में प्रवेश किया होता है। इस काल की महिमा संस्कृत साहित्य में वेद से लेकर आधुनिक ग्रन्थों पर्यन्त सविशेष वर्णन की गई है। वैदिक ग्रन्थों में उस को ‘देवयान’ कहा गया है और ज्ञानी लोग स्वशरीर त्याग तक की अभिलाशा इसी उत्तरायण में रखते हैं। उनके विचारानुसार इस समय देह त्यागने से उन की आत्मा सूर्य लोक में होकर प्रकाश मार्ग से प्रयाण करेगी। आजीवन ब्रह्मचारी रहे भीष्म पितामह ने इसी उत्तरायण के आगमन तक शर-शय्या पर शयन करते हुए प्राणों के उत्क्रमण की प्रतीक्षा की थी। ऐसा प्रशस्त समय किसी पर्व के बनने से कैसे वंचित रह सकता था। आर्यजाति के प्राचीन नेताओं ने मकर-संक्रान्ति (सूर्य की उत्तरायण संक्रमण तिथि) का पर्व निर्धारित कर दिया। यह मकर संक्रान्ति का पर्व चिरकाल से चला आ रहा है। यह पर्व भारत के प्रायः सभी प्रान्तों में प्रचलित है। इसे एक देशी पर्व न कहकर सर्वदेशी पर्व कहा जा सकता है। सब प्रान्तों में इसे मनाने की परिपाटी में भी समानता पाई जाती है। सर्वत्र शीतातिशय निवारण के उपचार प्रचलित हैं। 

    वैद्यक शास्त्र में शीत के प्रतीकार तिल, तेल तथा तूल (रूई) बताए गए हैं। इन तीनों में तिल सबसे मुख्य है। इसलिए पुराणों में पर्व के सब कृत्यों में तिलों के प्रयोग का विशेष महात्म्य गाया गया है। वहां तिल को पापनाशक कहा गया है। शीत ऋतु में शीत से होने वाले दुःखों के निवारण में कुछ सीमा तक तिल का महत्व है। अतः इसे पाप व दुःखनाशक कहना उचित ही है। किसी पुराण का प्रसिद्ध श्लोक हैः ‘तिलस्नायी तिलोद्वर्ती तिलहोमी तिलोदकी। तिलभुक् तिलदाता च षट्तिलाः पापनाशनाः।।’ इसका अर्थ है तिल मिश्रित जल से स्नान, तिल का उबटन, तिल का हवन, तिल का जल, तिल का भोजन और तिल का दान ये छः तिल के प्रयोग पाप वा दुःखनाशक हैं। 

    मकर-संक्रान्ति के दिन भारत के सब प्रान्तों में तिल और गुड़ या खांड के लड्डू बना-बनाकर, जिन को ‘तिलवे’ कहते हैं, दान किये जाते हैं और इष्ट-मित्रों में बांटे जाते हैं। महाराष्ट्र राज्य में इस दिन तिलों का ‘तीलगूल’ नामक हलवा बांटने की प्रथा है। सौभाग्यवती स्त्रियां तथा कन्यायें इस दिन अपनी सहेलियों से मिलकर उन को हल्दी, रोली, तिल और गुड़ भेंट करती हैं। प्राचीन ग्रीक लोग भी वधू-वर की सन्तान वृद्धि के निमित्त तिलों का पक्वान्न बांटते थे। इस से ज्ञात होता है कि तिलों का प्रयोग प्राचीनकाल में विशेष गुणकारक माना जाता रहा है। प्राचीन रोमन लोगों में मकर-संक्रान्ति के दिन अपने इष्ट मित्रों को अंजीर, खजूर और शहद भेंट देने की रीति प्रचलित थी। यह भी मकर संक्रान्ति पर्व की सार्वजनिकता और प्राचीनता का परिचायक है। 

    मकर संक्रान्ति पर्व पर दीन-दुःखियों को शीत निवारणार्थ कम्बल और घृत आदि दान करने की प्रथा सनातनी बन्धुओं में प्रचलित है। ‘कम्बलवन्तं न बाधते शीतम्’ की श्लिष्ट उक्ति संस्कृत में प्रसिद्ध है। घृत को भी वैद्यक में ओज और तेज को बढ़ाने वाला तथा उदर-अग्निदीपक कहा गया है। आर्य पर्वों पर दान करना अवश्यमेव ही कर्तव्य होता है। गीता में भी देश, काल और पात्र का विचार कर दान देने को सात्विक दान कहा गया है। तिल के लड्डू व अन्य मिष्ठान्न पदार्थ बनाकर तथा इस दिन पात्रों को दान करके इस पर्व को मनाया जाना चाहिये। इस पर्व को मनाने की पद्धति श्री पं. भवानी प्रसाद जी लिखित पुस्तक ‘आर्य पर्व पद्धति’ में दी गई है। इस दिन वायु-जल शोधक एवं आध्यात्मिक लाभों से युक्त अग्निहोत्र यज्ञ-परिवार के सदस्यों के साथ मिलकर किया जाना चाहिये। उस यज्ञ में पुस्तक में दिए गये मन्त्रों से विशेष आहुतियां दी जानी चाहियें। हवन सामग्री में तिलों एवं शुद्ध घृत की पर्याप्त मात्रा होनी चाहिये। यज्ञ के बाद तिल के लड्डू (तिलवे) होम यज्ञ में समागत-पुरुषों को हुतशेष के रूप में समर्पण किये जाने चाहियें। अपनी सामथ्र्यानुसार कम्बल व अन्य शीतनिवारक वस्त्र निर्धन व दीन-दुखी बन्धुओं को वितरित करने का प्रयत्न भी सबको करना चाहिये। हमने इस लेख की सामग्री को पं. भवानी प्रसाद जी की पुस्तक आर्य पर्व पद्धति से लिया है। उनको सादर नमन एवं धन्यवाद करते हैं। हम आशा करते हैं कि पाठक इस लेख की जानकारी से लाभान्वित होंगे। सब इस पर्व को अवश्य मनायेंगे जिससे यह प्राचीन परम्परा बन्द न हो, सदा चलती रहे और धर्म प्रेमी आर्य जनता को इस दिन के महत्व को जानने का अवसर मिलने सहित हम सब इस दिन यज्ञ, स्वाध्याय तथा मिष्ठान्न का सेवन कर आनन्दित हो हाते रहें। ओ३म् शम्। 
-मनमोहन कुमार आर्य
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देहरादून-248001
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