
सुरम्य पर्वत श्रृंखलाओं के मध्य स्थित तीर्थराज पुष्कर का महात्म्य वेद, पुराण, महाकाव्य, साहित्य, षिलालेख एवं लोक कथाओं में वर्णित है। अजमेर षहर से करीब १३ किलोमीटर दूरी पर स्थित पुष्कर अपनी अनेक विषिष्टताओं के कारण आज न केवल भारत में, वरन् दुनिया का महत्वपूर्ण धार्मिक पर्यटक स्थल के रूप में पहचान बनाता है। पुष्कर में कार्तिक पूर्णिमा पर लगने वाला पषु मेला विदेषी सैलानियों के आकर्षण का एक प्रमुख मेला है। इसमें विदेषी पर्यटकों के मनोरंजन के लिए अनेक प्रकार की रोचक और रोमांचक प्रतियोगिताएं आयोजित की जाती हैं। पुष्कर में ब्रिटिषकाल के दौरान अनेक मंदिरों व धर्मषालाओं का निर्माण कराया गया। पुष्कर में करीब दो सौ गेस्ट हाऊस, होटल, धर्मषाला, रेस्टोरेंट आदि हैं। पर्यटन यहां का प्रमुख व्यवसाय है। माना जाता है कि पुष्कर में वर्ष १९७५ से विदेषी पर्यटक आने लगे और जैसे-जैसे समय बीतता गया, यह एक धार्मिक स्थल के रूप में अन्तर्राष्ट्रीय पर्यटन स्थल बन गया।
पुष्कर में पहली बार १९६३ ईस्वी में पषुपालन विभाग द्वारा पषु मेला आयोजित किया गया। आज यह मेला कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर आयोजित किया जाता है, जिसमें घरेलू सैलानियों के साथ-साथ विदेषी सैलानी भी बडी संख्या में भाग लेते हैं। वर्ष २००५ ईं में ब्रह्मा जी मंदिर का केन्द्र सरकार द्वारा अधिग्रहण किया गया, २००७ में बूढा पुष्कर का जीर्णोद्धार किया गया तथा २००८ ईं में तत्कालीन मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे द्वारा नवनिर्मित घाटों का लोकार्पण किया गया। पुष्कर के निकट खुदाई में २७ जून, २००९ को भगवानपुरा और समरथपुरा गांव में ताम्रकालीन सभ्यता के अवषेष तांबे की १४ कुल्हाडयां मिली, जिन्हें विषेषज्ञों ने करीब पांच हजार वर्ष पुराना माना है।
सरकार की स्मार्ट सिटी एवं हैरिटेज संरक्षण योजनाओं में पुष्कर का भी चयन किया गया है और इन योजनाओं से पुष्कर का विकास होगा तथा यहां पर्यटन व्यवसाय में और अधिक वृद्धि होगी।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
देष के समस्त तीर्थों में पुष्कर को तीर्थराज की संज्ञा से विभूषित किया गया है। यहां जगतपिता ब्रह्मा जी का दुनिया में अकेला विख्यात मंदिर है। यह स्थल महान नैतिक एवं आध्यात्मिक जीवन मूल्यों के विषय में चिंतन करने को प्रेरित करता है। पुष्कर नागा पहाड की गोद में रेतीले धरातल पर बसा है। चारों तरफ हरी-भरी पहाडयां हैं तथा अनेक जलकुण्ड हैं। यहां रत्नगिरी, पुरूहुता तथा प्रभुता की पर्वत श्रृंखलाएं मौजूद हैं। कहा जाता है कि नागा पहाडी के नीचे कभी वर्षाकालीन सागरमती नदी प्रवाहित होती थी।
पद्म पुराण से ज्ञात होता है कि ब्रह्मा जी के हाथ से नीलकमल का पुष्प इस क्षेत्र में गिरा और पुष्प की पंखुडयां तीन स्थानों पर गिरने से वहां जलधाराएं फूट निकली। इन तीनों स्थानों को ज्येष्ठ पुष्कर, मध्य पुष्कर और कनिष्ठ पुष्कर कहा गया। इस स्थल को पवित्र करने के लिए यहां कार्तिक माह में यज्ञ किया गया और इसी कारण आज भी पुष्कर में कार्तिक स्थान का अपना महत्व है। यहां स्नान करने से मोक्ष मिलता है तथा श्राद्ध करने से पितरों को सद्गति प्राप्त होती है। पुराणों में इसे सिद्ध क्षेत्र माना गया है।
रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्यों में भी पुष्कर की महत्ता बताई गई है। पुष्कर की खुदाई में प्राप्त हुए सिक्कों से महाभारत के प्रसंग का संकेत भी मिलता है। पृथ्वीराज विजय एवं हमीर महाकाव्य में भी पुष्कर का उल्लेख है। पुष्कर संबंधी षिलालेख सांची के स्तूप, बडली, नासिक, षाकंभरी तथा हर्षनाथ मंदिर आदि में पाए गए हैं। पुष्कर में कृष्ण, कुंती, पाण्डवों एवं भृतहरि से संबंधित लोककथाएं भी प्रचलित हैं। पुष्कर का जैनियों एवं बौद्धों की नगरी होने के भी प्रमाण मिले हैं। बताया जाता है कि विष्वामित्र ने पुष्कर में ही गायत्री मंत्र की रचना की थी।
आध्यात्मिक दृष्टि से जिस प्रकार त्रेतायुग में नेमिशारण्य, द्वापरयुग में कुरूक्षेत्र और कलयुग में गंगा तीर्थ विख्यात रहे, उसी प्रकार सतयुग में पुष्कर तीर्थ का महत्व रहा। पुष्कर सरोवर की गणना मानसरोवर, बिंदु सरोवर, नारायण सरोवर, पम्पा सरोवर के साथ पांच पवित्र सरोवरों में की जाती है। यहां अगस्त्य मुनि, महर्षि विष्वामित्र, गालव ऋषि, मार्कण्डेय मुनि, ऋषि जसदग्रि ने यहां तपस्या की थी और यह क्षेत्र तपोभूमि के नाम से विख्यात हो गया। नागा पहाडी पर अगस्त्य मुनि की गुफा आज भी स्थित है, जहां रामझरोखा नामक स्थान पर राम, सीता एवं लक्ष्मण के आने की बात कही जाती है। पुष्कर के दर्षनीय स्थल इस प्रकार हैं।
पुष्कर सरोवर
अर्धचन्द्राकार पवित्र पुष्कर सरोवर प्रमुख धार्मिक पर्यटक स्थल है। यहां ५२ घाट बने हैं, जिन पर ७०० से ८०० वर्ष प्राचीन विभिन्न देवी-देवताओं के मंदिर बनाए गए हैं। देष के चार प्रमुख सरोवरों में माना जाने वाला पुष्कर सरोवर की धार्मिक आस्था का पता इसी बात से चलता है कि यहां स्नान करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। प्रातःकाल की वेला में जब सूर्योदय होता है तथा गोधूलि की वेला में जब सूर्यास्त होता है, पुष्कर का दृष्य अत्यंत ही मनोरम होता है। इस दृष्य को देखने के लिए घाटों पर सैलानियों और श्रृद्धालुओं का जमावडा देखा जा सकता है।
यहां गऊघाट सबसे बडा है, जिस पर दो षिव मंदिर, राधा-माधव मंदिर तथा अन्नपूर्णा माता के मंदिर स्थापित हैं। भिनाय के एक राजा तथा जोधपुर के ज्योतिषी द्वारा षिव मंदिरों तथा भरतपुर के राजा द्वारा राधा-माधव जी एवं अन्नपूर्णा माता मंदिरों का निर्माण कराया गया। वराह घाट पर रामेष्वर भगवान का मंदिर मुख्य मंदिर है। यहां किसानों द्वारा पंचदेवरी स्थापित की गई। इसी घाट पर गणेष जी और रघुनाथ जी के मंदिर भी स्थापित हैं। षिव घाट पर अजमेर के मराठा सूबेदार गोविन्दराव ने गोविन्द जी का मंदिर बनवाया। इन्द्र घाट पर जयपुर के श्रृद्धालु बख्षी सुंदर लाल ने देवराज इन्द्र का मंदिर बनवाया। चन्द्र घाट पर चन्द्रमा की मूर्ति स्थापित है। छतरी घाट पर कोटेष्वर महादेव का मंदिर है। इस घाट की मरम्मत वर्ष १७५५ ईस्वी में दौलतराव सिंधिया द्वारा करवाई गई थी।
बद्री घाट पर ३०० वर्ष प्राचीन बद्रीनारायण मंदिर, रघुनाथ घाट पर रघुनाथ जी का मंदिर, महादेव घाट पर १०८ षिवलिंग मंदिर, रामघाट पर नाजिर जी एवं रामेष्वर के मंदिर, मोदी घाट पर मुरली मनोहर मंदिर, बालाराव घाट पर गोपाल जी और रोडी जी का मंदिर, नृसिंह घाट पर नृसिंह जी का मंदिर तथा विश्राम घाट पर षिव मंदिर बने हैं।
सरोवर के भदावर राजा के घाट पर इन्द्रेष्वर महादेव मंदिर, परसराम घाट पर राधा-माधव मंदिर, चीर घाट पर षीतला माता, गणेष जी एवं षिव जी के मंदिर, करणी घाट पर करणी माता मंदिर, यज्ञ घाट पर षिव मंदिर, छींक घाट पर छींक माता के मंदिर स्थापित हैं।
समय-समय पर घाटों का जीर्णोद्धार और विकास कार्य किए गए तथा पिछले १० वर्षों में कई घाटों के स्वरूप में परिवर्तन आया और वे आकर्षक बन गए हैं।
विश्व प्रसिद्ध ब्रह्मा मंदिर
सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा जी का प्राचीन देवालय धरातल से करीब ५० फीट की ऊंचाई पर स्थित है। मंदिर का स्वरूप धरातल से ही नयनाभिराम लगता है। विषाल मंदिर में प्रवेष करते ही बांयी ओर ऐरावत हाथी पर देवराज इन्द्र की प्रतिमा तथा दांयी ओर कुबेर की प्रतिमा बनी है। बांयी तरफ ही सिद्धेष्वेर महादेव एवं नवग्रह के मंदिर भी हैं। इसी ओर तिबारी की एक दीवार में छोटे-छोटे षिलालेख लगे हैं। मंदिर परिसर में दांयी तरफ गणेष जी, श्री कृष्ण एवं षिव के मंदिर हैं। चारों वेद भी यहाँ रखे गए हैं।
ब्रह्मा मंदिर का विषाल प्रांगण संगमरमरी पत्थर के सौन्दर्य से बना है। यहीं पर पातालेष्वर महादेव का मंदिर भी है। दांयी तरफ सीढयां उतरकर नीचे जाने पर प्राचीन षिवलिंग, गणेष जी, माता पार्वती और पंचमुखी महादेव की प्रतिमाएं हैं। प्रवेष द्वार के भीतरी भाग पर ब्रह्मा का वाहन राजहंस है।
प्रमुख मंदिर के गर्भगृह में ब्रह्मा जी की बैठी हुई मुद्रा में आदमकद प्रतिमा स्थापित है। चतुर्मुखी इस प्रतिमा के तीन मुख सामने से दिखाई देते हैं। प्रतिमा को करीब ८०० वर्ष पुराना बताया जाता है। सैंकडों वर्षों से प्रतिमा का प्रतिदिन जलस्नान व पंचामृत अभिषेक किया जाता है। मंदिर के आंगन में ब्रिटिषकालीन एक-एक रूपये के सिक्के जडे हैं। संगमरमर के कलात्मक स्तंभ मोह लेते हैं। मंदिर परिक्रमा मार्ग में सावित्री माता का मंदिर स्थापित किया गया है।
ज्ञात होता है कि ब्रह्मा जी के मंदिर का पहली बार सातवीं सदी में जगतगुरू आदि षंकराचार्य ने जीर्णोद्धार कराया था। मुगलकाल में जहांगीर ने भी यहां मरम्मत कराई थी। वर्ष १८०९ ईस्वी में सिंधिया राज के प्रषासक गोकुल चंद पारीक ने यहां एक लाख रूपये से अधिक व्यय कर पुनर्निमाण कराया। मंदिर का वर्तमान स्वरूप इन्हीं की देन माना जाता है। मंदिर के पीछे रत्नगिरी पहाड पर सावित्री माता का मंदिर बना है। यहाँ तक पहुँचने के लिए रोप-वे बना है। ब्रह्मा का ऐसा मंदिर अन्यत्र नहीं होने से इस मंदिर का अपना विषेष महत्व है।
वराह मंदिर
प्राचीनता की दृष्टि से करीब ९०० वर्ष पुराना वराह मंदिर का निर्माण अजमेर के चौहान षासक अर्णीराज ने कराया था। पुष्कर सरोवर के वराह घाट के पास स्थित वराह चौंक से एक रास्ता बस्ती के भीतर इमली मोहल्ले तक जाता है, जहां यह विषाल मंदिर स्थापित है। करीब ३० फुट ऊंचा मंदिर, चौडी सीढयां तथा किले जैसा प्रवेष द्वार आकर्षण का केन्द्र है। मंदिर का वर्तमान स्वरूप १७२७ ईस्वी का है। बताया जाता है कि कभी मंदिर का षिखर १२५ फीट ऊंचा था, जिस पर सोन चराग (स्वर्ण दीप) जलता था, जो दिल्ली तक दिखाई देता था। इस दीपक में एक मण घी जलने की क्षमता थी। मंदिर पुष्कर के पाराषर ब्राह्मणों की आस्था का केन्द्र बिंदु है।
मंदिर में प्रवेष करते ही धर्मराज की प्रतिमा दिखाई देती है। प्रतिमा पर राई की कटोरी चढाने की परम्परा है। दांयी ओर गरूड मंदिर है। धर्मराज की प्रतिमा के बाद भगवान की बैठक है। इस बैठक में हर वर्ष षरद पूनम के दिन लक्ष्मी-विष्णु की युगल प्रतिमा विराजमान की जाती है। मुख्य मंदिर में विष्णु के अवतार वराह भगवान की मूर्ति स्थापित है। मूर्ति के नीचे सप्त धातु से निर्मित करीब सवा मन वजन की लक्ष्मी-नारायण की प्रतिमा है। यहीं पर बून्दी के राजा द्वारा भेंट किया गया लोहे का सवा मनी भाला रखा गया है। जलझूलनी ग्यारस पर लक्ष्मी-नारायण की सवारी धूमधाम से निकाली जाती है। चैत्र माह में वराह नवमी के दिन भगवान का जन्मदिन मनाया जाता है। जन्माष्टमी व अन्नकूट के अवसर पर उत्सव आयोजित किए जाते हैं। मंदिर में विषेष कर चावल का प्रसाद चढता है।
श्री रमा वैकुण्ठ मंदिर
ब्रह्मा जी के मंदिर के बाद इस मंदिर का विषेष महत्व है, जिसे रंगा जी का मंदिर भी कहा जाता है। मंदिर करीब २० बीघा भूमि पर बना है। मंदिर के साथ-साथ इस परिसर में बगीचा, संस्कृत महाविद्यालय, छात्रावास एवं आवासीय भवन भी बने हैं। बताया जाता है कि मंदिर का निर्माण डीडवाना के उद्योगपति मंगनीराम बांगड ने वर्ष १९२०-२५ में कराया था, जिस पर करीब ८ लाख रूपये व्यय हुए।
मंदिर का प्रवेष द्वार आकर्षक एवं विषाल है। भीतर जाने पर सामने ही रमा वैकुण्ठ का मंदिर नजर आता है। मंदिर के ऊतंग गोपुरम पर ३५० से अधिक देवताओं के चिन्ह बने हैं। यह गोपुरम दक्षिण भारतीय स्थापत्य कला षैली का अनुपम उदाहरण है। मंदिर के सामने प्रांगण में ही एक बडा स्वर्णिम गरूड ध्वज नजर आता है। मंदिर के पास अभिमुख गरूड मंदिर स्थापित है। मुख्य मंदिर के चारों तरफ पक्के दालान के बीच में तीन-चार फीट ऊंचे चौकोर बडे संगमरमरी चबूतरे पर मंदिर स्थित है। मुख्य प्रतिमा व्यंकटेष भगवान विष्णु की काले पत्थरों की आभूषणों एवं वस्त्रों से सुसज्जित है। इसी को वैकुण्ठ नाथ की प्रतिमा कहा जाता है। मंदिर में ही श्रीदेवी, तिरूपति नाथ, भूदेवी, लक्ष्मी व नरसिंह की मूर्तियां भी हैं।
परिक्रमा मार्ग में दोनों तरफ दीवारों पर आकर्षक रंगीन चित्र बने हैं। इनमें विविध देवी-देवताओं की झांकियां प्रदर्षित की गई हैं। दीवार पर जगह-जगह काले पत्थर की छोटी प्रतिमाएं भी बनाई गई हैं। परिक्रमा मार्ग में ही संगमरमर के कलात्मक स्तंभ बने हैं। सम्पूर्ण परिक्रमा मार्ग अत्यंत लुभावना लगता है।
मंदिर के दोनों तरफ द्वारपाल एवं ऐरावत हाथी हैं। बडे परिसर में मुख्य दरवाजे के बांयी तरफ लक्ष्मीनारायण मंदिर, उत्सव मंडप व झूला मंडप बने हैं। दांयी ओर रामानुज स्वामी का मंदिर है। मुख्य मंदिर के पीछे की तरफ यज्ञषाला एवं बगीचा बनाए गए हैं तथा इनके दांयी ओर छात्रावास है।
व्यंकटेष भगवान मंदिर में दिन में छह बार भोग लगता है। भोग की सामग्री प्र्रसाद के रूप में वितरित की जाती है। मंदिर में चार षुक्रवार, दो ग्यारस, दो पूनम-अमावस, संक्रांति और रेवती नक्षत्र पर प्रतिमाह दस उत्सव मनाए जाते हैं। बडे उत्सव साल में तीन बार ब्रह्मोत्सव, झूलोत्सव और कार्तिक मेला उत्सव आयोजित किए जाते हैं। चैत्र में ब्रह्मोत्सव दस दिन चलता है, जिसमें प्रतिदिन भगवान की सवारी निकाली जाती है। झूलोत्सव सावन के हिण्डोलों के रूप में दूर-दूर तक विख्यात है। ग्यारस और पूनम के हिण्डोले विषेष रूप से प्रसिद्ध हैं।
भगवान रंगनाथ वेणुगोपाल मंदिर
दक्षिण भारत स्थापत्य षैली पर आधारित भगवान रंगनाथ वेणुगोपाल का विषाल मंदिर वराह चौक के पास स्थित है। मंदिर का निर्माण दक्षिण भारत के एक सेठ पूरनमल गनेरीवाल द्वारा १८४४ ईस्वी में करवाया गया था। मंदिर का गोपुरम और कलष दूर से ही नजर आता है। विषाल द्वार से अंदर प्रवेष करने पर पक्का दालान और कमरे बने हैं। यहीं पर उतंग स्वर्णिम गरूड ध्वज है, जिसके पास गरूड का छोटा सा मंदिर है, जो भगवान वेणुगोपाल की तरफ मुख किए हुए है। दांयी ओर मुख्य मंदिर की सीढयां जाती हैं। गर्भगृह में बंषी बजाते हुए भगवान वेणुगोपाल की ष्याम वर्ण की लुभावनी प्रतिमा है। मंदिर मकराना के ष्वेत पत्थर से निर्मित है, जिसके दोनों ओर जय-विजय द्वारपाल हैं। इसी मंदिर में रूकमणी, श्रीकृष्ण, भूदेवी, सत्यभामा की पंचधातु की प्रतिमाएं हैं।
चैत्र माह में भगवान रंगनाथ का विवाह उत्सव मनाया जाता है। बांयी तरफ रामानुजाचार्य का मंदिर है, जिसमें अन्य १२ आचार्यों की प्रतिमाएं भी स्थापित हैं। मंदिर रामानुजी वैष्णव संप्रदाय का है। प्रतिवर्ष आद्रार् नक्षत्र में यहां उत्सव मनाया जाता है, जो दस दिन चलता है। गर्भगृह में यहां वेणुगोपाल, रंगनाथ व रामानुजाचार्य के तीन मंदिर हैं। मंदिर में प्रतिदिन चार बार भोग लगाया जाता है। मुख्य मंदिर के अलावा दालान वाले परिक्रमा मार्ग में भी लक्ष्मी जी, अनन्ताचार्य, गोदम्बा माता आदि के षिखरबंद मंदिर बनाए गए हैं। कार्तिक माह में १५ दिन तक झूलोत्सव तथा बसंत के दिनों में १२ दिनों तक ब्रह्मोत्सव आयोजित किया जाता है।
सावित्री माता मंदिर
पुष्कर में रत्नगिरी पर्वत षिखर पर ब्रह्मा मंदिर के पीछे सावित्री माता का मंदिर स्थापित है। दो किलोमीटर लम्बा मैदानी रास्ता पार करके पर्वत की सीधी चढाई मंदिर तक जाती है। अब मार्ग में कुछ स्थानों पर पक्की सीढयां भी बनाई गई हैं। जो दर्षनार्थी यहां तक पहुंचने में असमर्थ पाते हैं, उनके लिए ब्रह्मा मंदिर के पीछे की तरफ सावित्री माता का मंदिर स्थापित किया गया है।
बताया जाता है कि पहाडी पर स्थित मंदिर में पहले सावित्री माता के पगल्या (चरण) स्थापित थे तथा बाद में इनकी प्रतिमा स्थापित की गई। कुछ लोगों का कहना है कि जोधपुर के राजा अजीत सिंह (१६८७-१७२४) के पुरोहित ने यहां प्रतिमा स्थापित कर छोटा सा मंदिर बनाया। इस मंदिर का विस्तार डीडवाना के उद्योगपति बांगड ने कराया। मंदिर का वर्तमान स्वरूप इन्हीं की देन है। सावित्री माता बंगालियों के लिए सुहाग की देवी ह सावित्री माता मंदिर में प्रतिवर्ष भाद्रपद माह की अमावस के बाद वाली अष्टमी को मेला भरता है। इस मंदिर से पुष्कर का नयनाभिराम दृष्य दिखाई देता है।
बिहारी जी का मंदिर
वल्लभ संप्रदाय की पुष्टिमार्गीय षाखा का एकमात्र बिहारी जी का मंदिर है, जिसे बाईजी का मंदिर भी कहा जाता है। बताया जाता है कि जोधपुर की राजकुमारी रेख कंवर का जयपुर के महाराजा जगतसिंह के साथ विवाह हुआ, तब उन्होंने यह मंदिर अपने गुरू को दे दिया था। जोधपुर से आने वाले तीर्थ यात्री इस कारण इस मंदिर को बाईजी का मंदिर भी कहते हैं।
बिहारी जी का मंदिर टयूरिस्ट बंगले ’सरोवर’ के समीप स्थित है। मंदिर में राधा-कृष्ण की प्रतिमाएं विद्यमान हैं। कृष्ण प्रतिमा ष्याम स्वरूप में है, जिन्हें बिहारी जी कहा जाता है। पास में ही मदनमोहन और बालकृष्ण के गौरस्वरूप विग्रह हैं। पुष्टिमार्गीय भक्ति परम्परा में प्रतिमा को ही विग्रह कहते हैं।
मंदिर में मंगला आरती, सिंगार आरती, राजभोग आरती, उत्थापन, संध्या व षयन आरती पर छह बार भोग लगाने की परम्परा है। हर आरती के समय अलग-अलग प्रकार के व्यंजन युक्त भोग लगाया जाता है। भोग के समय ही भगवान के दर्षन के लिए मंदिर के पट खोले जाते हैं। जन्माष्टमी एवं सावन के अवसर पर यहां विषेष उत्सव आयोजित किए जाते हैं। यह विषाल मंदिर आज उपेक्षित स्वरूप में है। अधिकांष यात्री इस मंदिर तक नहीं पहुंच पाते हैं, क्योंकि बाहर से देखने पर यह उजाड हवेली के जैसा नजर आता है।
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