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इन्द्रियों को जीतने के लिए साधन नहीं साधना जरूरी :आचार्यश्री सुनीलसागरजी

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21 Sep 17
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इन्द्रियों को जीतने के लिए साधन नहीं साधना जरूरी :आचार्यश्री सुनीलसागरजी उदयपुर, जिसने इन्द्रियों को वश में कर लिया समझो वह आत्मज्ञानी हो गया। इन्द्रियों को वश में करो ना कि इन्द्रियों के वश में रहो। शरीर और इन्द्रियों से बड़ी होती है आत्मा। इन्द्रियां तो मृत शरीर के साथ जल कर भस्म हो जाएगी लेकिन आत्मा तो अजर अमर होती है। हमें अगर मोक्ष के मार्ग पर जाना है, मोक्ष मार्ग प्राप्त करना है तो शरीर की समस्त इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करनी होगी। इन्द्रियों पर विजय साधन से नहीं साधना से ही हो सकती है। उक्त विचार आचार्यश्री सुनीलसागरजी महाराज ने हुमड़ भवन में आयोजित प्रात:कालीन धर्मसभा में उपस्थित श्रावकों के समक्ष व्यक्त किये।
आचार्यश्री ने कहा कि शरीर की मात्र एक इन्द्री के भी वश में मनुष्य हो जाता है तब भी उसकी बर्बादी या दुर्गति तय हो जाती है जबकि शरीर में तो पांच इन्द्रियां होती है, मनुष्य अगर पाचों के वशीभूत हो गया, पांचों का गुलाम हो गया तो फिर उसका जीवन नर्क के समान होकर नर्क गति के मार्ग पर ही चला जाता है।
आचार्यश्री ने कहा, ऐसा नहीं है कि पांचों इन्द्रियां मनुष्य को दुर्गति के मार्ग पर ले जाने वाली ही होती है, नहीं ऐसा कदापि नहीं है। बिना इन्द्रियों के तो शरीर की रचना भी सम्भव नहीं है। दिक्कत यह है कि मनुष्य इन्द्रियों का सदुपयोग कम ओर दुरूपयोग ज्यादा करने लगा है। जैसे आंखें दी है तो उनसे अच्छे- अच्छे साहित्य पढ़ो, ज्ञान की बातें पढ़ो, अच्छा देखो, सही जगहों को देखो। क्यों बुरी किताबें, बुरे साहित्य पढ़ते हो। आज कल तो युवा पीढ़ी ही क्यों ही कोई महिला- पुरूष हो दिन भर मोबाईल के जरिये व्हाट्सएप में ही आंखें गढ़ाये रहते हैं। क्यों इसमें ऐसा क्या है। कई बार इनमें कितनी गन्दी- गन्दी चीजें आती है, बच्चे बिगड़ते तो है ही साथ ही उनकी आंखें भी समय से पहले खराब हो रही है। कहां सदुपयोग हो रहा है।
आचार्यश्री ने कहा कि इसी तरह से जुबान है तो इससे सात्विक भोजन का अच्छे से स्वाद लेकर भोजन करना चाहिये क्यों बाहर का भोजन करके, अटरम- सटरम खाकर, गुटखे चबाकर जुबान के साथ ही पेट को खराब करते हो। हमेशा शुद्ध भोजन क्यों नहीं करते। यह भी तो जुबान का दुरूपयोग ही है। संसार में शुद्धता अगर किसी भोजन में है तो भारतीय भोजन के अलावा किसी भी भोजन में नहीं मिल सकती है। जुबान से किसी को क्यों कड़वा बोलते हो, मीठे बोलने में तुम्हारा क्या जाता है। हाथों को ही ले लीजिये। हाथ स्वयं का काम करने के लिए है, हाथों से दान- पुण्य करिये, बेहसहारों की मदद कीजिये, क्यों हाथों से दुष्कर्म करते हो, हाथ किसी को मारने के लिए थोड़े ही है, दूसरों की सेवा करने के लिए है, इनका सदुपयोग तो यही है। इसलिए अगर आत्म ज्ञान करना है, वेद विज्ञान को समझना है तो साधनों के मार्ग पर नहीं साधन के मार्ग पर चलना होगा तभी स्वयं के साथ ही दूसरों का भी कल्याण होगा। इन्द्रियों का दुरूपयोग करोगे तो दुर्गति ही होगी और इन्द्रियों का सदुपयोग करोगे तो सद्गति ही होगी।
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