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“उपास्य-देव सर्वव्यापक ईश्वर की सन्ध्या करने से लाभ

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22 Feb 18
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परमेश्वर से विद्या प्राप्त कर धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति करने के लिए सन्ध्या का विधान किया गया है। सन्ध्या करने से न केवल ज्ञान की प्राप्ति होती है अपितु अन्य अनेक लाभ भी होते हैं।

सन्ध्या करने में जो नौ प्रकार विघ्न दूर होते हैं वह निम्न हैं:

(-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।) 1- व्याधि, 2- अकर्मण्यता-कर्म करने की योग्यता का न होना, 3- संशय, 4- प्रमाद-समाधि के साधनों के अनुष्ठान में प्रयत्न तथा चिन्ता न करना, 5- आलस्य, 6- चित्त की विषयों में तृष्णा का बना रहना, 7- विपरीत ज्ञान, 8- समाधि की प्राप्ति न होना और 9- समाधि अवस्था को प्राप्त होकर भी चित्त का स्थिर न होना। सन्ध्या करने से यह जो नौ प्रकार के विघ्न दूर होते हैं वह कोई कम लाभ नहीं हैं।

ऋषि दयानन्द ने 10 अप्रैल, सन् 1875 को आर्यसमाज की स्थापना की थी। आर्यसमाज वेद प्रचार आन्दोलन है। वेद ईश्वरीय ज्ञान है और वेद में सभी सत्य विद्यायें बीज रूप में उपस्थित हैं। सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं उनका आदि मूल परमेश्वर है। परमेश्वर से विद्या प्राप्त कर धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति करने के लिए सन्ध्या का विधान किया गया है। सन्ध्या करने से न केवल ज्ञान की प्राप्ति होती है अपितु अन्य अनेक लाभ भी होते हैं। स्वामी विज्ञानानन्द सरस्वती जी ने सन्ध्या से होने वाले लाभों की चर्चा अपनी पुस्तक ‘सन्ध्या-प्रभाकर’ में की है। उनके अनुसार सन्ध्या सबको करनी चाहिये और इससे अनेक लाभ होते हैं। वह कहते हैं कि ईश्वर आराधना तथा ओ३म् एवं वेद मन्त्रों का जप में कोई मिट-अमिट, पवित्रता-अपवित्रता सूतक-असूतक का प्रश्न नहीं। प्रत्येक व्यक्ति आर्य हो अनार्य, रोगी हो अरोगी, धनी-निर्धन, ध्यानी-ज्ञानी, स्त्री व पुरुष कोई भी हो, सब को सन्ध्या करनी चाहिये। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र, गुण कर्म व स्वभाव पर आधारित सभी वर्णों के लोगों को सन्ध्या करने का एक समान अधिकार है। सन्ध्या करने से मन के मल व विकार दूर होकर अन्तःकरण शुद्ध होता है और दुःख दूर होकर सुख की प्राप्ति होती है। सुख की कामना किसको नहीं है? कौन नहीं चाहता कि मेरे दुःख दूर हों और मुझे सुख मिले। बस, जिसको दुःख दूर कराने और सुख पाने की चाह है, वह सन्ध्या अवश्य करे।

पतंजलि ऋषि ने उपासना के लाभ बताते हुए लिखा है--

ततः प्रत्यक् चेतनाधिगमोण्य्पन्तराया भावश्य। योग0 1-29

अर्थात् ईश्वरोपासना से ईश्वर का अनुग्रह प्राप्त होता है जिससे व्याधि आदि नौ प्रकार के विघ्न नहीं होते और बुद्धि-वृत्तियों के अनुसार अनुभव करने वाले जीवात्मा को अपने शुद्ध स्वरूप का दर्शन भी हो जाता है। यही स्वरूप दर्शन ही परमात्म दर्शन में भी कारण बनता है।

सन्ध्या करने में जो नौ प्रकार विघ्न दूर होते हैं वह निम्न हैं:

1- व्याधि, 2- अकर्मण्यता-कर्म करने की योग्यता का न होना, 3- संशय, 4- प्रमाद-समाधि के साधनों के अनुष्ठान में प्रयत्न तथा चिन्ता न करना, 5- आलस्य, 6- चित्त की विषयों में तृष्णा का बना रहना, 7- विपरीत ज्ञान, 8- समाधि की प्राप्ति न होना और 9- समाधि अवस्था को प्राप्त होकर भी चित्त का स्थिर न होना। सन्ध्या करने से यह जो नौ प्रकार के विघ्न दूर होते हैं वह कोई कम लाभ नहीं हैं।

सन्ध्या करने से एक और लाभ होता है। वह है सन्ध्या करने से आयु भी बढ़ती है। महाभारत में आया है-

ऋषयो नित्य सन्ध्यत्वात्। दीर्घायुरवाप्नुवन्।। महाभारत अनु0 104

इसका अर्थ है कि नित्य प्रति सन्ध्या करने से ऋषियों ने दीर्घ आयु प्राप्त की। इस कारण से मनुष्यों को सन्ध्या अवश्य करनी चाहिये।

सन्ध्या-प्रभाकर स्वामी विज्ञानान्द सरस्वती पूर्व आश्रम का नाम महात्मा सत्यभूषण आचार्य वानप्रस्थी जी की एक महत्वपूर्ण कृति है। सन्ध्या-प्रभाकर पुस्तक स्वामी विज्ञानानन्द जी ने पहली बार सन् 1931 में लिखी व अपने धन से प्रकाशित कराई थी। उन दिनों वह अविभाजित पाकिस्तान के डेरा गाजीखान में रहा करते थे और वहां वकालत करते थे। वह वहां आर्यसमाज के प्रधान भी थे। यह पुस्तक उन्होंने उर्दू में कई सज्जनों के आग्रह पर लिखी थी। यह पुस्तक बहुत लोकप्रिय हुई थी और बहुत शीघ्र ही इसकी सभी प्रतियां समाप्त हो गई थीं। प्रसिद्ध आर्यनेता और पत्रकार महाशय कृष्ण जी ने अपने पत्र ‘प्रकाश’ में इसकी प्रशंसा की थी। आर्यसमाज के सुप्रसिद्ध विद्वान स्वामी वेदानन्द तीर्थ जी ने भी सन्ध्या-प्रभाकर के लेखक को भावी संस्करण हेतु कुछ उत्तम सुझाव दिये थे। पुस्तक समाप्त होने पर भी पुस्तक की मांग बनी रही और आर्य सज्जन स्वामी विज्ञानानन्द जी को इस पुस्तक का नया संस्करण तैयार कर प्रकाशित करने का अनुरोध करते रहे। स्वामी विज्ञानान्द जी ने दिनांक 8-6-1956 से इस पुस्तक का हिन्दी संस्करण तैयार करने के लिए रोहतक के वैदिक भक्ति साधन आश्रम में एक माह का मौन व्रत रखा और पुरानी पुस्तक का हिन्दी भाषा में परिवर्धित संस्करण तैयार किया जो सन् 1956 में प्रकाशित हो गया था। यह संस्करण भी बहुत शीघ्र समाप्त हो गया था। तब से इस पुस्तक की निरन्तर मांग बनी रही। इस पुस्तक की एक प्रति ऋषिभक्त आर्य प्रकाशक श्री रवीन्द्र मेहता जी की धर्मपत्नी श्रीमती रवीश मेहता के पास थी। स्वामी विज्ञानानन्द जी की पुत्री श्रीमती वेद प्रभा डावर ने श्री रवीन्द्र मेहता से इस पुस्तक को प्रकाशित करने का अनुरोध किया। भावुक प्रति के ऋषि भक्त श्री रवीन्द्र मेहता जी ने सन् 1998 में इसका नया संस्करण अपने प्रकाशन ‘सरस्वती साहित्य संस्था, दिल्ली’ की ओर से प्रकाशित किया। हमरा अनुमान है कि यह पुस्तक अब भी उपलब्ध है और उनसे प्राप्त की जा सकती है। 127 पृष्ठों की यह पुस्तक सभी ईश्वर उपासकों व सन्ध्या करने वालों के लिए उपयोगी है। इसमें ऋषि दयानन्द जी लिखित सन्ध्या को अष्टांग योग के आधार पर करने की पद्धति दी है और सन्ध्या के विधानों के समर्थन में वेद, योगदर्शन, उपनिषद, महाभारत, मनुस्मृति एवं गीता आदि ग्रन्थों से अनेक प्रमाण दिये हैं।

हमने इस संक्षिप्त लेख में स्वामी विज्ञानानन्द सरस्वती जी की पुस्तक सन्ध्या-प्रभाकर से सन्ध्या से होने वाले लाभों की चर्चा की है और सन्ध्या-प्रभाकर पुस्तक के प्रकाशन विषयक संक्षिप्त जानकारी भी दी है। हम आशा करते हैं कि सन्ध्या करने के लाभ जानकर पाठकों को दैनिक सन्ध्या करने की प्रेरणा मिलेगी। इससे आयु में वृद्धि होने के साथ उनके ज्ञान में भी वृद्धि होगी और ईश्वरोपासना व ब्रह्म साक्षात्कार के सभी विघ्न दूर होकर अन्य अनेक लाभ भी प्राप्त होंगे। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।


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