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“श्री कृष्ण का जीवन चरित प्रत्येक भारतीय को पढ़ना चाहिये”

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11 Oct 17
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-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।देहरादून में अगस्त-सितम्बर, 2017 महीनों में 9 दिवसीय पुस्तक मेला लगा था। इस मेले में आर्य प्रकाशकों के भी कुछ स्टाल लगे थे। एक स्टाल दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा, दिल्ली के सहयोग से बरेली के श्री राजेन्द्र कुमार आर्य जी ने लगाया थां। इनके पास वैदिक आर्य सहित्य प्रचुर मात्रा में उपलब्ध था। कुछ ऐसे प्रकाशकों का साहित्य भी जो आर्यसमाज में प्रायः उपलब्ध नहीं होता, वह भी अच्छी मात्रा में था। हमने पुस्तक के शीर्षक व लेखक के नामों को देखा और हमें जो पठनीय व उपयेगी लगी, वह पुस्तकें हमने क्रय की थीं। इनमें से एक पुस्तक उपन्यासकार श्री गुरुदत्त जी की ‘‘श्री कृष्ण” नाम से ली। यह 30 रूपये मूल्य की 80 पृष्ठीय पुस्तक है जिसका सन् 2012 में हिन्दी साहित्य सदन, नई दिल्ली ने प्रकाशन हुआ है। हमने इससे पूर्व भी डा. भवानीलाल भारतीय, पं. चमूपति जी, लाला लाजपतराय जी आदि अनेक आर्य विद्वानों के महाभारत के आधार श्री कृष्ण जी के जीवन चरित पढ़ें हैं। प्रो. सन्त राम जी का संक्षिप्त महाभारत भी पढ़ा है। अब यह महत्वपूर्ण ग्रन्थ कहीं से उपलब्ध नहीं होता। आचार्य प्रेमभिक्षु जी के समय में सत्यप्रकाशन, मथुरा ने भी दो या तीन खण्डों में इसका प्रकाशन किया था। गुरुदत्त जी का लिखा हुआ ‘श्री कृष्ण’ एक छोटा सा जीवन चरित है जो कुछ ही घंटों में हमने पढ़कर समाप्त किया। उपन्यास शैली में एक प्रवर अधिकारी विद्वान द्वारा लिखा होने के कारण हमने जब इसे आरम्भ किया तो फिर इसको बिना समाप्त किये छोड़ नहीं सके। हमें यह बहुत ही रोचक, महत्वपूर्ण और ज्ञानवर्धक लगा। श्री कृष्ण जी के जीवन विषयक प्रायः सभी तथ्यों को बहुत रोचक एवं सारगर्भित रूप में इस लघु ग्रन्थ में प्रस्तुत किया गया है। इसे पढ़कर हमें ऐसा भी लगा कि बहुत से नये तथ्यों से हम पहली बार परिचित हुए हैं। हमें तो लगता है कि आर्य प्रकाशकों को इसमें बड़ी मात्रा में क्रय कर इसका प्रचार करना चाहिये। इससे कृष्ण जी का सच्चा स्वरूप आर्य पाठकों के भी सामने आयेगा। यह भी बता दें कि यह पुस्तक श्री कृष्ण जी विषयक आर्यसमाज की मान्यताओं व विचारधारा के अनुरूप है।

पुस्तक में महाभारत के आधार पर श्री कृष्ण जी के पूर्वजों महाराज ययाति एवं पुरु का इतिहास भी इसमें दिया गया है। पुस्तक में श्री कृष्ण जन्म की कथा को पौराणिक रूप में न देकर उसका तार्किकरूप प्रस्तुत किया गया है जो आर्ष दृष्टि से युक्त होने के कारण अच्छा लगता है। कंस व जरासंध वध की कथा को भी तार्किक आधार पर प्रस्तुत किया है जिसमें काल्पनिकता व अतिश्योक्ति नहीं है। कृष्ण जी को सुदर्शन चक्र प्राप्त होने की कथा व उनके द्वारा अनेक अवसरों पर उसके उपयोग का वर्णन भी इस पुस्तक में हुआ है। एक शंका पुस्तक के अन्त में हमें बनी रही कि श्री कृष्ण जी की मृत्यु होने पर उनका वह सुदर्शन चक्र जिससे उन्होंने शिशुपाल का वध किया, अनेक बड़ी बड़ी सेनाओं को पराभूत किया, वह कहां चला गया। हो सकता है कि विगत पांच हजार पांच हजार वर्षों में हुए भौगोलिक परिवर्तन में कहीं भूमि में दब गया हो? इस सुदर्शन चक्र का आविष्कार किसने किया होगा, यह भी ज्ञात नहीं है। आविष्कारक ने एक से अधिक सुदर्शन चक्र क्यों नहीं बनाये जैसे कि आजकल एक हथियार की खोज करने के बाद उसका आवश्यकतानुसार उत्पादन किया जाता है और उसे अपने सैनिकों को तो दिया ही जाता है, मित्र राष्ट्रों को भी दिया जाता है। राजसूय यज्ञ की भी पुस्तक में बहुत रोचक एवं तार्किक प्रस्तुति की गई है जिसे पढ़कर प्रसन्नता होती है। पुस्तक में एक स्थान पर, मथुरा राज्य द्वारा हस्तिनापुर के चक्रवर्ती राज्य से सहायता मांगने के विषय में, महाभारत के आधार पर लिखा गया है कि ‘‘इसका अभिप्राय यह था कि धृतराष्ट्र ने अपने चक्रवर्ती पद का त्याग कर दिया है। उन दिनों हम पर यवन राज ने भी आक्रमण किया था। हमें एक विदेशी राज्य से अकेले ही लड़ना पड़ा था।” यहां यवन राज देखकर हमें आश्चर्य हुआ कि यह यवन राजा कौन रहा होगा जिसने मथुरा पर आक्रमण किया था और हस्तिनापुर चक्रवर्ती सम्राट धृतराष्ट्र ने मथुरा राज्य के द्वारा सहायता मांगने पर भी सहायता नहीं की थी?

इस छोटी सी पुस्तक में कंस वध, जरासंध वध, कर्ण वध, भीष्म पितामह का वध, आचार्य द्रोणाचार्य का वध, दुर्योधन का वध, जयद्रथ का वध आदि का सजीव वर्णन हुआ है। श्री कृष्ण के एक पुत्र सात्यिकी का भी उल्लेख है जिसने आचार्य द्रोणाचार्य का सिर काटा था। कृष्ण जी के इस पुत्र सात्यिकी की माता कौन थी? इसका उल्लेख पुस्तक में नहीं है। हमनें तो यही पढ़ा है कि श्री कृष्ण जी की एक पत्नी माता रूकमणी जी ही थी। युधिष्ठिर द्वारा दो बार किये गये राजसूय व अश्वमेध यज्ञ का वर्णन भी हुआ है। पाण्डवों का धृतराष्ट्र के निमंत्रण पर पाण्डवों का हस्तिनापुर जाना और वहां जुआ खेलना और राज्य व द्रौपदी को हारना, पाण्डवों का 12 वर्ष का वनवास और एक वर्ष अज्ञातवास करने सहित अज्ञातवास में विराट नगर के राजा के यहां छोटे छोटे कार्य करना और कौरवों द्वारा युद्ध करने पर उनकी रक्षा करना आदि के उद्धरण भी रोचक शैली में प्रस्तुत किये गये हैं। जिन आर्य बन्धुओं ने इस कृष्ण चरित को पढ़ा है वह अवश्य इसे पढ़कर सन्तुष्ट हुए होंगे। जिन्होंने नहीं पढ़ा है, उन्हें इसे पढ़ना चाहिये। इसी शैली पर यदि आर्य विद्वान गुरु विरजानन्द, ऋषि दयानन्द और इतर सभी आर्य महापुरूष व विद्वानों के जीवन चरित लिख दें तो उनका प्रचार न केवल आर्यसमाज अपितु आर्यसमाज से बाहर भी हो सकता है।

महाभारत युद्ध के परिणाम बताने वाला एक उद्धरण भी हम गुरुदत्त जी की पुस्तक से देना चाहते हैं। वह लिखते हैं ‘(महाभारत युद्ध प्रायः समाप्त हो जाने के बाद) प्रातःकाल जब पाण्डव और कृष्ण मन्दिर से लौटे तो शिविर को सैनिकों के साथ भस्म हो गया देख शोकाभिभूत एक-दूसरे का मुख देखते रह गए। पाण्डवों के सब पुत्र शिविर में ही जलकर मारे गये थे। अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा जो पति की मृत्यु के शोक में हस्तिनापुर में ही थी, वह बच गयी और उस समय उसके गर्भ-स्थित हो चुका था। बस, वह गर्भ-स्थित बालक ही पूर्ण कौरव-पाण्डव परिवार में से बचा था। शेष सब एक-दूसरे से लड़ते हुए तथा शिविर की अग्नि में मारे गये थे।’

महाभारत युद्ध के अन्त में एक बार अर्जुन ने श्री कृष्ण जी से युद्ध भूमि में उन्हें दिया गया उपदेश पुनः सुनाने की प्रार्थना की। ‘श्री कृष्ण’ पुस्तक में इसका उल्लेख करते हुए गुरुदत्त जी ने लिखा है ‘अर्जुन कृष्ण के सम्मुख हाथ जोड़ निवेदन करने लगा, ‘‘भगवन्! मेरी इच्छा हो रही है कि आप कृपापूर्वक एक बार फिर मुझे वह उपदेश दें जो आपने कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में युद्ध से पूर्व दिया था।” कृष्ण के माथे पर त्योरी चढ़ गई। उसने पूछा, ‘‘तो तुम भूल गए हो कि मैंने क्या कहा था?’’ ‘‘हां, भगवन्! वह ठीक प्रकार स्मरण नहीं रहा।” इस पर श्री कृष्ण बोले, ‘‘तुम अत्यन्त जड़ बुद्धि हो। इस समय वह उपदेश मैं नहीं दे सकता। जब मैंने वह प्रवचन किया था तब मैं योगयुक्त अवस्था में था। अब इस समय वह अवस्था नहीं है। तुम दुर्बुद्धि, भाग्यहीन हो जो मेरे उस समय के कथन को भूल गये हो।” इसके आधार पर आर्यसमाज के एक विद्वान पं. दीनानाथ सिद्धान्तालंकार ने लगभग ३० वर्ष पहले मासिक पत्रिका ‘समिधाभा’ में इसे दिया था और कहा था कि यदि उस समय तक महाभारत व गीता आदि कोई ग्रन्थ लिखा गया होता तो कृष्ण जी अर्जुन को उसका संकेत कर देते। इसका अर्थ है कि महाभारत व गीता आदि ग्रन्थ रचना बहुत बाद में हुई। इससे यह भी ज्ञात होता है कि कृष्ण जी ईश्वर नहीं थे। यदि ईश्वर होते तो वह अपना ही उपदेश भूलते न।

उपन्यासकार गुरुदत्त जी आर्यसमाजी व ऋषि दयानन्द के भक्त थे, ऐसा उनके साहित्य को पढ़कर ज्ञात होता है। हमने यह सुना था कि वह अंग्रेजी के अच्छे विद्वान थे परन्तु उन्होंने अंग्रेजी का प्रयोग न करने का संकल्प किया था। इसी कारण उन्होंने अंग्रेजी में अपना कोई साहित्य नहीं लिखा। उन्होंने हिन्दी की जो सेवा की है उसके कारण वह इतिहास में अमर रहेंगे, ऐसा हम अनुभव करते हैं। दो लहरों की टक्कर भी उनका दो व अधिक भागों में बहुचर्चित उपन्यास रहा है जिसकी विषयवस्तु ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज से सम्बन्ध रखती है। पता नहीं, गुरुदत्त जी ने दयानन्द चरित की भी रचना उपन्यास शैली में की है अथवा नहीं, इसकी जानकारी प्राप्त करने का प्रयत्न कर रहे हैं। अभी हम सर्च कर रहे थे तो हमें उनकी एक पुस्तक प्रारब्ध और पुरुषार्थ और कुछ अन्य का भी पता चला। यह पुस्तक भी बहुत उपयोगी होगी, ऐसा हम अनुमान करते हैं। नैट पर गुरुदत्त जी की अनेक पुस्तकों की जानकारी है। गुरुदत्त जी की और अनेक पुस्तकें हमने पुस्तक मेले से ली हैं जो हमारे पास भविष्य में अध्ययन हेतु उपलब्ध हैं।

हमें लगता है कि गुरुदत्त जी का जो साहित्य आर्यसमाज के सिद्धान्तों व विचारधारा के अनुरूप है उसका प्रचार भी आर्यसमाज व पुस्तक प्रकाशकों को विक्रय आदि करके करना चाहिये। इसी के साथ इस चर्चा को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन

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