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‘अधिक धन-सम्पत्ति कहीं हमारे लिए दुःख का कारण न बने’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

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12 Sep 17
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आजकल सभी मनु६यों का जीवन मुख्यतः धनोपार्जन को ही समर्पित रहता है। कुछ पुरु६ाार्थ, सच्चाई व अच्छे कार्यों को करके धनोपार्जन करते हैं और कुछ ऐसे भी हैं कि जिनके धनोपार्जन में पुरु६ाार्थ कम होता है, सच्चाई भी कम होती है, अनुचित व नि६ाद्ध व्यवहार किया जाता है और धनोपार्जन बहुत होता है। धन वा अर्थ वही होता है जो पुरु६ाार्थ व सत्य व्यवहार से अर्जित किया जाये जिससे अपराध व किसी का अहित बिलकुल न होता हो। आप कहेंगे कि धन तो धन है उसे चाहे कैसे भी कमाया जाये? इसका उत्तर है कि धन वही है जो धर्मपूर्वक उपार्जित हो। अधर्मपूर्वक उपार्जित धन धन नहीं अनर्थ होता जिसके परिणाम मनु६य के कालान्तर व जन्म जन्मान्तर में बुरे ही होते हैं। यदि इसका प्रमाण देखना हो तो सरकारी कानून, आईपीसी व अन्य कानूनों को देखकर तो जाना ही जा सकता है परन्तु इससे भी बढकर वेद और वैदिक साहित्य का अध्ययन करके जाना जा सकता है। यही कारण था कि सृ६ट के आरम्भ से ज्ञानी व विद्वान मनु६य धर्माचरण करते थे और अज्ञानी व मूर्ख लोग जो अपने को बहुत समझदार व चालाक समझते हैं, छल प्रपंच व अनुचित तौर तरीकों से धनोपार्जन करते हैं। आजकल अनेक प्रसिद्ध व ७ाी६ार् राजनेता अनुचित तरीके से कमाये धन के कारण अनेक जांचों का सामना कर रहे हैं और कई तो दो६ाी भी सिद्ध हो चुके हैं। अन्य भी सिद्ध होंगे और सम्भावना है कि जेल भी जायेंगे। इसका कारण यही है कि अनुचित तरीकों से धन कमाना अपराध व निन्द्य कर्म है और इसके लिए दे८ा व समाज सहित ई८वरीय न्याय व्यवस्था में भी दण्ड का प्रावधान है।

सनातन वैदिक धर्म ई८वरीय दण्ड विधान वा कर्म-फल व्यवस्था पर खडा है। ई८वर धर्म पालन करने वाले को आनन्द व प्रसन्नता सहित अपनी ओर से धन व सम्पत्ति देते हैं और अन्य अधर्म करने वालों को नाना प्रकार से दुःख रूपी दण्ड के साथ अपमानित जीवन व्यतीत करने की स्थिति प्राप्त होती होती है। ई८वर की दण्ड व्यवस्था ऐसी है कि इसमें कि्रयमाण क्रमों का लाभ व हानि तो साथ साथ व कुछ समयान्तर पर ज्ञात हो जाती है परन्तु कुछ ऐसे संचित कोटि के कर्म भी होते हैं जिनका फल इस जन्म में न मिलकर मृत्यु के बाद मिलता है। हमारे इस जन्म का कारण ही हमारे पूर्व जन्म वा जन्मों के अभुक्त कर्मों के फल भोग के लिए हुआ है। इस जीवन में हम जिन कर्मों के फल भोग लेंगे वह कर्मों के खाते से कम हो जायेंगे और ७ो६ा को भोगना जारी रहेगा जो इस जन्म के बाद भी चलेगा। यह भी जान लें कि प्रत्येक मनु६य के कर्मों के दो खाते अलग अलग होते हैं जिन्हें अच्छे कर्मों का खाता और बुरे कर्मों का खाता कह सकते हैं। इन अच्छे व बुरे कर्मों का समायोजन नहीं होता और दोनों प्रकार के कर्मों के अलग अलग फल सभी बडे छोटे व गरीब-अमीर सभी को समान रूप से भोगने ही पडते हैं। ई८वर की सृ६ट का यह भी नियम है कि मनु६य का कोई भी अच्छा व बुरा कर्म बिना भोगे समाप्त नहीं होता।

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