GMCH STORIES

‘सुखी जीवन के उपाय स्वाध्याय, साधना और सदाचार’

( Read 9943 Times)

13 Aug 17
Share |
Print This Page
ओ३म्
संसार में जितने भी प्राणी है वह सब सुख की कामना करते हैं, दुःख की कामना कोई भी नहीं करता। ईश्वर भी किसी को अपनी ओर से दुःख देना नहीं चाहता। उसने यह सारी सृष्टि मनुष्य आदि सभी प्राणियों के सुख के लिए बनाई है। फिर भी सभी प्राणी सुख व दुःख दोनों से ग्रस्त दिखाई देते हैं। प्रश्न है कि क्या मनुष्य दुःखों से बच सकता है? इसका उत्तर है कि पूर्णतया तो नहीं परन्तु काफी सीमा तक मनुष्य दुःखों से बच सकता है। दुःखों से बचने के लिए उसे दुःख निवृत्ति व सुखों के विस्तार करने वाले उपायों व कार्यों को करना होगा। यह प्रमुख कार्य हैं सदग्रन्थों का स्वाध्याय, साधना वा पुरुषार्थ एवं सदाचार वा श्रेष्ठ आचरण। इन साधनों को प्रयोग में लाकर मनुष्य अपने जीवन के बहुत से दुःखों को दूर कर सकता है। जिस मनुष्य के जीवन से इस प्रकार से दुःख दूर होते व कम होते हैं, उसके जीवन में निश्चय ही सुखों की वृद्धि होती है। इसके अनेक उदाहरण देखे जाते हैं। मान लीजिए की एक व्यक्ति नशा करने के लिए शराब पीता है। इसमें उसके धन का अपव्यय होता, सामाजिक प्रतिष्ठा खराब होती है, भले लोग उससे दूरी बनाते हैं, परिवार के लोग भी उसके इस कार्य को पसन्द नहीं करते, वह व्यक्ति स्वयं भी धनाभाव होने, शराब व नशे से शारीरिक रोग व बलहीन होने के कारण दुःखी रहता है। ऐसी स्थिति में जो मनुष्य शराब का सेवन नहीं करते वा करने वाले सेवन करना छोड़ दते हैं, तो उनके जीवन में शराब के सेवन से होने वाले दुःख नहीं होते और अच्छे स्वास्थ्य, धन की सुलभता व सामाजिक प्रतिष्ठता आदि से उनका जीवन सुख व खुशियों से युक्त होता है। अतः मनुष्य को जीवन में रोग व आलस्यकारी भोजन व अनावश्यक खर्चीली चीजों को स्थान नहीं देना चाहिये। ऐसा करके ही अनेक सुख प्राप्त किये जा सकते हैं और अनेकानेक दुःखों से बचा जा सकता है।

जीवन को सुखी बनाने का पहला उपाय वेद व ऋषि कृत ग्रन्थों का स्वाध्याय वा अध्ययन है। वेद और वैदिक साहित्य के अध्ययन से आत्मा पर अच्छे संस्कार पड़ते हैं जिनका प्रभाव ज्ञानवृद्धि होता है। यह ज्ञान वृद्धि आध्यात्मिक व सांसारिक सभी प्रकार की होती है। ज्ञान ही सुख का कारण होता है और अज्ञान दुःख का। एक संस्कृति लोकोक्ति बहुत प्रचलित है ‘सर्वेषां दानानां श्रुति ज्ञानं विधियते।’ सभी प्रकार के दानों में वेद के ज्ञान का दान करना सबसे बड़ा दान होता है। इसी प्रकार से सभी प्रकार की पुस्तकों के ज्ञान की तुलना में वेद और वैदिक साहित्य का ज्ञान श्रेष्ठ व सर्वोत्तम है। ज्ञान से होता यह है कि मनुष्य असत्य का त्याग करने में समर्थ होता है। असत्य का त्याग ही दुःख निवारण का प्रमुख आधार है। संसार में सबसे अधिक सुखी व आनन्दित कोई होता है तो वह वेदज्ञानी संन्यासी व विद्वान ही होता है। ज्ञान की पराकाष्ठा ही वैराग्य को उत्पन्न करती है। वैराग्य का अर्थ होता है संसार व इसकी वस्तुओं के प्रति राग व धन-वैभव की लालसा व वासना की समाप्ति। अपने व पराये का भेद भी वैराग्यावस्था को प्राप्त व्यक्ति में नहीं होता। जब संसार और इसकी वस्तुओं में राग व प्रेम, इनकी प्राप्ति व उपभोग व धन के परिग्रह में अनिच्छा की भावना उत्पन्न हो जायेगी तो इनसे होने वाला दुःख स्वतः समाप्त हो जायेगा। आजकल दुःख का एक कारण अत्यन्त निर्धनता व दूसरा आवश्यकता से अधिक धन का होना है। यह धन लोभी मनुष्यों के पास अधिक होता है। लोभ ही समस्त पापों का कारण भी होता है। यदि धनी व्यक्ति वेद ज्ञान के प्रचार प्रसार में अपने अतिरिक्त धन का दान नहीं करता तो इसका अर्थ होता है कि वह वेद की शिक्षा ‘कस्य स्वित धनम्’ के प्रतिकूल आचरण कर रहा है। वेद धन को ईश्वर का बताता है और वेदों में ‘तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृधस्य’ की शिक्षा वा आज्ञा ईश्वर द्वारा दी गई है। धन लिप्सु व्यक्ति में धन की पूर्ति न होने के कारण दूसरों के प्रति द्वेष उत्पन्न होता है। राग व द्वेष, यह दोनों ही मनुष्य के जीवन को दुःखमय बनाते हैं। अतः राग व द्वेष से उत्पन्न होने वाले दुःखों को दूर करने का उपाय वेद एवं वैदिक साहित्य का अनुशीलन व अध्ययन है व उसके अनुसार अपने कर्तव्यों का निर्वहन है। वेदों के साथ दर्शन, उपनिषद, मनुस्मृति, सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि ग्रन्थों का अध्ययन भी धर्म व कर्तव्य के ज्ञान में सहायक है जिससे मनुष्य अनेक दुःखों से बचता है।

दुःखों से बचने का अन्य उपाय वेदाध्ययन से उत्पन्न ज्ञान के अनुसार साधना व पुरुषार्थ करना है। यह भी जान लें कि वेदाध्ययन में समस्त वेदानुकूल साहित्य उपनिषद, दर्शन, प्रक्षेपरहित मनुस्मृति, सत्यार्थप्रकाश व ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि का अध्ययन सम्मिलित है। साधना में ईश्वर व आत्मा का ज्ञान प्राप्त कर योग विधि से ईश्वरोपासना से ईश्वर प्राप्ति व ईश्वर साक्षात्कार का अभ्यास करना होता है। ईश्वर साक्षात्कार से अभिप्राय ईश्वर का प्रत्यक्ष करना है। यह ध्यान देने योग्य बात है कि प्रत्यक्ष गुणों का होता है गुणी का नहीं। सृष्टि की उत्पत्ति, पालन व प्रलय सहित संसार में सर्वत्र ईश्वर की व्यापकता, सर्वशक्तिमत्ता, न्याय, कर्मानुसार मनुष्यादि अनेक योनियों में जीवात्माओं का जन्म-मरण-पुनर्जन्म, सृष्टि के आदि में वेदों का ज्ञान मिलना आदि सभी को दृष्टिगोचर हो रहा है। यह कार्य परमात्मा द्वारा किये जा रहे हैं। अतः परमात्मा का प्रत्यक्ष इनसे हो रहा है। सभी मनुष्य व प्राणियों के शरीरों में ज्ञान व कर्म की चेष्टा करने वाला चेतन जीवात्मा भी अपने गुणों से प्रत्यक्ष होता है। सुख की प्राप्ति के इच्छुक मनुष्य को ज्ञान प्राप्त कर ईश्वर प्राप्ति सहित अपने व्यवसाय को सफल करने व उचित तरीकों से धनोपार्जन की साधना व पुरुषार्थ भी करना चाहिये। प्राचीन समय में हमारे ब्राह्मण वा शिक्षक अध्ययन अध्यापन, कृषक खेती, वाणिज्यकर्मी व्यापार, गोपालक, क्षत्रिय व राजपुरुष, वैद्य व चिकित्सक, इंजीनियर आदि अपने अपने क्षेत्रों में ज्ञानार्जन व पुरुषार्थ से अपनी आवश्यकतानुसार धनोपार्जन करते ही थे। आज भी यदि पुरुषार्थ करते हुए धर्म से धनोपार्जन किया जाये, तो किसी को उसकी मनाही नहीं है अपितु वह प्रशंसनीय ही है। ध्यान यह रखना है कि धनोपार्जन में मिथ्या व भ्रष्ट आचारण का सहारा न लिया जाये जैसा कि आजकल अनेक सेवाओं में प्रतीत होता है। 2जी स्पेक्ट्रटम, बोफोर्स, कोयला, चारा, बनामी सम्पत्ति आदि इसके उदाहरण हैं। ऐसा करके भी मनुष्य को कुल समय तक सुख मिलता है। ईश्वरोपासना से सात्विक व निश्चिन्त सुख प्राप्त होने का कारण यह भी है कि ईश्वर आनन्दस्वरूप है और जीवात्मा सुख से रहित है। ईश्वर से योगाभ्यास व ध्यान की रीति से जुड़कर सर्वव्यापी ईश्वर का आनन्द जीवात्मा को प्राप्त होता है जिससे वह भी सुखी व आनन्दित होता है। जिस प्रकार गर्म जल से नहाने पर उष्णता, शीतल जल से नहाने से शरीर को शीतलता प्राप्त होती है उसी प्रकार जीवात्मा जब ईश्वर में योगाभ्यास व ध्यान द्वारा एकाकार नहीं एकाकार सा होता है, तो उसमें ईश्वर के प्रमुख गुण आनन्द का प्रवाह भी स्वभाविक रूप से होता है। जिस प्रकार यज्ञ की समिधा अग्नि में डालने पर वह अग्निस्वरूप हो जाती है, वह समिधा नहीं अपितु अग्नि हो जाती है, वैसे ही जीवात्मा भी ईश्वरोपासना से ईश्वर के गुणों से युक्त हो जाता है। इसके अतिरिक्त आजीविका के क्षेत्र में पुरुषार्थ से अर्जित धन से भी मनुष्य अनेकानेक सुखों को प्राप्त कर सकता है व उसे करने भी चाहिये।

सुख प्राप्ति का तीसरा उपाय सदाचार व सत्याचार है। सदाचारी व्यक्ति का यश व कीर्ति उसके जीवनकाल सहित मरने के बाद भी सर्वत्र सुनने को मिलती है। आज हमें मर्यादापुरुषोत्तम राम, योगेश्वर कृष्ण, वेदोद्धारक महर्षि दयानन्द, आचार्य चाणक्य, वीर शिवाजी, महाराणा प्रताप, गुरु गोविन्द सिंह जी, सरदार पटेल, लालबहादुर शास्त्री जी के यश की गाथायें सर्वत्र सुनने को मिलती है। यह सभी अजात शत्रु थे। ऐसे भी लोग हुए हैं जिनकी गलत मान्यताओं व नीतियों से देश की अपूरणीय क्षति हुई है। लोग इनकी आलोचना करते हैं और इनका उल्लेख होने पर भड़क भी उठते हैं। प्रधानमंत्री मोदी जी और मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी जी की महिमा उनके अच्छे कार्यों के कारण ही है। जो भी व्यक्ति ज्ञान की प्राप्ति कर, पक्षपात व अन्याय से ऊपर उठकर, देशहित के लिए प्राणपण से कार्य करेगा, देशवासी उसी को पसन्द करेंगे और वही व्यक्ति यश व कीर्ति प्राप्त कर सकता है। ईश्वर भी आर्यत्व के गुण रखने वालों को ही आगे बढ़ता है। उसकी शिक्षा है कि श्रेष्ठ आर्य बनों व दूसरों को भी आर्य बनाओं। बुरे काम करने का परिणाम भी बुरा होता है। इस जन्म में बच गये तो अगले जन्म में तो कृत कुकर्मों के फल भोगने ही पड़ेंगे। इसे ध्यान में रखकर अनाचार को छोड़कर सदाचार व सत्याचरण को अपनाना चाहिये। इससे जीवन काफी सीमा तक सुखी होगा, ऐसा हम अनुभव करते हैं।

मनुष्य का शरीर पंच भौतिक तत्वों से बना है। अनेक कारणों से समय समय पर इसमें कुछ विकार हो जाना स्वाभाविक है जिससे शरीर रोगी हो सकता है और शरीरधारी जीवात्मा को दुःख हो सकते हैं। कहा भी जाता है रोग शरीर का परिस्थितिजन्य धर्म है। शरीर के कष्टों से सर्वथा मुक्ति सम्भव नहीं है। राम, कृष्ण व दयानन्द जी के जीवन में भी अनेक विपरीत परिस्थितियां, चुनौतियां व कष्ट के क्षण आयें जिसे उन्होंने अपने विवेक व कर्तव्य का पालन कर दूर किया। इसके अतिरिक्त सामान्यजनों को जो कष्ट व दुःख आते हैं, वह विद्वानों को कम व अपवाद स्वरूप ही आते हैं, ऐसा कहा जा सकता है। अतः मनुष्यों को स्वाध्याय, साधना और सत्याचार को दुःख निवृत्ति हेतु अपना सिद्धान्त व नियम बना लेना चाहिये। ऐसा करने के लिए किसी धर्म व मत विशेष के ग्रहण व त्याग का आग्रह नहीं है। ऐसा होने पर आशा है कि मनुष्य को दुःख बहुत कम मात्रा में होंगे। इसी के साथ लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
पताः 196 चुक्खूवाला-2
देहरादून-248001
फोनः09412985121

Source :
This Article/News is also avaliable in following categories : Chintan
Your Comments ! Share Your Openion

You May Like