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आचार्य धर्मदेव विद्यामार्तण्ड की अप्राप्य कृति ‘साम संगीत सुधा’

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08 Aug 17
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ओ३म्
आचार्य धर्मदेव विद्यामार्तण्ड जी आर्यसमाज के सुप्रसिद्ध विद्वान हुए हैं। आचार्य जी ने गुरुकुल कांगड़ी में शिक्षा प्राप्त की और स्वामी श्रद्धानन्द जी की प्रेरणा से दक्षिण भारत को अपनी कर्मभूमि बनाया। उनके जीवन पर हम कुछ समय पूर्व एक लेख दे चुके हैं। आचार्य जी हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी आदि भाषाओं के विद्वान होने के साथ हिन्दी व अंग्रेजी भाषाओं के अच्छे कवि भी थे। आपने सामवेद का अंग्रेजी में भाष्य भी किया है। हमारी जानकारी में यह भाष्य भी सम्प्रति अनुपलब्ध है। यह स्थिति आर्यसमाज जैसी संस्था के लिए दुःखद है कि हमारे उच्च कोटि के विद्वानों का साहित्य एक बार समाप्त हो जाने के बाद पाठकों के लिए उपलब्ध नहीं हो पाता। आचार्य जी के ग्रन्थों के विषय में लेख के अन्त में जानकारी देंगे। आइये! अभी ‘साम संगीत सुधा’ लघु ग्रन्थ की चर्चा करते हैं। सामवेद में कुल 1875 मन्त्र हैं। आचार्य धर्मदेव विद्यामार्तण्ड जी ने सामवेद के 122 मन्त्रों को चुन कर उन पर कहीं दो तो कहीं चार और कहीं अधिक पंक्तियों की बहुत ही प्रभावशाली कवितायें रची है। भाषा सरल व सुबोध है। इन कविताओं का आनन्द इन्हें पढ़कर ही लिया जा सकता है। हम उनके द्वारा रचित सामवेद के मन्त्रों पर आधारित कुछ कवितायें भी पुस्तक से प्रस्तुत करेंगे। इस पुस्तक के बारे में यह बता दें कि ‘साम संगीत सुधा’ का प्रकाशन दिसम्बर, 1966 में हुआ था। मूल्य 50 पैसे था। पुस्तक के अन्त में लेखक महोदय ने आवश्यक शब्द कोष भी दिया है। पुस्तक का समस्त पद्यानुवाद आचार्य धर्मदेव विद्यामार्तण्ड जी ने ही किया है। यह भी बता दें कि आचार्य जी पहले देव मुनि वानप्रस्थ के नाम से जाने जाते थे। आपने वेदों पर अनुसंधान का कार्य किया। सार्वदेशिक धर्मार्य सभा के आप प्रधान और ‘यज्ञ योग ज्योति’ के सम्पादक भी रहे। दिसम्बर, सन् 1966 में आप आनन्द कुटी, ज्वालापुर में निवास करते थे। यह भी बता दें कि यह पुस्तक आचार्य जी ने स्वयं ही प्रकाशित की और इसके लिए आपको आर्य दानवीर चौधरी प्रताप सिंह जी, करनाल के न्यास से आर्थिक सहयोग प्राप्त हुआ था। चौधरी प्रताप सिंह जी प्रसिद्ध ऋषि भक्त थे। आपने पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी को भी रामलाल कपूर ट्रस्ट, बहालगढ़ वा रेवली से प्रकाशित अन्य उच्च कोटि के अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थों के प्रकाशन के लिए आर्थिक सहयोग दिया था जिनकी चर्चा पंडित मीमांसक जी ने उन उन ग्रन्थों में की है। पं. विश्वनाथ विद्यालंकार जी के अर्थववेद भाष्य का अधिकांश भाग आपके आर्थिक सहयोग से ही प्रकाशित हुआ है। अब इसके परोपकारिणी सभा सहित गुरुकुल कांगडी विश्वविद्यालय से भी संस्करण प्रकाशित हुए हैं।

पुस्तक के लेखक आचार्य धर्मदेव जी ने इस पुस्तक की भूमिका में पुस्तक के लेखन का विचार कैसे आया, इस पर भी प्रकाश डाला है। सामवेद का क्या अर्थ है, इस पर भी व्याकरण के आधार पर विचार प्रस्तुत किये हैं। वह लिखते हैं कि ‘इस पुस्तिका में सामवेद के 122 मन्त्रों का हिन्दी पद्यानुवाद प्रस्तुत किया है। जब मेरी Some Psalms of the Sam Veda Samhita नाम पुस्तक (जिसमें 122 मन्त्रों का अंग्रेजी पद्यानुवाद प्रकाशित हुआ) अजन्ता प्रेस ज्वालापुर में छप रही थी तो उसके कुछ कर्मचारियों और व्यवस्थापक महोदय ने भी यह इच्छा प्रकट की कि अंग्रेजी से अनभिज्ञ नर-नारियों के लाभ के लिये (जिन की संख्या हमारे देश में बहुत अधिक है) यदि साम वेद के मन्त्रों का ऐसा ही संग्रह हिन्दी कवितानुवाद सहित प्रकिशत हो जाये तो उसके स्वाध्याय से सर्वसाधारण को बड़ा भारी लाभ हो सकता है। पद्यानुवाद जहां भक्ति भावना को बढ़ाने की दृष्टि से अधिक उपयुक्त हो सकता है, वहां उसको स्मरण करना भी सुगम होता है। अतः आप ऐसा एक संग्रह हिन्दी कवितानुवाद सहित अवश्य तैयार करके छपवाने की कृपा करें। अपने मित्रों और प्रेमियों की यह अभिलाषा मुझे (आचार्य धर्मदेव विद्यामार्तण्ड जी को) उचित प्रतीत हुई, अतः उसकी पूर्ति के लिये यह लगभग 120 मन्त्रों का कवितानुवाद कुछ ही दिनों में तैयार कर लिया गया और वह भारतीय स्वाध्यायशील भक्त प्रेमियों के लाभार्थ करनाल के वैदिक धर्म और संस्कृति के अत्यन्त उत्साही प्रेमी श्री चौ० प्रताप सिंह जी रईस की उदार आर्थिक सहायकता से जनता के सम्मुख प्रस्तुत है।

भूमिका में इस बात का निर्देश भी आवश्यक है जिस प्रकार ऋग् वेद का प्रधान विषय ज्ञान, यजुर्वेद का कर्म, अथर्व वेद का विज्ञान है, वैसे सामवेद का प्रधान विषय भक्ति वा उपासना है, साम शब्द साम-सान्त्वने इस धातु से बनता है जिसका अर्थ सान्त्वना व शान्ति देना है। वेद शब्द विद् धातु से सिद्ध होता है जिस का अर्थ ज्ञान है। अतः सामवेद सान्त्वना वा शान्ति के उपायों को बताने वाला वेद है। क्योंकि प्रत्येक मनुष्य शान्ति का अभिलाषी है और शान्ति परमेश्वर की भक्ति अथवा उपासना के बिना कभी प्राप्त नहीं हो सकती, अतः सामवेद में प्रधानतया भक्ति के सच्चे स्वरूप का प्रतिपादन है। उणादि कोष 1.14 में साम शब्द को षो-अन्तकर्मणि इस धातु से मनिन् प्रत्यय करके सिद्ध किया गया है। अन्तकर्मणि का अर्थ कई विद्वान् ज्ञान, कर्म, भक्ति इनमें से अन्तिम यह करते हैं किन्तु वैदिक धर्मोद्धारक शिरोमणि स्वनाम धन्य महर्षि दयानन्द जी ने उसका अर्थ स्यन्ति-खण्डयन्तिदुःखानि येन तत् (अत्र सर्वधातुभ्यो मनिन् षो-अन्तकर्मणिइतिधातोः) ऋग्वेद 1-62-2 भाष्य इत्यादि रूप में किया है जो अत्यधिक महत्वपूर्ण है और जिससे सामवेद का महत्व और भी स्पष्टता से ज्ञात हो सकता है जिस के आधार पर भगवद्गीता 10.22 में वेदानां ‘सामवेदोऽस्मि’ यह वचन पाया जाता है। महर्षि दयानन्द की उपर्युक्त व्युत्पत्ति के अनुसार साम का अर्थ दुःख विनाशक है। पुस्तक में इसके बाद सोम के अनेक आध्यात्मिक अर्थों पर भी प्रकाश डाला गया है।

भूमिका के बाद आचार्य धर्मदेव जी के सम्पूर्ण सामवेद के अंग्रजी अनुवाद का विज्ञापन है। इसमें बताया गया है कि यह भाष्य महत्वपूर्ण भूमिका तथा आवश्यक टिप्पणियों सहित है। इस विज्ञापन में व्यवस्थापक, सत्साहित्य प्रकाशन, आनन्द कुटीर, ज्वालापुर, उत्तर प्रदेश की ओर से कहा गया है कि देश विदेश के सब अंग्रेजी शिक्षित विद्वानों को यह जानकर प्रसन्नता होगी कि पं० धर्मदेव जी विद्यामार्तण्ड भूतर्पूव प्रधान सार्वदेशिक धर्मार्य सभा दिल्ली ने सम्पूर्ण सामवेद का अंग्रेजी भाषा में अनुवाद (अनेक मन्त्रों का कवितात्मक) प्रमाणार्थ आवश्यक संस्कृत तथा अंग्रेजी टिप्पणियों सहित कर लिया है। इसके बाद पुस्तक के अग्रिम व प्रकाशन के बाद के मूल्य सूचित किये गये हैं।

पुस्तक के नाम के अनुसार इसके बाद सामवेद के चुने हुए मन्त्रों को प्रस्तुत कर मन्त्र का पता, ऋषि, देवता व छन्द दिये गये हैं। इनके बाद मन्त्र का पद्यानुवाद दिया गया है। हम कुछ मन्त्रों के पद्यानुवाद प्रस्तुत कर रहे हैं:

1 ओ३म् अग्न आयाहि वीतये गृणानो हव्यदातये। नि होता सत्सि बर्हिषि।। साम. 1.660

भरद्वाजो बार्हस्पत्यऋषिः। अग्निर्देवता। गायत्री छन्दः।

आवो देव हमारे हृदय में, ज्ञान ज्योति जगाने को
पाप ताप जो त्रिविध हमारे उनको दूर भगाने को।
हम जो तेरी स्तुति करते हैं, भक्ति-शक्ति का दे दो दान,
दो उपदेश शुभान्तर्यामिन्, जिससे हो सबका कल्याण।।

2 ओ३म् त्वमग्ने यज्ञानां होता विश्वेषां हितः। देवेभिर्मानुषे जने।। सामवेद 2.1474

भरद्वाजो बार्हस्पत्यऋषिः। अग्निर्देवता। गायत्री छन्दः।

तू है देव पुरोहित सबका, सर्व जगत् हितकारी है
सब यज्ञों का तू है होता, स्वार्थ-रहित उपकारी है।
सत्य-निष्ठ जो ज्ञानी जन हैं, सबमें तुझको लखते हैं
सब मनुजों में प्राणिमात्र में, प्रेमभाव वे रखते हैं।।

8 ओ३म् उप त्वाग्ने दिवे दिवे दोषावस्तर्धिया वयम्। नमो भरन्त एमसि।। सामवेद 14

आयुंख्वाहि ऋषिः। अग्निर्देवता। गायत्री छन्दः।

हे सर्वोत्तम नेता तेरी, ओर रातदिन आते हैं
शुद्ध-बुद्धि अरु शुद्ध कर्म की, भेंट हाथ में लाते हैं।
ज्ञान हमें हो प्राप्त तथा आनन्द यही अभिलाषा है
तुम से ही पूरी हो सकती, नहीं अन्य से आशा है।।

10 ओ३म् उदु त्यं जातवेदसं देवं वहन्ति केतवः। दृशे विश्वाय सूर्यम्।। सामवेद 31

प्रस्कण्व ऋषिः। अग्निर्देवता। गायत्री छन्दः।

सूर्य चन्द्र गिरि सागर तरु सब, उसकी याद दिलाते हैं
जो सर्वज्ञ सभी में व्यापक, उस तक बुध ले जाते हैं।
ये सब झण्डे बन कर हरि को, ही दिन रात दिखाते हैं
जो ज्योतिर्मय तम का नाशक, उसका स्मरण कराते हैं।

103 ओ३म् शं नो देवीरभिष्टये शं नो भवन्तु पीतये। शं योरभि स्रवन्तु नः।। सामवेद 33

व्याप्त है सर्वत्र जो वह, दिव्य माता शान्ति दे
कामनाएं पूर्ण करती, शुद्ध जो वह कान्ति दे।
इष्ट सुख की प्राप्ति के हित, शान्ति दायक हो हमें
भक्ति रस के पान के हित, वह सहायक हो हमें।
शान्ति सुख की वृष्टि होवे, सब जगह कल्याण हो
रोग पातक दूर होवें, दिव्य जननी ध्यान हो।।

पुस्तक में कहा गया है कि इसमें 122 मन्त्रों का पद्यानुवाद है परन्तु पुस्तक में 103 ही मन्त्रों का पद्यानुवाद है। इसके बाद पुस्तक में मन्त्रों में आये ‘शत (100) कल्प दुर्बोध वैदिक शब्द कोषः’ को एक तालिका में प्रस्तुत किया गया है। इस तालिका में पुस्तक की पृष्ठ संख्या, वैदिक शब्दोल्लेख, शब्द का अर्थ तथा अन्तिम कालम में निघण्टु निरुक्त धातुपाठादि निर्देश किया गया है।

पुस्तक के अन्दर के कवर पृष्ठ पर ‘पं. धर्मदेव जी विद्यामार्तण्ड रचित कुछ अन्य पुस्तकें’ के अन्तर्गत एक सूची दी गई है जिसमें उनके ग्रन्थों का उल्लेख है। जिन पुस्तकों के नाम दिये गये हैं वह हैं 1- वेदों का यथार्थ स्वरूप, 2-वैदिक कर्तव्य शास्त्र, 3-भारतीय समाज शास्त्र, 4-वैदिक धर्म आर्य समाज प्रश्नोत्तरी अष्टम् संस्करण, 5-अमर धर्मवीर स्वामी श्रद्धानन्द जी, 6-आर्यधर्म निबन्ध माला, 7-बौद्धमत और वैदिक धर्म (यह ग्रन्थ सम्प्रति श्रीघूड़मल प्रह्लादकुमार आर्य धर्मार्थ न्यास, हिण्डोसिटी से भव्य रूप में प्रकाशित होकर उपलब्ध है।), 8-स्त्रियों का वेदाध्ययन और वैदिक कर्मकाण्ड में अधिकार, 9-हमारी राष्ट्र भाषा और लिपि तृतीय संस्करण, 10- Maharishi Dayananda and Satyarth Parkash 2nd Edition.

हमने ‘साम संगीत सुधा’, इस दुलर्भ पुस्तक का परिचय पाठकों के लिए प्रस्तुत किया है। हमारी विनती है कि किसी एक आर्य प्रकाशक को इसका प्रकाशन कर देना चाहिये। हमें यह भी लगता है कि ‘हमारी राष्ट्र भाषा और लिपि’ का भी प्रकाशन होना चाहिये। इसी के साथ हम इस परिचय को समाप्त करते हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
पताः 196 चुक्खूवाला-2
देहरादून-248001
फोनः09412985121

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