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“आज का मनुष्य मनुष्योचित गुणों से हीन उसकी आकृति मात्र है”

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15 Jul 17
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“आज का मनुष्य मनुष्योचित गुणों से हीन उसकी आकृति मात्र है” ओ३म्
संसार के अनेक प्राणियों में मनुष्य नाम व आकृति वाला भी एक प्राणी है। संसार के प्राणी दो व चार पैर वाले हैं जिनमें मनुष्य ही सम्भवतः दो हाथ व दो पैरों वाला प्रमुख व विशेष प्राणी है। मनुष्य की विशेषता इसकी विशेष आकृति व आकृति के अतिरिक्त इसमें विशेष बुद्धि तत्व का होना है जिससे यह मनन कर सत्य व असत्य का विवेक कर सकता है। अन्य प्राणियों में केवल स्वभाविक ज्ञान होता है जिससे वह अपना काम चलाते हैं परन्तु मनुष्यों की तरह से वह प्राणी अपने भीतर एक सीमा से अधिक गुणों का विकास नहीं कर सकते। उन्हें यह नहीं पता होता कि सत्य क्या है और असत्य क्या है? वह नहीं जानते कि आत्मा से युक्त प्राणी को सत्याचरण ही करना चाहिये, असत्याचरण नहीं करना चाहिये। मनुष्य सबसे भिन्न है जो माता-पिता व आचार्य की कृपा तथा संगति से उनसे ज्ञान प्राप्त कर सत्यासत्य का निर्णय करने में समर्थ हो जाता है। मनुष्य का आत्मा एकदेशी, ससीम व अल्पज्ञ होने से उसकी आत्मा की शक्ति भी सीमित है और उसका ज्ञान भी सीमित होता है। वह अपने ज्ञान में वृद्धि तो कर सकता है परन्तु सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ ईश्वर के समान ज्ञानी कभी नहीं बन सकता। इसका एकमात्र कारण दोनों के स्वरूपों में कुछ समानतायें और बहुत सी असमानतायें हैं।

मनुष्य को मनुष्य क्यों कहते हैं? ऋषि दयानन्द ने इसका तात्पर्य बताया है। वह अपने लघु ग्रन्थ ‘स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश’ में लिखते हैं ‘मनुष्य उसी को कहना (अर्थात् मनुष्य वही होता है) जो मननशील होकर स्वात्वत् अन्यों के सुख-दुःख और हानि-लाभ को समझे। अन्यायकारी बलवान् से भी न डरे और धर्मात्मा निर्बल से भी डरता रहे। इतना ही नहीं किन्तु अपने सर्व सामर्थ्य से धर्मात्माओं कि चाहे वे महा अनाथ, निर्बल और गुणरहित क्यों न हों, उन की रक्षा, उन्नति, प्रियाचरण और अधीर्मी चाहे चक्रवर्त्ती सनाथ, महाबलवान् और गुणवान् भी हों तथापि उसका (व उनका) नाश, अवनति और अप्रियाचरण सदा किया करे अर्थात् जहां तक हो सके वहां तक अन्यायकारियों के बल की हानि और न्यायकारियों के बल की उन्नति सर्वथा किया करे। इस काम में चाहे उस (मनुष्य) को कितना ही दारुण दुःख प्राप्त हो, चाहे प्राण भी भले ही जावें परन्तु इस मनुष्यपनरूप धर्म से पृथक कभी न होवे।’ इसके आगे भी उन्होंने कुछ श्लोक देकर अपनी बात को बढ़ाया है। उनके द्वारा उद्धृत एक श्लोक में कहा गया है कि मनुष्य वह है जो किसी भी प्रकार की निन्दा व स्तुति अर्थात् प्रशंसा की परवाह नहीं करता, लक्ष्मी आये या जाये, इसकी भी चिन्ता नहीं करता, मृत्यु आज हो या युगों के बाद, इसकी भी उपेक्षा करता है तथा चाहे कुछ भी हो जाये वह सत्य वा न्याय के पथ से कभी विचलित नहीं होता। एक अन्य श्लोक में कहा गया है कि सत्य से बढ़कर धर्म, धारण करने योग्य गुण व आचरण, नहीं है और असत्य से बढ़कर अधर्म, आचरण न करने योग्य कर्म, नहीं हैं। सत्य से बढ़कर ज्ञान नहीं है। उस सत्य का ही मनुष्य को सदैव आचरण करना चाहिये। ऋषि दयानन्द जी के उपर्युक्त वाक्यों से मनुष्य के कर्तव्यों, धारण करने योग्य गुणों व धर्म पर प्रकाश पड़ता है। यह सभी बातें प्रायः निर्विवाद हैं। सबसे बड़ी गलती व भूल वहां होती हैं जहां मनुष्य अपने अविद्याग्रस्त मतों व उनकी मान्यताओं के आचरण को ही धर्म मान लेते हैं और वैदिक ज्ञान व सत्य धर्म के ज्ञान व आचरण से दूर हो जाते हैं।

मनुष्य क्या होता है, उसमें मुख्य गुण, कर्म व स्वभाव क्या हों, इसका संक्षिप्त वर्णन उपर्युक्त पंक्तियों में आ गया है। इसके अतिरिक्त भी मनुष्य कहलाने वाले प्राणी को वेदाध्ययन व सत्यार्थप्रकाश, उपनिषद व दर्शनों आदि ऋषि ग्रन्थों का अध्ययन कर ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव को जानना होता है। उन्हें जानकर उनके अनुरूप स्वयं को ढालना व ईश्वर के गुणों को अपने आचरण व व्यवहार में लाना भी उसे अभीष्ट है। यदि मनुष्य के भीतर ईश्वर व उसके अनुरूप गुण, कर्म व स्वभाव नहीं होंगे तो वह सच्चा और अच्छा अर्थात् श्रेष्ठ मनुष्य वा आर्य पुरुष नहीं बन सकेगा। हमारी दृष्टि में तो मनुष्य वही है जो ईश्वर के सत्यस्वरूप व उसके गुण, कर्म व स्वभाव को जानता हो और उसके अनुरूप अपने गुण, कर्म व स्वभाव को बनाने का निष्ठापूर्वक प्रयत्न करता हो। यदि ऐसा नहीं करता तो मनुष्य होकर भी मनुष्य आकृति में एक पशु समान प्राणी ही होता है। ऐसा मनुष्य कुछ अच्छे काम करता है और कुछ बुरे काम। जैसा कि आजकल टीवी चैनलों पर बहुत से नेताओं के भ्रष्टाचार व पक्षपातपूर्ण आचरण के समाचार देखने को मिलते रहते हैं। देश के व्यापक हित में भी हमारे यह नास्तिक नेता देश हित के मुद्दों पर एक मत नहीं होते और अपने राजनीतिक स्वार्थों के लिए देश व इसके नागरिकों के हितों की बलि देते रहते हैं। यही कारण है कि गोरक्षा जैसा मुद्दे पर भी आम सहमति नहीं बनी है। लोग आर्य हिन्दुओं की भावनाओं को ठेस लगाना ही अपना कर्तव्य व स्वार्थसिद्धि में आवश्यक मानते हैं। उर्दू को पढ़ाने व उसके प्रचार-प्रसार के लिए क्योंकि उससे उन्हें वोट मिलते हैं, देश की जनता से प्राप्त कर का धन व्यय किया जाता है और वेद, संस्कृत व हिन्दी के लिए जो प्रयास सरकारों को करने चाहिये वह विगत 70 वर्षों से देखने को नहीं मिले हैं। यह कब तग चलेगा, कहा नहीं जा सकता।

मनुष्य, मनुष्य आकृति के जड़ शरीर वाले प्राणी जिसमें एक अल्प व सूक्ष्म परिमाण वाला एकदेशी व अल्पज्ञ जीवात्मा होता है, उसे कहते है। सृष्टि के आरम्भ में मनुष्योत्पत्ति के बाद उन्हें कर्तव्याकर्तव्यों का ज्ञान देने के लिए ईश्वर ने चार ऋषियों की आत्मा में वेदों का ज्ञान प्रविष्ट किया था। जिस प्रकार हम अपने पीसी कम्पूयटर में पैन-ड्राइव या सीडी से डाटा कापी करते हैं, ऐसा तो नहीं परन्तु कुछ इसी प्रकार से परमात्मा भी ऋषियों की आत्माओं में चार वेदों का ज्ञान देता है। वेद सब सत्य विद्याओं के पुस्तक हैं। वेदों से ही संसार के सभी स्थानों व पदार्थों के नाम प्रसिद्ध हुए हैं और संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी व अन्य सभी भाषायें देश, काल व परिस्थितियों के अन्तराल से अस्तित्व में आईं हैं। वेदों में ईश्वर, जीवात्मा व सृष्टि को पूर्ण व अधिकांश रूप में जानने का ज्ञान है। वेद की महत्ता के समान संसार का दूसरा कोई ग्रन्थ नहीं है। ईश्वर का प्रमुख रूप से ज्ञान कराना वेदों का मुख्य उद्देश्य प्रतीत होता है। अतः प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है कि वह वेदों का अध्ययन अपना मुख्य कर्तव्य जानकर करे। जो ऐसा नहीं करता वह कृतघ्न मनुष्य होता है। इसलिए की परमात्मा ने उसे सृष्टि से परिचित कराने के लिए यह ज्ञान दिया जिससे वह धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष सबकी प्राप्ति मनुष्य जीवन में कर सके। मनुष्यों द्वारा वेदाध्ययन करने की ईश्वर की आज्ञा भी है और साथ ही अपेक्षा भी है। जो कुछ मनुष्य ऐसा करते हैं वह भाग्यशाली व श्रेष्ठ हैं। जो नहीं करते वह कृतघ्न व भाग्यहीन हैं। राम, कृष्ण व दयानन्द जी ने वेदों का अध्ययन व उनकी शिक्षाओं का अपने अपने जीवन में आचरण किया, आज तक उनका नाम, यश्झा व कीर्ति है। संसार में अब तक अगण्य मनुष्य उत्पन्न होकर मर गये परन्तु अमरता केवल वेदों के ज्ञानियों व सत्य का अनुकरण व अनुसरण करने वालों को ही प्राप्त हुई है। यह बात हमें वैदिक साहित्य के निकट आकर और कुछ अध्ययन, चिन्तन व मनन करने पर विदित हुई है। अतः वेद और सत्यार्थप्रकाश सहित वैदिक साहित्य में दर्शन, उपनिषद, मनुस्मृति आदि सभी ग्रन्थों का अध्ययन करना मनुष्य जीवन का उद्देश्य व कर्तव्य है।

जब हम वेदों को जान लेंगे तो हम ईश्वर व संसार को जानकर ईश्वर के सच्चे भक्त व उपासक बनेंगे। ईश्वर की आज्ञा का पालन करते हुए प्रतिदिन देवयज्ञ वा अग्निहोत्र व अन्य कर्तव्यों का पालन करेंगे। इन सभी कर्तव्यों का पालन वा आचरण ही हमें मनुष्य कोटि में परिगणित करायेगा। यहां यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि संसार में सत्य केवल एक है। सत्य का निर्धारण सत्य शास्त्र वेद व अन्य शास्त्रों के वेदानुकूल वचनों सहित मनुष्यों के हित व उपकार को ध्यान में रखकर तर्क व युक्ति से सिद्ध किया जा सकता है। अतः संसार के सभी लोगों मुख्यतः धार्मिक विद्वानों को भी परस्पर प्रीतियुक्त होकर परस्पर संवाद कर सत्य का निर्धारण कर ही सत्य को स्वीकार करना चाहिये। जो मनुष्य व विद्वान धर्म व मत की परम्परागत बातों को बिना विचार व विवेचना के ही स्वीकार कर लेते हैं वह बुद्धिमान नहीं कहे जा सकते। किसी भी मत-मतान्तर की किसी भी मान्यता व बात को आंख बंद कर स्वीकार नहीं करना चाहिये। यदि करेंगे तो सत्य अर्थात् ईश्वर ही नहीं अपनी आत्मा से भी ज्ञान की दृष्टि से दूर होकर जन्म जन्मान्तरों में दुःख ही दुःख पायेंगे। यह निष्कर्ष ऋषि दयानन्द सहित अन्य ऋषियों व आर्यसमाज के सभी प्रवर विद्वानों का है। अतः सभी मनुष्य आकृति वाले प्राणियों को सत्य ज्ञान की प्राप्ति के लिए जीवन के आरम्भिक वर्षों में वेद व सत्यार्थप्रकाश का ज्ञान प्राप्त कर अविद्या से मुक्त होने के लिए अन्य सत्य ग्रन्थों का भी अध्ययन करना चाहिये। जब ऐसा होगा तभी सभी मनुष्य वास्तव में यथार्थ मनुष्य की संज्ञा से संयुक्त होकर मनुष्य व देव कहलाने के अधिकारी होंगे। इन्हीं पंक्तियों के साथ इस लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
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देहरादून-248001
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