GMCH STORIES

ऋषि दयानन्द ने सत्यधर्म और हमारे कर्तव्यों से परिचय कराया

( Read 8401 Times)

02 May 19
Share |
Print This Page
ऋषि दयानन्द ने सत्यधर्म और हमारे कर्तव्यों से परिचय कराया

महाभारत युद्ध के बाद देश के विद्वानों व सामान्य लोगों ने सत्य मत और अपने कर्तव्यों को भूलना आरम्भ कर दिया था। ऋषि दयानन्द ;1825.1883द्ध के समय में देश विदेश में लोग सत्य और आध्यात्मिक एवं भौतिक जगत का आधार तीन मूल सत्ताओं के वास्तविक स्वरूप सहित अपने कर्तव्यों को प्रायः भूल चुके थे। किसी भी मत.मतान्तर में तीन अनादि वा मूल पदार्थ ईश्वरए जीव और प्रकृति का सत्यस्वरूप यथारूप में नहीं पाया जाता। यह मत.मतान्तर वाले विज्ञान की भांति समय.समय पर अपने ज्ञान को अपडेट भी नहीं करते। इस कारण इनमें अनेक प्रकार के परिवर्तनों एवं संशोधनों की आवश्यकता बन गई है। दूसरी ओर सृष्टि के आरम्भ में मनुष्यों की अमैथुनी सृष्टि हुई थी। सभी मनुष्य युवावस्था में उत्पन्न हुए थे। अमैथुनी का तात्पर्य है कि बिना माता.पिता के मनुष्य आदि प्राणियों की सृष्टि वा जन्म हुआ था जिसे ईश्वर ने पृथिवी माता के गर्भ से उत्पन्न किया था। इन स्त्री.पुरुषों के न तो माता.पिता थे और न ही उस समय आचार्य व अध्यापक ही थे। ऐसे समय में प्रथम आचार्य के रूप में ईश्वर ने आदि चार ऋषियों अग्निए वायुए आदित्य और अंगिरा को चार वेदों का ज्ञान दिया था। यह ज्ञान ईश्वर ने ऋषियों की आत्मा में अपने सर्वान्तर्यामी स्वरूप से वा सब प्राणियों की आत्मा के भीतर विद्यमान होने से आत्मा में प्रेरणा करके उत्पन्न किया था। वर्तमान संसार में हम आचार्यों के उपदेशों को आंखों को बन्द करके सुन सकते हैं। वह ज्ञान आत्मा तक कानों से मन में व मन से आत्मा में पहुंचता हैं। आचार्य बाहर है भीतर नहीं है। परमात्मा बाहर भी है आत्मा के भीतर अर्थात् सर्वान्तर्यामी है। अतः जो काम अघ्यापक व आचार्य बोल कर करता है वही काम ईश्वर अपने आत्मस्थ वा सर्वान्तर्यामी स्वरूप से आत्मा में प्रेरणा करके कर देता है। इसमें असम्भव व आश्चर्य की बात नहीं है। 
ऋषि दयानन्द ने महाभारत के बाद आरम्भ अविद्या से उत्पन्न अन्धकार के युग में वेदों पर आधारित सत्य ज्ञान का प्रचार कर लोगों की अविद्या दूर करने सहित ईश्वर व जीवात्मा विषयक सत्यज्ञान के स्वरूप से परिचय कराया था। उन्होंने संसार को ईश्वर की उपासना की सर्वोत्तम विधि भी सिखाई है। यद्यपि उनके समय में वेद और योगदर्शन आदि ग्रन्थ विद्यमान थे परन्तु इनके सत्य अर्थों से युक्त हिन्दी आदि सरल भाषाओं में टीकायें व भाष्य नहीं मिलते थे। ऋषि व उनके अनुवर्ती आर्य विद्वानों ने लोगों तक वेदोंए दर्शनों व उपनिषदों के सत्यार्थों को पहुंचायां जिससे वह ईश्वर के साथ अपना सेवक.स्वामी तथा व्याप्य.व्यापक का सम्बन्ध जान सके व उसे स्थापित कर सके। उन्हीं के कारण लोगों ने जड़ पूजा वा पाषाण आदि पूजा को छोड़ कर ईश्वर के सत्यस्वरूप के उपासक बनें। इसमें कुछ प्रमुख नाम बतानें हों तो हम स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वतीए पंण् लेखराम जीए पं0 गुरुदत्त विद्यार्थीए महात्मा हंसराज जी तथा स्वामी दर्शनानन्द आदि के नामों का उल्लेख करेंगे। यदि ऋषि दयानन्द जी न आते और वेदों का प्रचार न करते तो लोगों को यह ज्ञात ही नहीं होता कि मूर्तिपूजा वेदविरुद्ध एवं हानिकारक कार्य है। इससे ईश्वर की आज्ञा भंग होने का पाप लगता है। इसी प्रकार ऋषि दयानन्द ने हमें अवतारवादए ईश्वर पुत्र व ईश्वर के सन्देशवाहक जैसे विचारों व मान्यताओं का भी सत्यस्वरूप प्रस्तुत कर इन मान्यताओं की निरर्थकता को प्रस्तुत कर मानवता का बहुत बड़ा उपकार किया है। समाज में व्याप्त बुराईयों का प्रचलन भी धार्मिक मान्यताओं व सिद्धान्तों से आरम्भ परम्पराओं से जुड़ा हुआ था। स्त्री व शूद्रों को वेदों के अध्ययन का अधिकार नहीं था। कल्पित संस्कृत वचनों का उदाहरण देकर वेदाध्ययन का विरोध किया जाता था। ऋषि दयानन्द जी ने यजुर्वेद के मन्त्र 26ध्2 को प्रस्तुत कर अजारों वर्षों चली आ रही इस अवैदिक प्रथा का पटाक्षेप कर दिया। यजुर्वेद का मन्त्र और उसका भावार्थ निम्न हैः
        ष्ष्यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः। ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय च। 
        प्रियो देवानांदक्षिणायै दातुरिह भूयासमयं मे कामः समृद्ध्यतामुप मादो नमतु।।श्
इस मन्त्र का हिन्दी अर्थ व भावार्थ है कि ष्मैं ईश्वर जैसे इस कल्याणप्रद वेदवाणी को सब मनुष्यों के लिए सम्यक् रीति से कहता हूं अर्थात् ब्राह्मण.क्षत्रिय दोनों के लिएए शूद्र के लिए और वैश्य के लिएए अपने लोगों के लिए और पराये अर्थात् शत्रु के लिएए उसी प्रकार मनुष्यमात्र को मेरे इस कार्य का अनुकरण करना चाहिए ;अर्थात् अन्य सभी मनुष्यों में प्रचार करना चाहिएद्ध। ऐसा कर्तव्य पालन करनेवाला ;अर्थात् वेद व वेद की मान्यताओं का प्रचार करने वालाद्ध मनुष्य ऐसी प्रार्थना कर सकेगा कि मैं देवों ;देव विद्वानों को कहते हैए ईश्वर महादेव हैए उनद्ध का प्रिय हो जाऊं। इसी लोक या जीवन में मैं दक्षिणा ;वेदज्ञानए शिक्षा व विद्याद्ध के देने वालों का प्रिय हो जाऊं। मेरी यह कामना पूरी हो। यह मेरा पुत्र या उत्तराधिकारी ;वेदों का प्रचार करने वालाद्ध मुझको प्यारा हो जाए।
ऋषि दयानन्द द्वारा इस मन्त्र व उसके अर्थ को प्रस्तुत करने से स्त्री व शूद्रों पर वेदाध्ययन पर लगी रोक समाप्त हो गई। ऋषि ने पौराणिक सनातनियों की असत्य व हानिकारक धारणा पर इस मन्त्र द्वारा लगी रोक के हटने का परिणाम यह हुआ कि बड़ी संख्या में कन्याओं एवं दलित बन्धुओं के आर्यसमाज द्वारा संचालित गुरुकुलों में अध्ययन करने का अवसर मिला और वह वेदों के उच्च कोटि के विद्वान व प्रचारक बनें। ऋषि दयानन्द जी का यह योगदान भी कोई कम महान नहीं है। उन्होंने पूरी मानव जाति को वेदाध्ययन का अधिकार दिलाया है जिसके लिये सभी लोग उनके चिरऋणी हैं। सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ लिखकर भी उन्होंने हमें प्रायः सभी धार्मिकए सामाजिक व देश में सुशासन करने का सत्य ज्ञान प्रदान किया है। मत.मतान्तरों की जो समीक्षा सत्यार्थप्रकाश के उत्तरार्ध के चार सम्मुलासों में की गई है उससे भी हमें सत्य मत के निर्णय करने में सहायता मिलती है और वेद मत ही सत्य मत है तथा वह मनुष्य की उन्नति व लक्ष्य प्राप्ति में सहायक हैए यह सुस्पष्ट होता है। महाभारत के बाद देश के लोगों में जन्मना.जातिवाद की बुराई फैली थी। इसका भी खण्डन ऋषि दयानन्द जी ने वेद प्रमाणों व वेद की अन्तर्निहित भावना के आधार पर किया है। वेद गुणए कर्मए स्वभाव के अनुसार सामाजिक वर्ण.व्यवस्था को सिद्धान्त रूप में स्वीकार करते हैं। जन्मना जातिवाद वेद विरुद्ध है और यह देश व समाज को संगठित व उन्नत करने के स्थान पर उसे कमजोर करता है। इस बुराई के कारण जन्मना जातिवाद पूर्णतः त्याज्य है। ऐसे प्रायः सभी विषयों का सत्य ज्ञान ऋषि दयानन्द जी ने विश्व को दिया है और इसी के लिये उन्हें अपने प्राणों की आहुति वैदिक राष्ट्र यज्ञ व समाज सुधार आन्दोलन में देनी पड़ी है। 
ऋषि दयानन्द ने वैदिक सत्यधर्म एवं वेदों के स्वाध्यायए वेदाचरण तथा ईश्वरोपासना सहित परोपकार आदि कर्तव्यों का बोध कराने के साथ पराधीन भारत में परतन्त्रता के कारणों को बता कर देश की स्वतन्त्रता की नींव भी रखी थी। उनके समय व उससे पूर्व देश की आजादी का विचार किसी पुस्तक व महापुरुष ने प्रचारित नहीं किया था। देश को जगाने और स्वतऩ्त्रता प्राप्त करने का विचार भी ऋषि दयानन्द ने ही हमें दिया था। सत्यार्थप्रकाश के आठवें समुल्लास में स्वन्तत्रता के महत्व को प्रतिपादित करते हुए उन्होंने लिखा है ष्कोई कितना ही करे किन्तु जो स्वदेशीय राज्य होता है वह सर्वोपरि उत्तम होता है।ष् इस वाक्य को हम देश को आजाद कराने की प्रेरणा मानते हैं। इसे पढ़कर ऋषि दयानन्द जी के अनुयायियों को देश को आजाद कराने की प्रेरणा प्राप्त हुई थी। अपने इस वाक्य को जारी रखते हुए वह आगे कहते हैं कि ष्अथवा मत.मतान्तर के आग्रह रहितए अपने और पराये का पक्षपातशून्यए प्रजा पर पिता माता के समान कृपाए न्याय और दया के साथ विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं है।ष् इन शब्दों में स्वामी दयानन्द जी ने महारानी विक्टोरियां द्वारा देश व उसके नागरिकों को दिये वचनों का भी शब्दशः खण्डन कर स्वदेशी राज्य को ही पूर्ण सुखदायक बताया है। यह शब्द ऋषि दयानन्द द्वारा सन् 1883 में लिखे गये थे जिनका प्रकाशन उनकी मृत्यु के बाद सन् 1884 में हुआ था। कांग्रेस की स्थापना इसके एक वर्ष बाद सन् 1885 में हुई थी। ऋषि के इन शब्दों के कारण ही वह आजादी के आन्दोलन के पितामह एवं आजादी के लिये अपने प्राणों का उत्सर्ग करने वाले प्रथम महापुरुष वा शहीद कहे जा सकते हैं। 
ऋषि दयानन्द को इस बात का श्रेय है कि उन्होंने देश के लोगों को सबसे पहले सत्यए सत्यधर्म वेदए मनुष्य के कर्तव्यों सहित ईश्वरए जीवात्मा और सामाजिक व्यवस्था के सत्य स्वरूप से परिचित कराया था। यदि वह न आते तो हम व देश उनसे प्राप्त ज्ञान व प्रेरणाओं से वंचित रहता। ऋषि दयानन्द का देश में जन्म लेना देश का परम सौभाग्य था। उनका कोटिशः धन्यवाद और उनको सादर नमन है। ओ३म् शम्। 
 


Source :
This Article/News is also avaliable in following categories : Chintan
Your Comments ! Share Your Openion

You May Like