वैदिक साधन आश्रम तपोवन, देहरादून के ग्रीष्मोत्सव के समापन दिवस पर आचार्य आशीष दर्शनाचार्य जी का सम्बोधन हुआ। उन्होंने कहा कि हम आर्यसमाज के महान संगठन से जड़े हुए हैं। महर्षि दयानन्द सरस्वती ने आर्यसमाज की सन् 1875 में स्थापना की थी। विश्व के अधिकांश देशों में आर्यसमाज की शाखायें काम कर रही हैं। लगभग 14 लाख की जनसंख्या वाले मारीशस देश में भी आर्यसमाज की 450 इकाईयां कार्यरत हैं। भारत में आर्यसमाज फैला हुआ है और विश्व में आर्यसमाज का संगठन भी फैला हुआ है। आर्यसमाज के अनेक अनुयायियों ने अपने ज्ञान व बल से विश्व के अनेक देशों में आर्यसमाज की स्थापनायें की हैं। आर्यसमाज का सदस्य बनकर हमें अपनी इस संस्था व स्वयं पर गर्व होता है। आचार्य आशीष जी ने कहा कि आर्यसमाज तेजी से आगे बढ़ रहा है। उन्होंने कहा कि इंटरनैट व मीडिया आदि के माध्यम से लोग आर्यसमाज का अधिक प्रचार कर रहे हैं। हमारी यह सोच होनी चाहिये कि हम व हमारा आर्यसमाज आगे बढ़ रहा है। हमें यह विश्वास होना चाहिये कि सम्पूर्ण विश्व में भविष्य में सत्य की प्रतिष्ठा होगी। भविष्य में विश्व में सत्य का प्रतिपादन होने वाला है, इसके प्रति हमें आशावान रहना है।
आचार्य आशीष जी ने कहा कि आर्यसमाजों में युवा कम दिखाई देते हैं। उन्होंने श्रोताओं को बताया कि युवा सक्रियता के साथ आर्यसमाज से जुड़ रहे हैं। उन्होंने कहा कि वह यह बात अपने अनुभव से कह रहे हैं। हमारे आर्यसमाज के बहुत विद्वान व वृद्धजन इंटरनैट व मीडिया से जुड़े न होने के कारण मीडिया पर किये जा रहे प्रचार से पूर्णतः अनभिज्ञ हैं। उन्होंने कहा कि युवा वर्ग बहुत तीव्रता से आर्यसमाज से जुड़ रहा है। पुरानी पीढ़ी के बहुत से लोगों की बातें नकारात्मक होती हैं। उन्होंने उन लोगों की चर्चा की है जिन्हें आर्यसमाज की स्थिति का ठीक से ज्ञान नहीं है। आचार्य जी ने कहा कि यदि पुरानी पीढ़ी के हमारे वृद्धजन यह निश्चय कर लें कि हम सकारात्मक चर्चायें ही करेंगे, नकारात्मक चर्चायें नहीं करेंगे तथा वह नई पीढ़ी व अपने परिवारों के युवाओं को सकारात्मक बातें ही बतायें, तो इससे युवापीढ़ी को समाज से जुड़ने का अवसर मिलेता है। उन्होंने कहा कि आर्यसमाज के कई अधिकारियों से भूल चूक हो जाती है। कुछ लोग उन त्रुटियों का अनुभव कर अपने घर जाकर परिवार के सदस्यों को उन नकारात्मक बातों को बताते हैं। इससे उनके परिवार व युवापीढ़ी आर्यसमाज से दूर हो जाती है। आचार्य जी ने तपोवन आश्रम में उपलब्ध सीमित सुविधाओं की चर्चा की। उन्होंने कहा यहां अच्छा व सकारात्मक कार्य भी तो होता है। उन्होंने आश्रम से जुड़े लोगों से पूछा कि क्या आप यहां की प्रतिकूल कुछ बातों को दबा देते हैं या नहीं? उनका विस्तार व प्रचार तो नहीं करते? उन्होंने कहा कि हमें सकारात्मक बातों को बढ़ाना चाहिये। नकारात्मक बातों को अधिक विस्तार नहीं देना चाहिये।
आचार्य आशीष दर्शनाचार्य ने आर्यसमाज के साप्ताहिक सत्संगों की चर्चा करते हुए कहा कि इसमें एक लम्बा यज्ञ, दो तीन भजन और उसके बाद किसी महानुभाव का व्याख्यान होता है। उन्होंने श्रोताओं से पूछा कि हमारे ऐसे कार्यक्रमों में आने वाला युवक क्या उसके बाद के कार्यक्रमों में आना पसन्द करेगा? उन्होंने यह भी कहा कि यदि मैं भी ऐसे कार्यक्रमों में चला जाता, जहां के कार्यक्रम में संस्कृत की प्रधानता वाले कार्यक्रम होते हैं, तो शायद भविष्य में मैं वहां न जाता। आचार्य जी ने बताया मारीशस में आर्यसमाज के सत्संगों का नया फारमेट स्वीकार हो चुका है। वहां साप्ताहिक सत्संग दो घंटे चलता है। उन्होंने कहा कि हम 30 से 35 मिनट में यज्ञ सम्पन्न कर सकते हैं। इसके बाद एक भजन प्रस्तुत करना पर्याप्त है। उन्होंने कहा कि पांच से सात बच्चे तो आर्यसमाज में आते ही हैं। इन बच्चों को 15 मिनट का समय दिया जाना चाहिये। वह बच्चे अपनी आवश्यकता व सोच के अनुसार स्वयं कार्यक्रम बनाकर संचालित करें। आर्यसमाज के बुजुर्ग ज्ञानी व अनुभवी लोग इस कार्य में उनका मार्गदर्शन कर सकते हैं। यदि ऐसा नहीं करेंगे तो बच्चे व युवा हमारे आयोजनों में नहीं आयेंगे। आचार्य जी ने कहा कि बच्चे माइक पर बोल सकते हैं। बच्चों को 15 मिनट का समय अवश्य दें। माइक का उपयोग व प्रस्तुतियां बच्चे स्वयं करेंगे। उन्होंने श्रोताओं से पूछा कि यदि आप ऐसा करेंगे तो क्या अपने बच्चों का कार्यक्रम देखने उनके माता पिता आर्यसमाज में नहीं आयेंगे? ऐसा करने पर उन बच्चों के मित्र भी आया करेंगे। बच्चों को इस कार्यक्रम को यूट्यूब पर अपलोड करने की प्रेरणा की जानी चाहिये। जब ऐसे कई कार्यक्रम हो जायें तो ऐसे बच्चों को सम्मानित किया जाया करे जिनके यूट्यूब पर दर्शक व व्यूअर्स अधिक हों।
आचार्य जी ने कहा कि बच्चों के कार्यक्रम के बाद आर्यसमाज के ज्ञानी व अनुभवी लोग बच्चों व युवाओं की आवश्यकता को ध्यान में रखकर लगभग 20 से 25 मिनट का कार्यक्रम प्रस्तुत करें वा करायें। इस कार्यक्रम का फोकस वहां उपस्थित बच्चे होने चाहियें। उनकी रूचि व सहभागिता उस कार्यक्रम में होनी चाहिये। आचार्य जी ने बलपूर्वक कहा कि बच्चों के लिए 35 से 40 मिनट प्रत्येक रविवारीय सत्संग में निकालने चाहियें। आचार्य जी ने आर्यसमाज के अधिक आयु वाले सदस्यों से कहा कि आप भी अपने घर परिवार में अपने नाती, पोते व पोतियों से आर्यसमाज की मान्यताओं के अनुसार उनके लिए उपयोगी धर्म चर्चा किया करें। उन्होंने कहा कि इसके बाद आर्यसमाज की परम्परा के अनुसार विद्वानों के व्याख्यान आदि अन्य कार्यक्रम किये जा सकते हैं। इस प्रकार यज्ञ, भजन व बच्चों से संबंधित दो कार्यक्रम 35+7+15+20= 77 मिनट में करके प्रवचन आदि के लिए लगभग 43 मिनट बच जाते हैं। आचार्य आशीष आर्य जी ने इस नये फारमेट के अनुसार कार्यक्रम संचालित करने के लिए आर्यसमाज के अधिकारियों से अनुरोध किया। आचार्य जी ने यह भी कहा कि आर्यसमाज के लोग घर में काम करने वाली महिलाओं व स्लम में रहने वाले बच्चों को आर्यसमाज में बुलाकर उनका होमवर्क करायें तो इसके भी अच्छे परिणाम सामने आयेंगे। उन्होंने कहा कि इस कार्य के लिए आर्यसमाजें अपने साधनों से एक या दो अध्यापक भी नियुक्त कर सकते हैं। इससे वह बच्चे व परिवार भी आर्यसमाज से जुड़ सकेंगे। आचार्य जी ने कहा कि ऐसा करने से स्लम में रहने वाले 50 से 60 बच्चे जुड़ सकते हैं। उन्होंने कहा कि प्रचार के ऐसे अन्य उपाय भी किये जा सकते हैं। आचार्य जी ने अपने भाषण को विराम देते हुए कहा कि यदि डीएवी स्कूल व आर्यसमाजों द्वारा संचालित स्कूल के बच्चों पर भी ध्यान दिया जाये व कार्य किया जाये तो इससे आर्यसमाज को लाभ हो सकता है।
वैदिक साधन आश्रम का सत्संग हाल आज पूरा भला हुआ था। बहुत से लोगों को हाल के भीतर स्थान नहीं मिल सका। उन्होंने हाल के बाहर खड़े होकर ही कार्यक्रम को सुना। सभी की प्रतिक्रिया अनुकूल थी। आचार्य जी के इस व्याख्यान का लोगों ने तीव्र कलतल ध्वनि से स्वागत किया। उनके बाद के सभी विद्वानों व वक्ताओं ने भी उनके उपदेश की सराहना की।
आचार्य जी के व्याख्यान को सुनकर हमें अपने अतीत के दिन भी स्मरण हो आये। हमें वर्ष 1994-1995 में आर्यसमाज के सत्संगों को संचालित करने का अवसर मिला था। हम प्रत्येक सत्संग में दो-तीन बच्चों को कविता, गीत, भजन आदि प्रस्तुत करने के लिए प्रेरित करते थे। आर्यसमाज के सामने एक सब्जी की दुकान के स्वामी की किशोरावस्था की पुत्री भी सत्संग में आने लगी। वह प्रत्येक रविवार को अपनी स्वरचित कविता वा अपनी पसन्द की अन्य कवितायें प्रस्तुत करती थी। उसे प्रोत्साहित करने के लिए हमने उनके माता-पिता से मिकर उसकी प्रशंसा की थी। सत्यार्थप्रकाश का पाठ भी हम एक सदस्य की युवा पुत्री से ही कराते थे। युवा व बुजुर्गों को प्रेरत करते थे कि वह जो भी प्रस्तुतियां दे सकते हैं, हमें बतायें व करें। इससे नये अनेक सदस्य मंच पर आये और उन्होंने अपना सम्बोधन प्रस्तुत किया।
ऐसा भी हुआ था कि सन् 1994 की कृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर हम एक पौराणिक विद्वान को बुला लाये। उन्होंने ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज की ऐसी प्रशंसा की कि हमें उसे सुनकर आश्चर्य हुआ। सिद्धान्त विरुद्ध वह एक शब्द भी नहीं बोले थे। वह आचार्य वासुदेवानन्द, मथुरा इतने प्रभावशाली आचार्य थे कि जब हम सड़क पर आर्यसमाज की ओर आ रहे तो मार्ग में चलते हुए स्त्री व पुरुष उनके चरण स्पर्श कर रहे थे। हमारा उस व्याख्यान का समाचार ‘आर्यसमाज में न दिखावट है न मिलावट है, न सजावट है न बनावट है : आचार्य वासुदेवानन्द’ इस शीर्षक से आर्यमित्र में प्रकाशित हुआ था। हमने बाद में महात्मा नारायण स्वामी आश्रम, रामगढ़ तल्ला में आर्य प्रतिनिधि सभा, उत्तर प्रदेश के प्रधान जी के श्रीमुख से सुना तो उनके द्वारा इन शब्दों को दोहराते देखकर हमें प्रसन्नता हुई थी। पौराणिक आचार्य को आमंत्रित करने की प्रेरणा हमारे आर्यसमाजी गुरू व विद्वान ¬ऋषि भक्त प्रा. अनूप सिंह की थी। उन्होंने हमें कहा था कि यदि वह सिद्धान्त विरुद्ध कुछ कहेंगे भी तो मैं उसे सम्भाल लूंगा। श्री अनूप सिंह जी आर्यसमाज के ऐसे विद्वान थे जिनके प्रवचन गुरुद्वारे एवं पौराणिक संस्थाओं के अनेक सत्संगों में हुआ करते थे। आर्यसमाज धामावाला देहरादून में एक बार ऐसा भी हुआ कि सत्संग समाप्त हो रहा था और एक युवक ने आकर अपने गिट्टार से अपनी प्रस्तुति देने का अनुरोध किया। प्रा. अनूप सिंह जी युवाओं को आर्यसमाज में बहुत उत्साहित करते थे। उन्होंने हमें कहा कि यह युवा है, इसे समय दे दो। कार्यक्रम की समाप्ति पर उसने अपना भजन प्रस्तुत किया। बहुत ही मधुर व प्रभावशाली भजन था। ऐसे अनेक अनुभव हमारे भी हैं। हम भी चाहते हैं कि आर्यसमाज में बच्चों व युवाओं से जुड़े कार्यक्रम हों व उन्हें माइक व मंच की सुविधा दी जानी चाहिये। ओ३म् शम्।
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