उदयपुर हुमड़ भवन में आयोजित धर्मसभा में मुनिश्री समृद्धसागरजी ने जिनसहस्रनाम विधान में कहा कि ज्येष्ठ नहीं श्रेष्ठ बनो। जो श्रेष्ठ बनने का पुरूषार्थ करता है वह स्वयमेव ही श्रेष्ठ बन जाता है। ज्येष्ठ पुरूष को सम्मान मिले या न मिले लेकिन श्रेष्ठ पुरूष् को हमेशा सम्मान मिलता है। श्रेष्ठ बनने के लिए पुरूषार्थ करना पड़ता है। अगर पुरूषार्थ करने पर भी कार्य की सिद्धि नहीं होती तब इसे भाग्यहीन कहा जाएगा और बिना पुरूषार्थ के जो कार्य सिद्ध करना चाहता है वह दुभाग्यशाली कहा जाता है। पुरूषार्थ कार्याधीन है और Èल कर्माधीन है। जिन पौधों की परवरिश हमेशा छांव में होती है वह अक्सर कमजोर होते हैं और जिन पौधों की परवरिश धूप में होती है वह शीघ्र Èलते हैं और Èलदायी होते हैं। इसलिए श्रेष्ठ बनने के लिए पुरूषार्थ करना पड़ता है। ज्येष्ठ तो व्यक्ति पड़े- पड़े भी बन जाता है। रामचन्द्रजी को 14 वर्ष का वनवास मिला तो वह वन में भी पुरूषार्थ करते रहते तो वह संसार में श्रेष्ठ बने और भरत अयोध्या का राज पाकर भी ज्येष्ठ ही बन पाये श्रेठ नहीं बन पाये। रामचन्द्रजी वन में भ्ज्ञी प्रसन्न रहे पर भरत तो राज्य पाकरके भी प्रसन्न नहीं रह पाये।
मंजू गदावत ने बतायाकि प्रात: पूजा, अभिषेक, शांति धारा एवं विधान पूजन हुआ। सुमतिलाल दुदावत ने बताया कि प्रात: 108 सौधर्म इन्द्रों के द्वारा चमत्कारिक सहस्रनाम विधान हुआ। शाम को आचार्यश्री की मंगल आरती के बाद रात्रि 8 बजे से भव्य गरबा हुआ जैन जागृति महिला मंच की मंजू गदावत, लीला कुरडिय़ा, विद्या जावरिया की देखरेख में जैन समाज के श्रावक- श्राविकाओं ने उत्साह एवं उमंग के साथ भाग लिया।
Source :