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मेवाड के धर्मरक्षक एवं दानी महाराणा राजसिंह प्रथम की आज ३९१वीं जयंती

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02 Nov 20
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मेवाड के धर्मरक्षक एवं दानी महाराणा राजसिंह प्रथम की आज ३९१वीं जयंती

उदयपुर ।  महाराणा मेवाड चेरिटेबल फाउण्डेशन, उदयपुर के प्रशासनिक अधिकारी भूपेन्द्र सिंह आउवा ने महाराणा राज सिंह प्रथम की ३९१वीं जयंती के अवसर ऐतिहासिक जानकारियां प्रदान करते हुए बताया कि इस वर्ष कोरोना महारामारी के कारण हर वर्ष की तरह इस बार प्रदर्शनियों का आयोजन नहीं किया जाएगा।

आउवा ने बताया कि महाराणा राजसिंह उत्तर मध्यकालीन युग के धर्मरक्षक, महान सैन्य संचालक एवं कूटनीतिज्ञ थे। सदाशिव भट्ट कृत राजरत्नाकर एवं रणछोड भट्ट कृत राजप्रशस्ति में महाराणा की दानशीलता एवं धार्मिक उदारता का विस्तार से वर्णन प्राप्त होता है। महाराणा राजसिंह प्रथम का जन्म विक्रम संवत् १६८६ कार्तिक कृष्ण २ (२४ सितम्बर १६२९ ई.) को हुआ था। इनके पिता महाराणा जगत सिंह प्रथम एवं माता मेडता राठौड जनादे थी। विक्रम संवत् १७०९ कार्तिक कृष्ण ४ (१० अक्टूबर १६५२ ई.) को वे मेवाड की गद्दी पर बैठे। राज्यारोहण के पश्चात् श्री एकलिंगनाथ जी, कैलाशपुरी जाकर रत्नों का तुलादान किया। उनका राज्याभिषेकोत्सव फाल्गुन कृष्ण २ (४ फरवरी १६५३ ई.) को हुआ, तब महाराणा ने चाँदी का तुलादान किया। महाराणा राजसिंह ने सन् १६५२ ई. से सन् १६८० ई. तक के अपने २८ वर्षों के शासन में राजनैतिक चातुर्य एवं दूरदर्शिता से मुगलों के साथ संघर्ष किया और अपनी स्वाधीनता को अनवरत रखा, महाराणा ने अपने कूटनीतिक सबंधों एवं उपायों से मेवाड को मुगल आक्रमण से सुरक्षित रखने के प्रयास किये, जो मेवाड की आर्थिक समृद्धि में सहायक बने।

महाराणा राजसिंह कालीन मेवाड

महाराणा राजसिंह ने मेवाड के हितों को ध्यान में रखकर निरन्तर अपने राज्य को सुदृढ करने में लगे रहे। महाराणा राजसिंह ने मांडलगढ, दरीबा, बनेडा, जहाजपुर, सावर, फूलियां, केकडी आदि पर पुनः अधिकार कर लिया था। मालपुरा, टोडा, टोंक, सावर, लालसोट और चाटसू पर आक्रमण कर उन्हें दण्डित किया। डूंगरपुर, बांसवाडा, प्रतापगढ, ग्यासपुर एवं देवलीया पर सैन्य अभियान कर उन्हें अधीनता स्वीकार करने को विवश कर दिया था। मेवाड के पर्वतीय क्षेत्रों में उपद्रवी भीलों पर नियंत्रित किया। इस तरह अपनी सुगठित सैन्य शक्ति और कुशाग्र बुद्धि का उपयोग कर महाराणा ने चारों ओर फैली राजनैतिक अराजकता पर विजय पायी।

मेवाड - मुगल टकराव

महाराणा अमरसिंह प्रथम एवं मुगल बादशाह जहाँगीर के बीच सन् १६१५ ई. में संधि हो गयी थी। जिसके बाद मेवाड-मुगल सम्बन्ध सामान्यतः टकराव से हट समन्वयकारी हो गये थे। किन्तु औरंगजेब के बादशाह बनने के बाद उसकी हिन्दू विरोधी गतिविधियाँ जोर पकडने लगी। महाराणा ने भी चित्तौड के किले की मरम्मत का काम जारी रखा अतः महाराणा राजसिंह और औरंगजेब में टकराव बढना स्वाभाविक हो गया था। फिर भी महाराणा राजसिंह ने कुटनीतिक प्रयासों द्वारा मुगलों से मधुर संबंध बनाये रखे। सन् १६६० ई. में किशनगढ की राजकुमारी चारुमती ने औरंगजेब के विवाह प्रस्ताव को ठुकराकर महाराणा राजसिंह से विवाह करने का आग्रह किया तब महाराणा ने ससैन्य किशनगढ पहुँचकर विवाह किया, इससे औरंगजेब का क्रोध मेवाड के प्रति और भडक गया। धर्मान्ध औरंगजेब ने सन् १६६९ ई. में हिन्दूओं के मंदिरों, पाठशालाओं को तोडने का आदेश दिया, हिन्दूओं पर जजिया लगाया तब महाराणा ने सशक्त और मुखर विरोध किया। महाराणा ने जोधपुर के महाराजा अजीत सिंह को संरक्षण दिया तब औरंगजेब तिलमिला उठा और उसन महाराणा को सबक सिखाने के लिए सन् १६७९ ई. में एक बडी सेना के साथ मेवाड की ओर प्रस्थान किया। महाराणा ने भी मेवाड के दक्षिणी सघन पहाडों में मोर्चे स्थापित कर लिये। औरंगजेब जब देबारी के घाटे में पहुँचा तो उसे मुट्ठी भर राजपूत सैनिकों का प्रबल सामना करना पडा। देबारी से शाही सेना उदयपुर पहुँची, यहाँ बादशाह ने जगदीश मंदिर तोडने की आज्ञा दी। मंदिर के नीचे चौक में नारूजी के नेतृत्व में २० मांचा तोड (मरने-मारने को तैयार) रक्षकों ने वीरता से लडकर कई शाही सैनिकों को मार गिराया और एक-एक कर वीरगति को प्राप्त हुए। मुगल सैनिकों ने मंदिर की अनेक प्रतिमाओं और अन्य मंदिरों को भी क्षति पहुँचायी। बादशाह ने महाराणा को पकडकर लाने के लिये अपना सेनापति पहाडी प्रदेश में भेजा पर उसे कोई सफलता नहीं मिली। अंततः औरंगजेब देबारी से देलवाडा होकर अजमेर चला गया, मार्ग में उसने मंदिरों को क्षतिग्रस्त किया।

मंदिर निर्माण एवं जजिया का विरोध

धर्मान्ध औरंगजेब ने ५३वीं सालगिरह पर अपने सभी सूबेदारों को हुक्म दिया कि ’’काफिरों के सभी शिक्षण संस्थानों और देवस्थानों को ध्वस्त कर दिया जाए।‘‘ इससे आगरा के निकट मथुरा, गोवर्द्धन और वृन्दावन के मंदिरों पर भी संकट का भय व्याप्त हो गया। गोस्वामी व्रजभूषण लाल जी, गौकुल स्थित प्रभु द्वारकाधीशजी को लेकर अहमदाबाद गये, वहाँ सुरक्षा न देख, उन्होंने महाराणा राजसिंह को पत्र लिख मूर्ति की सुरक्षा का आग्रह किया। महाराणा ने उन्हे ं आश्वस्त करते हुए श्री द्वारकाधीश जी को मेवाड ले आने का आग्रह किया और सुरक्षा का वचन दिया। विक्रम संवत् १७२७ में श्री द्वारकाधीश जी अहमदाबाद से मेवाड के सादडी गाँव में पधारे। सादडी से प्रतिमा के कूच होने पर महाराणा राजसिंह ने स्वयं उनकी अगवानी की और विक्रम संवत् १७२७ में आसोटिया गाँव में पधराया। महाराणा संग्राम सिंह द्वितीय ने विक्रम संवत् १७७६ में राजसमंद (रायसागर) के किनारे, श्री द्वारकाधीश जी का मंदिर गिरधरगढ के नाम से बनवाकर पाट बैठाया। औरंगजेब की धार्मिक विरोध की नीति के कारण श्री हरिराय महाप्रभुजी के सानिध्य में श्री विठ्ठलनाथ जी का विग्रह खमनोर होते हुये खेडा गाँव में पधाराया। गोसाई दामोदर लाल जी ने २६ अक्टूबर १६६९ ई. को मथुरा के निकट गिरिराज गोवर्धन पर्वत पर अवस्थित श्रीनाथ जी को लेकर आगरा की ओर प्रस्थान किया। गोसाई जी बूंदी, कोटा होते हुए पुष्कर, किशनगढ व कुछ समय पश्चात् जोधपुर के चोपासनी गाँव में पधारे, वहाँ से अपने काका गोविन्द जी (गोपीनाथ जी) को महाराणा के पास भेजा। महाराणा ने अपनी माता से मंत्रणा कर श्रीनाथ जी का मेवाड में आगमन, अपना अहोभाग्य मानते हुए सुरक्षा का वचन दिया और कहा ’’आप निश्चिंत रहें मेरे एक लाख राजपूतों के सिर कटने के बाद ही औरंगजेब श्रीनाथ जी की मूर्ति के हाथ लगा सकेगा, आप शीघ्रातिशीघ्र श्रीनाथ जी को मेवाड ले आवें‘‘। महाराणा के आग्रह से श्रीनाथ जी का विग्रह गोसाई दामोदर लाल जी के साथ मेवाड में लाया गया। २० फरवरी १६७२ ई. को मेवाड की सीमा पर महाराणा स्वयं श्रीनाथजी की पेशवाई करने पधारे और श्रद्धाभाव से उत्सव में सम्मिलित हुए। उदयपुर से १२ कोस उत्तर की ओर बनास नदी के पास सीहाड (नाथद्वारा) गाँव में मंदिर (हवेली) बनवा श्रीनाथ जी को पाट बैठाया। औरंगजेब ने अपनी कट्टर और पक्षपात पूर्ण धार्मिक नीति के अनुरूप २ अप्रैल १६७९ ई. को हिन्दुओं पर पुनः जजिया कर लगा दिया। जजिया सख्ती से वसूला जाने लगा। महाराणा राजसिंह ने जजिया का विरोध किया और बादशाह को एक कडा पत्र लिख भेजा।

महाराणा राजसिंह के अन्य राज्यों से सम्बन्ध

महाराणा राजसिंह एक दूरदर्शी और व्यवहार कुशल शासक थे, तत्कालीन परिस्थितियों में उन्होंने एक ओर जहाँ मुगल सत्ता से टकराने का निश्चय किया तो दूसरी तरफ पडोसी राज्यों के साथ मधुर सम्बन्ध बनाने के प्रयत्न किये। सैन्य शक्ति से उन पडोसी क्षत्रपों को जो मेवाड से पृथक अस्तित्व बनाए रखना चाहते थे, जैसे डुँगरपुर, बाँसवाडा, प्रतापगढ आदि को सैन्य शक्ति के बल पर अपना पक्षधर बना कर दूरदर्शिता से उनका उचित आदर-सत्कार कर अपना सहयोगी बनाया। महाराणा ने वैवाहिक सम्बन्धों को स्थापित कर पडोसी राज्यों से मधुर सम्बन्ध बनाये जैसे कुंवरपदे में महाराणा राजसिंह का बूंदी के शासक राव शत्रुसाल की बडी बेटी कुंवर बाई से विवाह, जैसलमेर, ईडर, किशनगढ आदि ठिकानों के साथ महाराणा के वैवाहिक संबंध थे। महाराणा ने अपनी बहिन का विवाह बीकानेर के युवराज अनूप सिंह से किया तथा अपनी पुत्री अजब कुंवर का विवाह बांधव के कुँवर भावसिंह के साथ किया। औरंगजेब द्वारा मारवाड को हस्तगत करने का प्रयास किया गया तब संकट की घडी में महाराणा राज सिंह ने मारवाड के शासक जसवंत सिंह के पुत्र महाराजा अजीत सिंह को बाल्यकाल में मेवाड में शरण देकर परस्पर सम्बन्धों को मजबूत किया। इस सम्बन्ध में उन्हें रणबांकुरे दुर्गादास राठौड जैसा सहयोगी मिला, जो मुगलों के साथ संघर्ष में हमेशा सहायक रहा। सिरोही के कुँवर उदयभान द्वारा अपने पिता अखेराज को कैद करने पर महाराणा ने राणावत रामसिंह को सेना के साथ सिरोही भेजा, मेवाड की सेना ने उदयभान को सिरोही से भगाकर अखेराज को पुनः गद्दी पर बिठा दिया, अपने मित्रों की रक्षा करके उनका सहयोग प्राप्त किया। महाराणा के पडोसी राज्यों से घनिष्ट संबंधों का परिचय इस बात से भी मिलता है कि राजसमंद झील की प्रतिष्ठा उत्सव के समय जोधपुर, आमेर, बूंदी, बीकानेर, रामपुरा, जैसलमेर, डूंगरपुर, रीवा आदि नरेशों को हाथी-घोडे, सरोपाव आदि भेंट में भिजवाये थे। इस तरह साम-दाम-दण्ड-भेद की नीति अपनाते हुए महाराणा ने अपने मित्र राज्यों की संख्या निरन्तर बढायी और यही कारण था कि वह दिल्ली की शक्तिशाली सत्ता से टकराने का साहस कर सके।


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