उदयपुर । महाप्रज्ञ विहार में आचार्यश्री शिवमुनिजी ने श्रावकों से कहा कि संसार एक सागर है जिस प्रकार सागर में लहरें उठ कर आपस में टकराती है और शांत होकर चली जाती है। ठीक उसी तरह से संसार में मनुश्य भी जन्म लेता है सुख ओर दुख की लहरों से टकराता है और अन्त में मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। संसार सागर में डूब रहे प्राणियों के बचने के लिए अगर कोई आधार है तो वह है धर्म।
उन्हने कहा कि जो धर्म में है असल में समृद्धि उसके पास है। सांसारिक समृद्धि तो मात्र एक अनुभव है। समृद्धि दो तरह से आती है एक तो पुण्य के द्वारा और दूसरी भीतर से। जो पुण्य के द्वारा समृद्धि आती है वह स्थायी नहीं होती। वह तो घटती बढती रहती है। उन्होंने कहा कि संसार में जन्म मरण के चलते हम अनन्तकाल से कई यौनियों में भटक रहे हं। धर्म को आज तक ठीक से समझने की कोशिश किसी ने नहीं की। क्या बाहरी कि्रयाएं, कर्म काण्ड, तंत्र-मंत्र, व्रत, उपवास, तप, साधना यही धर्म है। धर्म के कई प्रकार होते हैं। दृश्टा भाव में रहना, स्वयं में स्थिर रहना, सभी का मंगल चाहना और कर्ता भाव को छोडना भी धर्म हैं। जब तक हम कर्ता भाव को नहीं छोडेंगे धर्म स्वयं में आ ही नहीं सकता। पहले स्वयं के कर्मों को शुद्ध करो कर्ता अपने आप शुद्ध हो जाएगा। धर्मसभा में श्री शिरीषमुनिजी ने श्रावकों को सम्यकदृश्टि का ज्ञान कराया। चातुर्मास संयोजक विरेन्द्र डांगी ने बताया कि धर्मसभा में पूना,इन्दौर, जयपुर सहित देश के विभिन्न क्षेत्रों से श्रावक पहुंचे जिन्होंने प्रवचन लाभ के बाद आचार्यश्री का आशीर्वाद प्राप्त किया।
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