सिनेमा और साहित्य का जीवन से गहरा नाता है. सिनेमा और साहित्य की भाषा अलग-अलग है और ज़रूरी नहीं कि अच्छे साहित्य पर अच्छी फ़िल्में बनें. यह बात प्रसिद्ध कवि और वरिष्ठ पत्रकार मंगलेश डबराल ने राजस्थान विश्वविद्यालय के जनसंचार केंद्र में ‘सिनेमा और किताब: समीक्षा के उपकरण’ पर अपने विशेष व्याख्यान में कही. उन्होंने फ्रांस के चर्चित फिल्मकार गोदार्द का हवाला देते हुए कहा कि सिनेमा दुनिया का सबसे सुंदर धोखा है.
साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित हिंदी के वरिष्ठ कवि मंगलेश डबराल ने कहा कि सिनेमा और साहित्य दोनों ही समाज का प्रतिबिंबन करते हैं लेकिन दोनों के स्वरूप काफ़ी अलग हैं. सिनेमा में जहां दृश्य की भाषा होती है वहीं साहित्य चरित्र-चित्रण पर निर्भर होता है. सिनेमा डेढ़ या दो घंटे में तीस या पचास सालों के जीवन को दर्शाता है. सिनेमा एक लंबे समय की घटनाओं को कम समय के चित्रांकन में तब्दील कर देता है. सिनेमा एक परिघटना की तरह है जबकि साहित्य अकेलेपन को दूर करने का माध्यम है. उन्होंने कहा कि बंगाली फिल्में अधिकतर साहित्य पर आधारित हैं.
मंगलेश डबराल ने देश-दुनिया की तमाम बेहतरीन फिल्मों का उल्लेख करते हुए कहा कि हमारे हिंदी सिनेमा को दुनिया की फिल्मों के मुकाबले में अभी भी बहुत प्रगति करनी है. उन्होंने कहा कि कला-समीक्षक का काम नीर-क्षीर विवेक से दर्शकों या पाठकों के सामने कृति के मूल और जीवन के आयामों को उद्घाटित करना है. उन्होंने कहा कि मुंबइया फिल्मों को टकसाली सिनेमा की मानसिकता से बाहर आना होगा.
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