हम जिस संसार में रहते हैं वह अनन्त परिमाण वाला ब्रह्माण्ड है। यह हमारा स्वप्न नहीं है अपति हमारा संसार एक वास्तविकता है। हम आंखों से सूर्य व चन्द्र को तथा पृथिवी व इस पर भूमि, अग्नि, वृक्ष, जल, वायु, आकाश आदि पदार्थों को देखते हैं। क्या यह मिथ्या हैं? नहीं, यह मिथ्या कदापि नहीं हैं अपितु सत्य हैं। इनका अस्तित्व है और इसे इन्द्रियों के ज्ञान व अनुभव से सिद्ध किया जा सकता है। हम वायु से श्वास लेते हैं। यदि हम ऐसे स्थान पर हों जहां वायु न हो, तो हमारा दम घुटने लगता है और मृत्यु हो जाती है परन्तु यदि हम मृत्यु से कुछ समय पूर्व उस स्थान से वायु वाले स्थान पर आ जायें तो हम मृत्यु से बच सकते हैं। वायु में रहने वाले मनुष्य व किसी अन्य प्राणी की मृत्यु वायु के अभाव के कारण नहीं होती अपितु अन्य कारणों से होती है जो यदा-कदा व प्रायः मनुष्य के वश में नहीं होते। अस्पताल में एक रोगी भर्ती है। डाक्टर उसका उपचार करते हैं। अनेक प्रकार की दवा का प्रयोग किया जाता है परन्तु रोग दूर नहीं होता। इसका अर्थ यह होता है कि डाक्टरों को रोग व उसकी सही औषधि का ज्ञान नहीं होता। यदि होता तो किसी की भी मृत्यु न होती। इसी कारण मनुष्य को अल्पज्ञ भी माना जाता है। मनुष्य कितना भी ज्ञान प्राप्त कर ले वह अल्पज्ञ ही रहता है, सर्वज्ञ नहीं होता। आज भले ही विज्ञान ने बहुत कुछ जान लिया है परन्तु मनुष्य आज भी सर्वज्ञ नहीं है। सर्वज्ञ केवल परमात्मा है। इसका प्रमाण यह सृष्टि है। इसमें ज्ञान विज्ञान के जिन नियमों का व्यवहार देखा जा रहा है, वह सब ईश्वर के ज्ञान व सामर्थ्य से अस्तित्व में आये हैं। यदि ईश्वर न होता, यदि होता और सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान तथा इस सृष्टि विषयक ज्ञान व इसकी पूर्व रचना के अनुभव से युक्त न होता, तो कभी भी यह सृष्टि अस्त्ति्व में नहीं आ सकती थी। यह अच्छी बात है कि विज्ञान भी इस सृष्टि को सत्य एवं हकीकत मानता है, वेदान्तियों की तरह से इसे स्वप्नवत् नहीं मानता। वैज्ञानिकों का ईश्वर के अस्तित्व को न मानना उनका भ्रम है और वेद एवं वैदिक साहित्य के प्रति अज्ञान है।
यह सृष्टि किसने बनाई है? इसका उत्तर है कि इस सृष्टि को अनादि, नित्य, सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वव्यापक, सर्वातिसूक्ष्म, सर्वान्तर्यामी, सर्वज्ञ परमात्मा ने अपने ज्ञान व सामर्थ्य शक्ति से अपने पूर्व-कल्पों में सृष्टि उत्पत्ति के अनुभव के अनुसार बनाया है। ईश्वर ने सृष्टि को किस पदार्थ से बनाया है, वेद एवं वैदिक साहित्य इस प्रश्न का उत्तर देते हैं कि ईश्वर ने सृष्टि को इसके उपादान कारण, अनादि, जड़, सूक्ष्म, त्रिगुणात्मक - सत्व, रज व तम गुणों वाली कारण प्रकृति जो कभी अभाव को प्राप्त नहीं होती, जो ईश्वर के पूरी तरह से वश में है, उस उपादान कारण प्रकृति से बनाया है। प्रश्न होता है ईश्वर के हाथ, पैर, आंख, मन, बुद्धि आदि अवयव नहीं हैं तो वह इस सृष्टि की रचना कैसे कर सकता है? यह प्रश्न उचित नहीं है। परमात्मा का काम करने और मनुष्य के काम करने में अन्तर होता है। मनुष्य का आत्मा एकदेशी होता है जबकि परमात्मा सर्वव्यापक एवं सर्वशक्तिमान है। वह सृष्टि की उत्पत्ति से पूर्व की स्थिति तथा त्रिगुणात्मक प्रकृति के भीतर भी सर्वान्तर्यामीरूप से विद्यमान है। वह भीतर से ही प्रेरणा करके कारण प्रकृति से कार्य सृष्टि को बनाता है। हम आत्मा हैं और हमारा शरीर हमारी आत्मा से पृथक जड़ पदार्थों से बना हुआ है। यह शरीर अपने आप कोई काम नहीं करता। आत्मा मन को निर्देश देकर शरीर के सभी अंगों से उनके कार्य कराती है। शरीर में कुछ कार्य स्चचालित प्रक्रिया से होते हैं, जैसे श्वास-प्रश्वास की क्रिया, भोजन का पचना आदि। हम अपने हाथों सेयह लेख लिख रहे हैं। हाथ और इसकी उंगलियों को लिखने की प्रेरणा आत्मा कर रही है। लिखने का समस्त ज्ञान व शक्ति हमारी आत्मा में है। इसी प्रकार से परमात्मा प्रकृति के भीतर विद्यमान होकर उसे अपनी इच्छानुसार कार्य कराता व सृष्टि का निर्माण करता है। हमारी सृष्टि ईश्वर से ही बनी है, इसके अनेक तर्क व युक्तियां दिये जा सकते हैं।
ईश्वर चेतन पदार्थ होने से ज्ञानवान सत्ता है। ज्ञान के साथ कर्म व शक्ति जुड़ी होती है। जिस प्रकार से स्वस्थ शरीर वाले मनुष्य व प्राणी को देखकर व उसके ज्ञानादि गुणों से युक्त कार्यों को देखकर उसमें एक आत्मा के होने का ज्ञान होता है, उसी प्रकार इस संसार व परमाणु सहित इसमें विद्यमान हर पदार्थ में ज्ञानादि गुणों को देखकर इसके रचयिता के होने का ज्ञान होता है। यदि इन पदार्थों का रचयिता न होता तो क्या प्रकृति के सूक्ष्म परमाणु, जो कि जड़ हैं, ज्ञान आदि गुणों से युक्त इस सृष्टि को बना सकते थे? कदापि नहीं। अतः ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध है। दर्शनकार भी कहते हैं कि जिस सत्ता से यह संसार की रचना, पालन व प्रलय होता है, वह परमात्मा अवश्य है। उस सृष्टिकर्ता को ही ईश्वर कहते हैं। यदि वह न होता तो यह सृष्टि भी न होती। इससे भी ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध है। दर्शन ग्रन्थों में इस सिद्धान्त व मान्यता पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है।
ईश्वर ज्ञानवान सत्ता है तो उसने मनुष्यों को ज्ञान भी अवश्य दिया होगा। वेदों की परीक्षा करने पर यह ईश्वरीय ज्ञान के ग्रन्थ सिद्ध होते हैं। वेद संसार का सबसे प्राचीन ज्ञान है तथा पुस्तक रूप में भी वेद ही सबसे प्राचीन पुस्तकें हैं। वेदों की कोई भी बात तर्क व युक्ति के विपरीत न होकर सभी बुद्धिपूर्वक, ज्ञान व विज्ञान से युक्त हैं। वेदों की शब्द रचना भी संसार की अन्य भाषाओं में अद्वितीय है। ऋग्वेद के 8 वें मण्डल में तीन मन्त्र सृष्टि की उत्पत्ति पर प्रकाश डालते हैं। यह मन्त्र हैं ‘ओ३म् ऋतं च सत्यं चाभीदधात्तपसोऽध्यजायत। ततो रात्र्यजायत ततः समुद्रो अर्णवः।।1।। समुद्रादर्णवादधि संवत्सरो अजायत। अहो रात्राणि विदधद् विश्वस्य मिषतो वशी।।2।। सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्। दिवं च पृथिवीं चान्तरिक्षमथो स्वः।।3।।’ इन मन्त्रों की व्याख्या इस प्रकार है।
हे ईश्वर! तू जगदुत्पादक है। ईश्वर सब जगत का धारण एवं पोषण करने वाला है। वह सब जड़ और चेतन पदार्थों को अपने वश में रखने वाला व वश में करने में समर्थ है। ईश्वर अनादि सत्ता है अर्थात् ईश्वर का न तो आरम्भ है और न ही अन्त। उस ईश्वर के सर्वज्ञ विज्ञान में जैसा जगत को रचने का ज्ञान था, और जिस प्रकार उस ईश्वर ने इस कल्प से पहले वाले कल्पों में जगत् की रचना की थी, जैसे जीवात्माओं के पाप-पुण्य थे उनके अनुसार ही उसने पूर्व के सभी कल्पों में मनुष्यादि प्राणियो के देह बनाये थे। अब भी वह जीवात्माओं के पूर्वजन्मों के कर्मों वा पाप-पुण्यों के अनुसार ही मनुष्यादि प्राणियो के देह बनाता है। जैसे ईश्वर ने इस कल्प से पूर्वकल्पों में सूर्य व चन्द्र आदि लोक-लोकान्तर रचे थे, वैसे ही अपने उस अनुभव के अनुसार ईश्वर ने इस कल्प में भी सूर्य एवं चन्द्र आदि लोको ंको रचा है। कल्प के बारे में हमें यह ज्ञात होना चाहिये कि ईश्वर द्वारा सृष्टि की रचना आरम्भ करने से प्रलय काल तक और प्रलय काल की समाप्ति काल तक के समय को एक कल्प कहा जाता है। ऐसे अनन्त कल्प व्यतीत हो चुके हैं और ऐसे अनेक कल्प आते व जाते रहेंगे। हमारी आत्मा इस अवधि में जन्म व मरण तथा मोक्ष में कहीं रहेगी। सबसे अच्छा तो यही है कि हम मृत्यु पर विजय प्राप्त कर मोक्ष पा लें। यदि ऐसा नहीं करेंगे तो हम दुःखों व जन्म-मरण से निवृत्त नहीं हो सकेंगे।
इन तीन मंत्रों की व्याख्या में ऋषि दयानन्द ने बताया है कि संसार में जिस पृथिवी को हम देख रहे हैं, जैसा सूर्य और पृथिवी के मध्य में पोलापन है, जितने आकाश में लोक-लोकान्तर हैं, इन सबको ईश्वर ने रचा है। ईश्वर अनादि काल से सृष्टि की रचना करता चला आ रहा है और वर्तमान सृष्टि वा ब्रह्माण्ड की रचना भी ईश्वर के द्वारा ही की गई है। वही ईश्वर भविष्य में इस सृष्टि की प्रलय करेगा व उसके बाद पुनः पुनः रात व दिन की भांति प्रलय-रचना-प्रलय करेगा। एक महत्वपूर्ण बात यह है कि ईश्वर के सर्वव्यापक, अनन्त तथा एकरस होने से उसका ज्ञान एक समान रहता है, वह विपरीत नहीं होता और न उसमें कभी लेशमात्र भी न्यूनाधिक होता है। इसी कारण मन्त्र में ‘यथापूर्वमकल्पयत्’ का प्रयाग हुआ है।
इस संसार में रात्रि, दिवस, घटिका, पल और क्षण आदि जो वर्तमान हैं उन्हें भी ईश्वर ने सृष्टि के आरम्भ में अपने सहज स्वभाव से रचा है। ईश्वर ने किस वस्तु से इस संसार की रचना की है? इस प्रश्न का उत्तर है कि ईश्वर ने अपनी अनन्त सामर्थ्य से इस जगत् की रचना की है। ईश्वर में ज्ञान एवं कर्म की अनन्त सामर्थ्य है। इस सृष्टि का उपादान कारण त्रिगुणात्मक प्रकृति है। यह प्रकृति भी ईश्वर की सामर्थ्य व वश में है। इन सबके समन्वय से ईश्वर ने जीवात्माओं के कल्याण व उनके पूर्वकल्पों व जन्मों में किये कर्मों के सुख व दुःख रूपी फल देने के लिये संसार की रचना की है। ईश्वर ज्ञानमय है और उसकी सामर्थ्य अनन्त व कल्पनातीत है। अपनी उसी ज्ञान एवं अनन्त सामर्थ्य से ईश्वर ने सृष्टि के आरम्भ में चार वेदों ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद का ज्ञान अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा को दिया। वेद सब विद्याओं का खजाना वा कोष है। जैसे वेद इस सृष्टि में उपलब्ध हैं, ऐसा ही वेदों का ज्ञान ईश्वर ने पूर्वकल्पों में सृष्टि के आरम्भ में दिया था और आगे भी इसी प्रकार से देगा। हमारी यह सृष्टि पूर्वकल्प के समान उत्पन्न हुई है। मूल व कारण प्रकृति त्रिगुणात्मक अर्थात् सत्व, रज और तमोगुण से युक्त है। इसके नाम अव्यक्त, अव्याकृत, सत्, प्रधान और प्रकृति हैं। यही मूल प्रकृति स्थूल कार्यरूप जगत का उपादान कारण है। इसी कारण रूप प्रकृति से ईश्वर ने पूर्वकल्प के समान सृष्टि को बनाया है। सृष्टि में अनन्त बार प्रलय हुई हैं व भविष्य में भी होंगीं, वह सब एक समान होती हैं, उसमें किसी प्रकार का अन्तर नहीं होता। वह प्रलय भी एक हजार चतुर्युगी अर्थात् 4.32 अरब वर्ष की होती है। ऋग्वेद का प्रमाण है कि जब जब सृष्टि की रचना होकर यह अस्तित्व में आती है, तब इस रचना से पूर्व सब आकाश अन्धकाररूप रहता है। उस अन्धकार में सब जगत के पदार्थ अर्थात् कारण प्रकृति एवं सभी जीवात्मायें ढके रहते हैं। उसे प्रलय या महारात्रि भी कहते हैं। एक समुद्र वा महासमुद्र पृथिवी का भाग है। आकाशस्थ मेघमण्डल भी महासमुद्र होता है। इनकी उत्पत्ति भी ईश्वर से ही हुई है। ईश्वर द्वारा ब्रह्माण्ड वा समस्त लोक लोकान्तरों की रचना कर लेने के बाद संवत्सर अर्थात् क्षण, मुहर्त्त, प्रहर आदि काल भी पूर्व सृष्टियों के समान ईश्वर ने उत्पन्न किया है। ईश्वरीय ज्ञान चार वेद से लेकर पृथिवी-पर्यन्त जो यह जगत् है, वह सब ईश्वर की नित्य सामर्थ्य से ही प्रकाशित हुआ है। ईश्वर सब जगत् को उत्पन्न करके, सबमें व्यापक होकर अन्तर्यामिरूप से सबके पाप-पुण्यों को देखता हुआ, पक्षपात छोड़कर सत्य न्याय से सबको यथावत् सुख व दुःख रूपी फल देता है।
यह सृष्टि रचना का वैदिक दृष्टिकोण है। हमें इस वैदिक विचारधारा में ज्ञान व विज्ञान का पूर्ण समावेश दृष्टिगोचर होता है। महर्षि दयानन्द ने वैदिक मान्यताओं पर आधारित महत्वूपर्ण ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश लिखा है। इसके आठवें समुल्लास में सृष्टि की उत्पत्ति आदि विषयों पर विस्तार से प्रकाश डाला है। सभी जिज्ञासु पाठकों को इसका अनेक बार पाठ करना चाहिये। इससे उनकी अनेक जिज्ञासाओं का समाधान हो सकता है। हम यहां मनुष्योत्पत्ति विषयक ऋषि के कुछ महत्वपूर्ण विचार प्रस्तुत कर रहे हैं। वह लिखते हैं ‘(प्रलय के बाद) जब सृष्टि का समय आता है तब परमात्मा उन परमसूक्ष्म पदार्थों (त्रिगुणात्मक प्रकृति) को इकट्ठा करते हैं। उस को प्रथम अवस्था में जो परमसूक्ष्म प्रकृतिरूप कारण से कुछ स्थूल होता है उस का नाम महतत्व और जो उस से कुछ स्थूल होता है उस का नाम अहंकार और अहंकार से भिन्न-भिन्न पांच सूक्ष्मभूत श्रोत्र-त्वचा-नेत्र-जिह्वा-घ्राण, पांच ज्ञानेन्द्रियां वाक्-हस्त-पाद-उपस्थ-गुदा, ये पांच कर्म-इन्द्रिया हैं और ग्यारहवां मन कुछ स्थूल उत्पन्न होता है। उन पंच तन्मात्राओं से अनेक स्थूलावस्थाओं को प्राप्त होते हुए क्रम से पांच स्थूलभूत जिन को हम लोग प्रत्यक्ष देखते हैं उत्पन्न होते हैं। उन से नाना प्रकार की ओषधियां, वृक्ष आदि, उन से अन्न, अन्न से वीर्य और वीर्य से शरीर होता है। परन्तु आदि सृष्टि मैथुनी नहीं होती। क्योंकि जब स्त्री-पुरुषों के शरीर परमात्मा बना कर उन में जीवों का संयोग कर देता है तदनन्तर मैथुनी सृष्टि चलती है।
वेद सृष्टि के आदि व प्राचीनतम ग्रन्थ हैं। इन ग्रन्थों में सृष्टि का जो वर्णन है वह ईश्वर व ईश्वर के साक्षात्कृत धर्मा ऋषियों का किया हुआ होने सर्वथा सत्य एवं निर्भ्रान्त है। सब मनुष्यों को इसी को स्वीकार करना चाहिये। वेदेतर मतों में सृष्टि विषयक ज्ञान अपूर्ण, असत्य, भ्रान्त एवं विज्ञान की दृष्टि से अस्वीकार्य श्रेणी का है। धन्य हैं हमारे सभी प्राचीन ऋषि, दर्शनकार, उपनिषदकार, महाराज मनु एवं ऋषि दयानन्द जिनकी कृपा से हमें ईश्वर व जीवात्मा सहित सृष्टि की उत्पत्ति का ज्ञान प्राप्त है। सृष्टि का ज्ञान ही नहीं अपितु सृष्टि किसने व क्यों उत्पन्न की इसका भी सत्य व तर्कसंगत समाधान वेद एवं वैदिक साहित्य में मिलता है। जन्म व मरण रूपी दुःखों से मुक्ति के साधनों का ज्ञान भी वैदिक साहित्य एवं सत्यार्थप्रकाश के नवें समुल्लास में उपलब्ध है। हमारा वा प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है कि वह ईश्वर प्रदत्त वेद ज्ञान को पढ़े और उसके अनुसार ही आचरण करे। वही सब मनुष्य का परम धर्म और परम कर्तव्य है। हमारे जीवन का उद्देश्य प्रकृति के साधनों का अधिक से अधिक भोग न होकर न्यूनतम त्यागपूर्वक भोग और श्रेष्ठ कर्म - ईश्वरोपासना, यज्ञ-अग्निहोत्र तथा परोपकार आदि करना है। मत-मतान्तर इस कार्य में बाधक बने हुए हैं जिससे संसार में अशान्ति एवं दुःख का वातावरण है। ईश्वर सबको सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा करे, यह हमारी उससे प्रार्थना करते हैं।
-मनमोहन कुमार आर्य
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