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सफ़र में अकेले

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21 Feb 24
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डॉ. सुशील कुसुमाकर

सफ़र में अकेले
सफ़र में अकेले
 
सफ़र अंतहीन-सा लम्बा
मंजिल कब मिलेगी, मालूम नहीं,
और राह भी ऊबड़-खाबड़।
ऊब होने लगती है अकेले चलते-चलते।
अनेक खयालात आते हैं मन में
कभी उम्मीद जगती है
तो कभी भर जाता है हताशा से,
चेहरा चमक उठता है छोटी-सी कामयाबी से
तो मायूस हो जाता है जरा-सी ठोकर से,
पैर कभी तेज़-तेज़ चलते हैं
तो कभी थक कर थम जाते हैं,
मन विचलित हो जाता है
उठ-सा जाता है ख़ुद से भरोसा,
हंसी-खुशी, सुकून कहीं खो-से जाते हैं
रात में नींद गायब हो जाती है आंखों से।
अकेले होने से हमेशा
बनी रहती है संभावनाएं
टूट कर बिखरने की।
अकेला होना अभिशाप नहीं,
वरदान है...!
ऐसे में सोचते हैं, विचारते हैं
पहचानते हैं अपने-पराए,
कोशिश करते हैं
ख़ुद को जानने की,
खामियों को दूर करने की...!!

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