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“भारत का गौरवमय अतीत, इसके पतन के कारण एवं मूर्तिपूजा का इतिहास”

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01 Jul 19
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“भारत का गौरवमय अतीत, इसके पतन के कारण एवं मूर्तिपूजा का इतिहास”

ऋषि दयानन्द सरस्वती जी ने सन् 1874 में सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ की रचना की थी। इसका प्रकाशन सन् 1875 में हुआ था। उन दिनों ऋषि दयानन्द हिन्दी भाषा सीख रहे थे। उनकी मातृभाषा गुजराती थी और उनका पठन-पाठन संस्कृत भाषा में हुआ था। वह संस्कृत में ही सम्भाषण करते थे। अतः सत्यार्थप्रकाश के प्रथम संस्करण की हिन्दी भाषा अधिक प्रभावशाली नहीं थी। इस कारण उन्होंने आठ वर्ष बाद सन् 1883 में इस सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ को संशोधित कर उसका नया संस्करण प्रकाशित किया था। हम इस लेख में सत्यार्थप्रकाश के प्रथम संस्करण से भारत के गौरवमय अतीत तथा भारत में मूर्तिपूजा के इतिहास विषयक तथ्यों को प्रस्तुत कर रहे। इस लेख में हमने कुछ स्थानों पर भाषा में सुधार का प्रयत्न भी किया जिससे पाठकों को पढ़ने में कुछ सुविधा हो। सत्यार्थप्रकाश के प्रथम संस्करण के ग्यारहवें समुल्लास से ऋषि दयानन्द जी के विचार प्रस्तुत हैं।

 

                सरस्वतीदृषद्वत्योर्देवनद्योर्यदन्तरम्

            तं देवनिर्मितं देशमार्यावर्त्तं प्रचक्षते।1।।  -मनुस्मृति 2.17

 

                गुजरात और पंजाब के पश्चिम भाग में जो सरस्वती नदी है, उससे लेकर नैपाल के पूर्वभाग की नदी से समुद्र तक इन दोनों के बीच में जो देश है, सो आर्यावर्त्त देश है और वह (सरस्वती नदी) देवनदी कहलाती हैं अर्थात् दिव्य देश के प्रान्त भाग में होने से देव-नदी इसका नाम है। इसलिये (आर्यावर्त) देश देव निर्मित है अर्थात् दिव्य गुणों से रचित है। भूगोल के बीच में (विश्व में) ऐसा श्रेष्ठ देश कोई नहीं है जिस देश में सब श्रेष्ठ पदार्थ होते हैं, छः ऋतु यथावत् वर्तमान होती हैं और सुवर्ण रत्न पैदा होते हैं। इस देश में जिसका राज्य होता है, (यदि) वह दरिद्र हो तो भी धन से पूर्ण हो जाता है। इसी हेतु इसका नाम आर्यावर्त्त है। आर्य नाम श्रेष्ठ मनुष्यों का है और श्रेष्ठ पदार्थों से युक्त अर्थात् आवर्त है। इस हेतु इस देश को आर्यावर्त्त कहते हैं।

 

                एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः

            स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः।।2।।  -मनुस्मृति 2.20

 

                इस देश में अग्रजन्मा, सब श्रेष्ठ गुणों से सम्पन्न जो पुरुष उत्पन्न होवें, उनसे सब भूगोल की पृथिवी के मनुष्य शिक्षा अर्थात् विद्या तथा संसार के सब व्यवहारों को यथावत् जानें। इससे यह जाना जाता है कि प्रथम इस (आर्यावर्त-भारत) में मनुष्यों की सृष्टि हुई थी। पीछे सब द्वीप-द्वीपान्तर में सब मनुष्य फैल गए। पृथिवी में जितने मनुष्य हैं, वे इस देश के विद्वानों से शिक्षा व विद्यादि ग्रहण करते थे। सब देशों की भाषाओं का मूल संस्कृत है। यह संस्कृत भाषा आर्यावर्त ही में सदा से चली आती है। आजकल भी आर्यावर्त में संस्कृत का व्यवहार कुछ-कुछ देखने में आता है फिर भी सब देशों से (आर्यावर्त-भारत में) संस्कृत का प्रचार अधिक है। जर्मनी और विलायत आदि देशों में संस्कृत की पुस्तकें इतनी नहीं मिलती जितनी कि आर्यावर्त देश में मिलती हैं। यदि किसी देश में संस्कृत की बहुत पुस्तकें होंगीं सो आर्यावर्त ही से गई होंगी, इसमें कुछ सन्देह नहीं। इस देश से मिश्र देश वालों ने पहिले विद्या ग्रहण की थी। उससे यूनान देश, उससे रूम, फिर रूम से फिरंग-स्थान आदि देशों में विद्या फैली है। परन्तु संस्कृत के बिगड़ने (अपभ्रंस) से गरीश (ग्रीस), लाटीन, अंग्रेज और अरब देश वालों की (भिन्न-भिन्न) भाषायें बन गईं है। इस विषय में अधिक लिखना कुछ आवश्यक नहीं है क्योंकि इतिहास पढ़ने वाले सब जानते हैं और ज्ञात होता है कि एक गोल्ड्स्टकर साहेब ने पहिले ऐसा ही निश्चय किया था कि जितनी विद्या वा मत भूगोल में फैले हैं, वे सब आर्यावर्त ही से लिए गए हैं। काशी में वालेण्टेन् साहेब ने यही निश्चय किया है कि संस्कृत सब भाषाओं की माता है। दाराशिकोह बादशाह ने भी यह निश्चय किया है कि जो विद्या है सो संस्कृत में ही है। उनका कहना है कि मैंने सब देशों की भाषाओं की पुस्तकें देखी तो भी मुझको बहुत से सन्देह रह गए, परन्तु जब मैंने संस्कृत भाषा के ग्रन्थों को देखा तब मेरे सब सन्देह निवृत्त हो गए और मुझको अत्यन्त प्रसन्नता हुई। काशी में जो मान मन्दिर रचा है, उसमें महाराज सवाई मानसिंह जी ने खगोल की कला और यन्त्र ऐसे रचे थे कि जिस में खगोल का सब वर्णन देख पड़ता था परन्तु आजकल उसकी मरम्मत न होने से वह कला यन्त्र बहुत बिगड़ गए हैं। इस पर भी वह कुछ-कुछ समझ आता है। आजकल महाराज सवाई रामसिंह जी ने कुछ मरम्मत उस कला-यन्त्र स्थान की कराई है। यदि वह मान मन्दिर कला यन्त्र की भी मरम्मत आदि करावेंगे तो वह कुछ काल तक बना रहेगा, अन्यथा नहीं।

 

                जबसे महाभारत युद्ध हुआ तब से आर्यावर्त की बुरी दशा आई है सो नित्य-नित्य बुरी ही दशा होती जाती है। उस महाभारत युद्ध में अच्छे-अच्छे विद्यावान् राजा और ब्राह्मण लोग प्रायः मारे गए। फिर कोई राजा पूर्ण विद्या वाला इस देश में नहीं हुआ। जब राजा, विद्वान् और धर्मात्मा नहीं हुए, तब विद्या का प्रचार भी नष्ट होता चला गया। फिर कुछ काल बाद राजा व लोग आपस में लड़ने लगे, क्योंकि जब विद्या नहीं होती तब ऐसे ही बहुत प्रमाद होते हैं। आपस के संघर्ष में जो कोई प्रबल हुआ, उसने निर्बल का राज छीन के उसको मारा। फिर प्रजा में भी गदर होने लगा। जहां जिसने जितना पाया, उसका वह राजा वा जमींदार बन बैठा। फिर ब्राह्मण लोगों ने भी विद्या का परिश्रम छोड़ दिया। पढ़ना-पढ़ाना भी नष्ट होता चला गया। जब ब्राह्मण लोग विद्याहीन होते चले गये, तब क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र भी विद्याहीन होते चले गये। केवल दम्भ, कपट और छल ही से व्यवहार करने लगे। फिर जितने अच्छे काम होते थे वे सब बन्द होते चले गये। वेदादि विद्याओं का प्रचार भी बहुत थोड़ा होता गया।

 

                ऐसे समय में ब्राह्मण लोगों ने विचार किया कि आजीविका की रीति निकालनी चाहिए। उन्होंने सम्मति करके यही विचार किया कि जो ब्राह्मण वर्ण में उत्पन्न होता है वही देव है, वही सबका पूज्य है। सत्य यह है कि ब्राह्मण वर्ण जन्म से नहीं होता अपितु पूर्ण विद्या से होता है। यह वर्णाश्रम धर्म की सनातन रीति है। ऐसा ही ऋषि मुनियों की पुस्तकों में भी लिखा है। उन ब्राह्मणों ने विद्यादिक गुणों से तो वर्ण व्यवस्था नहीं रक्खी, किन्तु कुल में जन्म होने से वर्ण व्यवस्था प्रसिद्ध कर दी। फिर वह जन्म ही से ब्राह्मणादिक वर्णों का अभिमान करने लगे। ऐसी स्थिति में विद्यादि गुणों में सबका पुरुषार्थ छूटा। विद्या आदि कार्यों के अभ्यास के छूटने से प्रायः राजा और प्रजा में मूर्खता अधिक-अधिक होने लगी। फिर उन्हीं से ब्राह्मण लोग अपने चरण और शरीर की पूजा कराने लगे। जब (ब्राह्मणों की) पूजा होने लगी तब उनमें अत्यन्त अभिमान होने लगा। उन विद्याहीन राजाओं को और प्रजास्थ पुरुषों को ब्राह्मणों ने वशीभूत कर लिया। यहां तक की सोना, उठना और कोस दो कोस तक जाना, वह भी ब्राह्मणों की आज्ञा के विना नहीं करना। जो कोई करेगा सो पापी हो जायेगा। फिर शनैश्चरादि ग्रह और नाना प्रकार के भूत प्रेतादिकों का जाल ब्राह्मण अन्य मनुष्यों के ऊपर फैलाने लगे और वे मूर्ख होने से मानने भी लगे। इसके बाद राजा लोगों को ऐसा निश्चय सब लोगों से मिल के कराया कि ब्राह्मण लोग कुछ भी करें, परन्तु इनको दण्ड न देना चाहिए। जब दण्ड नहीं होने लगा, तब ब्राह्मण लोग और क्षत्रिय आदि भी अत्यन्त प्रमाद करने लगे। फिर यह ब्राह्मण लोग पूर्व हो चुके बड़े-बड़े ऋषि मुनि और ब्रह्मा आदि के नामों से श्लोक और ग्रन्थ रचने लगे। अपने ग्रन्थों में उन्होंने प्रायः यही बात लिखी कि ब्राह्मण सब का पूज्य और सदा अदण्ड्य है। फिर अत्यन्त प्रमाद और विषयासक्ति से विद्या, बल, बुद्धि, पराक्रम और शूरवीरता नष्ट हो गई और परस्पर अत्यन्त ईर्ष्या हो गई। किसी को कोई देख नहीं सकता था। कोई किसी का सहायक नहीं रहा। सब परस्पर लड़ने लगे।

 

                यह बातें चीन आदि देशों में रहने वाले जैनियों ने सुनी। कुछ जैनी व्यापार आदि करने इस देश में आते थे। उन्होंने यह बातें प्रत्यक्ष देखीं। फिर जैनियों ने विचार किया कि इस समय आर्यावर्त देश में सुगमता से राज्य हो सकता है। वे यहां आए और आर्यावर्त में राज्य भी करने लगे। फिर धीरे-धीरे बोधगया में राज्य जमा के देश-देशान्तर में फैलाने लगे। यह जैनी लोग वेदादिक संस्कृत पुस्तकों की निन्दा करने लगे और अपनी पुस्तकों के पठन-पाठन का प्रचार तथा अपने मत का उपदेश भी करने लगे। सो इस देश में विद्या के नहीं होने से बहुत मुनष्यों ने उनके मत को स्वीकार कर लिया परन्तु कन्नौज, काशी, पूरब, दक्षिण और पश्चिम देश के पुरुषों ने स्वीकार नहीं किया था। यह लोग बहुत थोड़े ही थे। यह लोग वेदादिक पुस्तकों का पठन और पाठन करते और कराते थे। फिर इन जैनियों ने वर्णाश्रम व्यवस्था और वेदोक्त, कर्मों को मिथ्या-मिथ्या दोष लगा के बहुत अश्रद्धा और अप्रवृत्ति करा दी। यज्ञोपवीत आदि कर्म भी प्रायः नष्ट हो गया। इन्होंने जो-जो वेदादि और पूर्व इतिहासों के पुस्तक पाये उनका प्रायः नाश कर दिया जिससे कि इनको पूर्व अवस्था का स्मरण भी न रहे। फिर जैनों का राज्य इस देश में अत्यन्त जम गया। जब जैन भी बड़े अभिमान में हो गए और कुकर्म, अन्याय भी करने लगे क्योंकि सब राजा और प्रजा उनके मत में ही हो गए, फिर उनको डर वा शंका किसी की न रही। अपने मतवालों को अच्छे-अच्छे अधिकार देकर उनकी प्रतिष्ठा करने लगे और जो वेदादि ग्रन्थों को पढ़ते थे तथा उनमें कहे कर्मों को करते थे, उनकी अप्रतिष्ठा करने लगे। अन्याय से भी उनके ऊपर जाल स्थापन करने लगे। अपने मत के पण्डित वा साधु की बड़ी प्रतिष्ठा करने लगे, सो आज तक भी ऐसा करते हैं। इन्होंने स्थान-स्थान में बहुत से बड़े-बड़े मन्दिर रच लिए और उनमें अपने आचार्यों की मूर्ति स्थापन कर दी तथा उनकी अत्यन्त पूजा भी करने लगे। सो जैनों के राज्य ही से मूर्ति पूजन चला, इसके पहले न था। महाभारत युद्ध के पहिले ऋषि मुनियों के किए जितने भी प्राचीन ग्रन्थ हैं, उनमें मूर्तिपूजन का लेशमात्र भी कथन नहीं है। इससे दृढ़ निश्चय से जाना जाता है कि इस आर्यावर्त देश में मूर्तिपूजन नहीं था, किन्तु जैनों के देश में राज्य होने से ही चला है।

 

                आर्यसमाज के सभी अनुयायी ऋषि दयानन्द द्वारा प्रस्तुत किये गये उपर्युक्त ऐतिहासिक तथ्यों से परिचित हैं। यदि कुछ पाठकों को इनका ज्ञान नहीं है तो वह इस लेख के तथ्यों से लाभान्वित हो सकते हैं। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

 


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