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"हरित पगडंडी पर"

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08 May 25
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 "हरित पगडंडी पर"

( मैसूर, ऊटी, कोडईकनाल,बेंगलुरु,गोवा के यात्रा - वृतांत )
हरित पगडंडी पर" पुस्तक  लेखिका डॉ. कृष्णा कुमारी की दक्षिण भारत में की गई
मैसूर, ऊटी, कोडईकनाल,बेंगलुरु,गोवा के यात्रा-वृतांत  पर लिखी गई है। बहुत ही साधारण बोल-चाल की सरल भाषा में लिखी पुस्तक की विशेषता इसका पानी की तरह प्रवाहमान वर्णन का होना। वृतांत इतना रोचक है कि पाठक को बांध लेता है और एक बार पढ़ना शुरू करता है तो पूरा पढ़ कर ही छोड़ता है। कई जगह इनकी साहित्यिक वृत्ति की झलक भी देखने को मिलती है। चाहे रेल या बस की यात्रा हो, किसी होटल या छोटे से ढाबे पर स्वाद का आनंद, पर्यटक स्थल को देखना, सभी प्राकृतिक दृश्यों, अजनबी लोगों से मिलना-जुलना, बाजार घूमना आदि सभी का सजीव वर्णन इस प्रकार से किया है, लगता है पाठक भी साथ-साथ यात्रा कर रहा हो ।
        यात्रा वृतांत पुस्तक का प्रथम अध्याय " हरित पगडंडी पर" कोटा से कर्नाटक पहुंचने  और प्लेटफॉर्म पर मैसूर का टिकट लेकर मैसूर की गाड़ी में बैठने तक के सफर की  कहानी है। ट्रेन में रास्ते में हुई तमाम घटनाओं और बाहरी दृश्यों का मनोरम शब्द चित्र का गूंथन बेहद  रोचक  है। नर्सिंग के छात्रों का घर लौटना, उनका मनोविनोद, उनसे बतियाना, महिलाओं से शेरों शायरी की बातें और एक ऊपर की बर्थ पर बुजुर्ग के किस्से यात्रा के यादगार लम्हों की
बानगी पढ़ कर लगता है लेखिका की पैनी नजरों से कुछ भी छूटा नहीं है और यात्रा का भरपूर आनंद लिया है।  हां ! पहली बार बेटी स्वप्निल के साथ अकेले इतनी लंबी ट्रेन यात्रा करने का डर भी  सफर सुहाना होने से काफ़ूर हो चुका था। " यात्रियों ने कोच की लाइट बंद कर दी। कुछ देर बाद साइड वाली ऊपर की बर्थ पर एक काफी बुजुर्ग पुरुष सो रहे थे। वो उठे और लाइट जलाई, फिर टॉयलेट से आकर लेट गए। कुछ देर बाद फिर उन भद्र पुरुष ने लाइट जला दी। उसी कोच में 8-10 बैंगलोर में पढ़ने वाले कोटा-जयपुर के स्टूडेंट सो रहे थे। उनमें से एक उठा और उन महाशय से बोला, बाबा लाइट बंद कर दो, ताकि हम सब सो सकें। वे बोले, मुझे बार-बार खांसी आती है, मुझे कई-कई बीमारियाँ हैं। किन्तु बाबा, लाइट का खांसी से क्या संबंध है? आप अंधेरे में भी तो खांस सकते हैं। यह संवाद सुन कर सारे यात्री जो जगे हुए थे, हँस पड़े। आखिर उन महाशय ने बताया कि मुझे टॉयलेट के लिए बार-बार उतरना पड़ता है व लाइट नीचे होने के कारण मैं कैसे जलाऊँगा। काफी बुजुर्ग हूँ, गिर सकता हूँ। उनके दुख को समझ कर उस विद्यार्थी ने रात भर के लिए अपनी नीचे वाली बर्थ उनको दी व स्वयं ऊपर जाकर सो गया। तब जाकर सभी यात्रीगण सो सके। " ( पृष्ठ 6) मनोविनोद के साथ यह दृष्टांत हमें सहयात्री की मदद करने की सीख भी देता है।
      " दूसरी रात को अच्छी नींद आ गई। अगले दिन हम आंध्रप्रदेश में सफर कर रहे थे। यहाँ दूर-दूर तक सूरजमुखी से भरे हुए खेत लहलहा रहे थे। फसलों में फूल आ चुके थे। दूर से ऐसे लग रहे थे जैसे कि हमारे यहाँ सरसों के खेत लगते हैं। ऐसा लग रहा था मानो पीला मखमल बिछा हो। बहुत ही मनोरम लगा यह दृश्य भी। मन में आ रहा था कि किसी स्टेशन पर उतर कर दो-चार फूल तोड लाएँ। बीच-बीच में बड़ी बड़ी चट्टानें भी कम आकर्षक नहीं थीं। ये सब प्रकृति की लीला है। " ( पृष्ठ 7) चलती ट्रेन से देखे गए दृश्य का इतना सुंदर वर्णन लेखिका की कल्पना और प्रकृति के प्रति उनके सौंदर्य बोध का स्वयं परिचायक है।
       मैसूर के पर्यटन स्थलों को देखने और वहां के सामान्य जनजीवन की स्मृतियों को संजोए हैं दूसरा अध्याय में है मैसूर यात्रा वृतांत। रात करीब 9.30 बजे जब ट्रेन मैसूर स्टेशन पहुंची तो इनके पति श्रीमान स्वागत में तैयार मिले। उस दिन खाने की कुछ समस्या रही जिस पर भूख को ले कर काफी कुछ उद्धरण लिखते हुए भोजन और भूख का महत्व भी बता दिया। मैसूर भ्रमण में बस का डेढ़ घंटे इंतज़ार के समय को यात्रियों द्वारा समय पास करने का भी वर्णन रोचकता लिए है। 
       मैसूर का पर्यटन सफर जगमोहन प्रसाद अथवा जया चामरा जेंद्र आर्ट गैलरी से शुरू हुआ । " यहाँ की कलाकृतियाँ, पेंटिंग्स देखते ही बनती हैं। प्राचीन राजा-महाराजाओं के पोट्रेट्स, उनके सजीव चित्रांकन, उनके रंग-संयोजन, छाया-प्रकाश का संतुलन कलाकारों की कला के प्रति पूर्णतः समर्पण को ज्जाहिर करता है। हम कला के इन चितेरों के प्रति नतमस्तक हुए बिना नहीं रह सके। इस गैलेरी का प्रमुख आकर्षण है वहाँ लगी हुई विशालकाय पैंडलम घडी। जो प्राचीन कला एवं तकनीक का बेजोड नमूना है। दस बजे इसका विशेष आकर्षण व तकनीक देखने के लिए हम लोगों को कुछ प्रतीक्षा करनी पड़ी। इसके अंदर सैनिकों का गोलाकार बना हुआ है। दस बजते ही ये सैनिक गोले के अंदर चलायमान होते हैं। तब दांतों तले अंगुली दबाए बिना नहीं रहा जा सकता। अच्छे रख-रखाव होने के कारण आज तक यह घड़ी सुचारु रूप से चल रही है एवं प्रतिदिन हजारों दर्शकों के आकर्षण का प्रमुख केंद्र बिंदु बनती है। यह घड़ी फ्रांस से लाई गई है। रवि वर्मा व निकोलस राय की बनाई तस्वीरों में आधुनिक शैली व नयापन है। दूसरी मंजिल पर हाथ में बेहद लुभाता सांध्य दीप लिए एक महिला की पेंटिंग तो ग़ज़ब ढाती है। इस कमरे में बत्ती नहीं जलती। अँधेरे में ही इसका सौंदर्य दीप्तिमान होता है। ऐसा लगता है कि दीपक लेकर यह महिला अपनी और ही बढ़ रही है। तस्वीर में इस तरह से उजाला दिखाया गया है कि सचमुच कमरे में उजास प्रतीत होता है। एस.एल. हेल्डर की यह बेजोड़ रचना है, कला संसार की अद्भुत धरोहर। कहते हैं कि 1861 में कृष्ण राजा बदियार के समय जगमोहन प्रासाद बना था जिसे 1915 में कला-कृतियों से संवार कर आर्ट गैलरी बनाई गई।" ( पृष्ठ 14 - 15 )
         सफर आगे बढ़ता हुआ पहुंचे चामराजेंद्र जूलॉजिकल गार्डन। " चिड़ियाघर तो कई देखे हैं लेकिन इतना विशाल नहीं देखा और न ही इतना खुला हुआ। लगभग 31 हेक्टेयर भूमि में फैला हुआ, खुले आसमान के नीचे इस चिड़ियाघर में घूमते हुए कुछ-कुछ अहसास जंगल में घूमने जैसा हो रह था। जैसे जंगल में ही हम इन पशु-पक्षियों से साक्षात्कार कर रहे हैं। वहीं रंग-बिरंगे सैंकड़ों किस्म के मोर, कबूतर, तोता, मैना, चिड़ियाएँ, उछल-कूद करते बंदर, कुलांचे भरते हिरण, बारहसिंहे, जिराफ़ यानी पशु-पक्षियों का मेला एवं उनकी अनेक प्रजातियाँ यहाँ देखने को मिलीं, वो भी ज्यादातर प्रकृति के बीच में। इन पशु-पक्षियों की मासूम शरारतों व हरकतों के तो कहने ही क्या, बहुत अच्छा लग रहा था, लेकिन इतना बड़ा क्षेत्र कि घूमते-घूमते पैरों में दर्द सा होने लगा, उधर बस वाले ने एक घंटे का ही वक़्त दिया था सो जल्दी-जल्दी चलने से घबराहट भी होने लगी थी। कहते हैं कि यहाँ लगभग 1500 पशु-पक्षी विचरते हैं। ( पृष्ठ 15 )
       यहां से चामुंडा देवी और पहाड़ी पर स्थित नंदी हिल्स के दर्शन कर राजभवन देखने गए।
" राजमहल के कण-कण में कंचन दमक रहा था। ऐसा मन हो रहा था कि इस सारे सौंदर्य को पलकों के भीतर समेट लें। कभी हम ऊपर देखते तो कभी दाएं, कभी बाएं, शुक्र है खुदा का कि प्रशासन ने इस अनमोल धरोहर की सार-संभाल तो कर रखी है। साथ ही पर्यटकों के लिए द्वार खोल रखे हैं। यहाँ का स्थापत्य अलंकरण विश्व में अपना सानी नहीं रखता।
यहाँ अंदर जाते ही बाईं तरफ 18 कैरेट के सोने का गिलट किया मंदिर का शिखर है।  यहाँ ब्रिटिश मुर्तियाँ, पुराने राजमहल का मॉडल, महाराजा का हौदा जो 84 किलोग्राम 24 कैरेट के सोने से रंगीन रत्न-जडित, बैटरी से चलने वाली लाल हरी ट्रैफिक सिगनल प्रदर्शित है। रवि वर्मा द्वारा बनाया दशहरे उत्सव का चित्र बेजोड़ है। साथ ही रंगीन शीशों के मोर, झाड़ फानूस, पीतल के स्तंभ, महाराजा व लार्ड माउंटबैटेन की चांदी की कुर्सियाँ विशेष आकर्षण हैं। दूसरी मंजिल पर दरबार का हॉल है 47×13 मीटर, हीरे-मोतियों से जड़ा 280 किलोग्राम सोने का रत्न सिंहासन है, इस पर देवी-देवताओं की अनेक मूर्तियाँ खुदी हुई हैं।  इस दरबार में लोहे के खंभे, झाड़ फानूस, नक्काशी की गई कांच की खिड़कियां, गैलरी के तैलचित्र, चंदन की लकड़ी से बने असबाब पत्र, शिवाजी के बाघनल, टीपू हैदर की तलवारें आदि यहाँ की शोभा को कई गुणा बढ़ा देती हैं। रात्रि को विद्युत छटा से इस राजभवन का सौंदर्य देखते ही बनता है।" ( पृष्ठ 22 ) राजमहल के पीछे बना संग्रहालय भी देखा जो एक नायाब संग्रहालय है। 
      अब हम उस खूबसूरत चर्च में थे जहां अमर अकबर एंथोनी फिल्म की शूटिंग हुई थी। " बहुत विशाल है ये चर्च। काफी ऊँचा भी। अंदर एकदम शांत वातावरण, बहुत ही आनंद व सुकून मिला यहाँ। गॉड जीजस को नमन किया। इनकी माता मरियम की बड़ी ही खूबसूरत प्रतिमाएं बनी थीं। कोई भी धर्म हो या उसका प्रतीक हो, सभी जगह अनुपम सुकून मिलता है।"(  पृष्ठ 23)  टीपू सुल्तान के खंडहर हुए महल देखे, जो बता रहे थे कि कभी इमारत बुलंद थी। साथ ही रंगनाथ स्वामी टेम्पल तो देखा ही जो काफी विशाल कलात्मक व दक्षिणी द्रविड शैली का ही उत्कृष्ट नमूना है। 
     इसके उपरांत कावेरी नदी का आनंद लेते हुए इस पर बने डैम को देख कर सफर के अंतिम पड़ाव पर पहुंचे दुनिया में अपनी खूबसूरती के लिए प्रसिद्ध फव्वारों वाला वृंदावन गार्डन में। " परिसर तो इसका बहुत विशाल था ही। एक छोर से दूसरे छोर तक जाने के लिए कम से कम आधा घंटा चाहिए। वैसे किसी को जल्दी पहुँचना हो तो नौका-विहार का प्रबंध भी यहाँ है। बगीचे के हृदय-स्थल पर एक कृत्रिम झील जो बनी हुई है। इसे पार करके ही डांसिंग म्यूजिकल फाउंटेन तक पहुँचा जा सकता है। यह फव्वारा भी निश्चित समय पर ही अपने करतब दिखाता है।  थोड़ा आगे चले तो ये क्या फव्वारे ही फव्वारे, बीच-बीच में ऊपर से नीचे बहता रंगीन शर्बत जैसा पानी। भई, आनंद आ गया। किस-किस दृश्य को देखें, क्या-क्या देखें, समझ नहीं पा रहे थे। हर फव्वारा जैसे पर्यटकों के आने की खुशी का इजहार कर रहा हो, स्वागत कर रहा हो।"
( पृष्ठ 26 ) मैसूर के अंतिम पर्यटन स्थल वृंदावन गार्डन का भरपूर आनंद ले कर अपने बसेरे पर लौट आए।
     दक्षिण भारत की पर्यटन यात्रा के दूसरे दिन पहाड़ों की रानी मैसूर से करीब 128 किलोमीटर दूर उटी और कुन्नूर की हसीन प्राकृतिक वादियों, अद्भुत वनस्पति,चाय के बागानों, पर्यटक स्थलों, झील, नौका विहार और सामान्य जन जीवन का आनंद अविस्मरणीय रहा। " एक साथ कतारबद्ध लगे थे पेड़ ? हमें समझ ये नहीं आ रहा था कि इन्हें कतारबद्ध करके लगाया गया है या स्वतः ही ऐसे लग गए हैं। अगर ऐसा है तो प्रकृति की लीला ही है। जिधर से भी देखो बस कतारें ही नजर आती हैं। लगता है आदमी ने ही इन्हें लगाया हो।  हम ये सोचने को विवश हो गए कि जब रास्ता ही इतना खूबसूरत है तो मंजिल कैसी होगी। उसके दर्शन की जिज्ञासा हमारे मन में बलवती होती जा रही थी। बीच-बीच में कई पहाड़ी गाँव व कस्बे आए। पहाड़ी के चक्कर लगाते-लगाते वही गाँव-कस्बे ऊपर से पुस्तकों में बने ग्राम के चित्रों से नज़र आने लगते। इतने में ही स्वागत में पलकें बिछाए मिले चाय के बागान, पहाड़ियों पर चैन से लेटे, धूप सेंकते हुए ये बाग ऐसे लग रहे थे, जैसे माँ की गोद में बालक बेफ़िक्र लेटे हुए होते हैं।"( पृष्ठ 33- 34 )
      पर्यटन यात्रा का तीसरा दिन रहा लोकप्रिय हिल स्टेशन कोडाइकनाल के नाम। इसकी प्राकृतिक सुंदरता और शांत वातावरण अत्यंत रमणीक है। कोडाई झील यहां का केंद्र बिंदु है।
 विभिन्न प्रकार के फूलों और पौधों से लुभाता है ब्रायंट पार्क। जलप्रपात आदि कुछ और आकर्षण इस हिल स्टेशन की यात्रा को लम्हाकर्षक बना देते हैं। " वाकई यह हिल स्टेशन ऊटी से खूबसूरती में 20 ही निकला। इसीलिए इसे 'पर्वतों की राजकुमारी' भी कहा जाता है, वही पर्वतीय सुषमा बिखरी थी यत्र-तत्र। जी भर कर देखते ही रहे वादियों व घाटियों को, जहाँ से भी बस गुजर रही थी। घाटी में उगे पेड़-पौधे ऊपर शिखर पर खड़े पर्यटकों को देख-देखकर विहँस रहे थे एवं इन्हें गहराई का अहसास भी करवा रहे थे। मानो कह रहे हों, घाटी में कितना सुकून है देखो, गिरने का कोई डर नहीं, न ही ऊपर से नीचे झाँकने वाला कोई डर। हज़ारों प्रकार के पौधे, जड़ी-बूटियाँ मानव सेवा को तत्पर खड़ी थी यहाँ, ताकि परार्थ होकर वे कृतार्थ हो सकें। हवा के साथ हिलती उनकी डालियाँ व पत्ते जैसे टा-टा कर रहे थे। तभी आ गया जीव विज्ञान का संग्रहालय। यहाँ शायद दो-पाँच रुपये टिकट लगा। ये एक बड़े हॉल में था। जलचर, थलचर व नभचर तीनों प्राणियों की संरचना एवं विकास का, सारा ही ज्ञान यहाँ प्राप्त किया जा सकता है।" ( पृष्ठ 56 )
     चौथे दिन बेंगलुरु की यात्रा इनको अपनी बेटी स्वनिल के साथ ही करनी पड़ी। श्रीमान का बेंगलुरु देखा हुआ था अतः वह कोटा रवाना हो गए।  बेंगलुरु के विधानसभा के स्थापत्य की खूबसूरती पर बरबस इनके मुंह से ये शेर होठों पर आ गया.......( पृष्ठ 67 )

हरेक शख्स बेमिसाल होता है ' कमसिन '
कि  कोई  किसी  और  जैसा  नहीं  होता ।

        बेंगलुरु में इनकी की यात्रा टीपू समर पैलेस से शुरू हो कर , लाल बाग, विधान सभा भवन और मंदिर देखने पर समाप्त हुई। इसी बीच बाजार भी देखे, और दक्षिणी भोजन का लुफ्त उठाया।  बेंगलुरु के बारे में लिखती हैं, "  हाँ, बेंगलुरू तो बेंगलुरू ही है साहब। क्या कहने इसके। स्वच्छ और सुंदर सड़कें, दोनों ओर स्वागतातुर खड़ी सघन वृक्षावलियां, जिनकी सघन छाया से सारी थकान छू मंतर हो जाती है। ये शहर तो विश्व के सुंदर उद्यानों वाले शहरों में से एक है। यहाँ बारह महीनों सुहाना मौसम रहता है। न आग बरसाती गर्मी, न कड़ाके की ठंड, न चिपचिपाने वाली उमस, वाकई हमें भी लगा कि शहर हो तो ऐसा। काश ! हम भी इस शहर के वाशिंदे होते। एक से एक बंगले, भवन, शोरूम। साहित्य-संस्कृति में भी अग्रणी।" ( पृष्ठ 65 ) जहां ये शहर की तारीफ के पुल बांधती हैं वहीं बेंगलुरु रेलवे स्टेशन पहुंच कर जो नजारा देखा और अनुभव किया , पर्यटकों को ताकीद करती हैं " रेलवे स्टेशन आकर ट्रेन में सवार होकर रात्रि के साढ़े ग्यारह बजे बेंगलुरू पहुँचे। यह गाड़ी लोकल होने के कारण हर स्टेशन पर ठहरते हुए आई थी। इधर बेंगलुरू में भी खाना-पीना रामभरोसे रहा। बड़ी मुश्किल से तो एक गली के अंदर होटल मिला एजेंट के द्वारा। सच कहें तो भगवान बचाए इन एजेंटों से। बहुत गुमराह करते हैं ये पर्यटकों को। कहेंगे दस-बीस कदम दूर है होटल, तो वह निकलेगा एक किलोमीटर र। सफ़र पर जाने के पहले आदमी को सारी जानकारी लेकर ही जाना चाहिए, अपना अनुभव तो यही कहता है वरना पैसा व वक़्त बेशुमार खर्च होता है। परेशानियाँ ढेरों उठानी पड़ती हैं सो अलग। हमारी माने तो आप ऐसी गलती मत कीजिएगा उठे और चल दिए।" ( पृष्ठ 64 )
    यात्रा का अंतिम पड़ाव खूबसूरत समुद्री तटों ( बीच ) और बेमिसाल चर्चों के शहर गोवा के नाम रहा।  गोवा की चार दिन की यात्रा में जी भर कर वहां के पर्यटन स्थलों और जनजीवन को देखा, चर्चों और मंदिरों के दर्शन किए, सागर तटों और सागर में क्रूज का आनंद लिया और बस में गाइड द्वारा दी गई गोवा की अनेक जानकारियों को ध्यान पूर्वक सुन कर रोमांचित हुए और वहां के स्वादिष्ट व्यंजनों का लुफ्त लिया। गोवा पहुंच कर होटल ढूंढने में आने वाली परेशानियां भी झेली। गोवा यात्रा में कई जगह पूर्व में की गई नैनीताल आदि की यात्राएं भी खूब याद आई और उनके कुछ वृतांत भी साथ में लिख दिए है। लगता है जैसे दो यात्राओं की तुलना हो रही है।
    इनकी गोवा पर्यटन यात्रा पहले दिन उत्तरी गोवा में वन देवी मंदिर के दर्शन से शुरू हुई और खूबसूरत मेयम झील  और उसके साथ जुड़े पर्वत, अंजुना बीच, लोहे की खान, गोवा की जेल, कालानगुटे बीच, समुद्र में क्रूज का आनंद लेते हुए डोना - पाउला पर समाप्त हुई।
दूसरे दिन की यात्रा पणजी में महालक्ष्मी मंदिर, पैट्रियाच पैलेस, सलीम अली पक्षी विहार, केरामबेलिंग झील होते हुए मीरामार बीच की मस्ती पर आ कर ठहर गई। तीसरे दिन की यात्रा एशिया का सबसे बड़ा कैथेड्रल चर्च, बेसिलिका ऑफ बॉम जीसस चर्च, शांता दुर्गा मंदिर, पुराने गोवा का मंगेश मंदिर, श्री महालसा मंदिर, श्री रामनाथ मंदिर, द म्यूजियम ऑफ क्रिश्चियन आर्ट,  बेलोनिम बीच, वार्मालेक, कोलवा बीच होते हुए पणजी बाजार के नज़ारों को देखने पर खत्म हुई। और अगले दिन शाम की ट्रेन होने से होटल से ही गोवा के दृश्यों को निहारा , विश्राम किया और रवाना हो गए।
   यादगार गोवा यात्रा के अंजुना बीच की सुंदरता के बारे में खींचे गए शब्द चित्र को देखते हैं जिसे बेहद रोचक लेखनी में कलमबद्ध किया है, "कुछ ही पलों बाद भव्य नीलिमा का विस्तार आँखों के सामने अवतरित हुआ और हम पलकें झपकना ही भूल गए। अपलक निहारते ही रह गए, ठिठक कर रह गए वहीं पाँव। ऐसी विशालता, विस्तार जिसका कोई ओर-छोर ही नहीं हो, आँखों में समा नहीं पा रहा था। तभी स्वप्निल ने हमारा सम्मोहन तोड़ा, बोली, मम्मी नीचे चलो, सभी पर्यटक वहीं जा रहे हैं। हमने इधर-उधर देखा नीचे तट पर यात्रियों की अठखेलियाँ चल रही थीं। चट्टान से नीचे उतर कर समुद्र के एकदम निकट गए। तभी लहर आई और हमारे पाँवों पर होकर निकल गई। एक तरफ छोटी-छोटी चट्टानें, उन पर उछलती लहरें जैसे उनके साथ खेल रही हों। लहरों में प्रतिस्पर्द्धा सी चल रही थी कि कौन सबसे पहले चट्टानों पर सबसे अधिक ऊँचाई पर पहुँचती हैं। दूसरी तरफ नारियल की वृक्षावलियाँ, पहाड़ियाँ सब कुछ अनुपमेय। लहरों का भव्य नाद, उससे उत्पन्न संगीत, उसी पर थिरकती अकूत जलराशि, बस इतना ही कहा जा सकता है कि परम आनंद आ गया। लहरों के साथ जी भर कर खेले, खूब फोटो खिंचवाए। सुनहली बादामी रेत पर लहरों का आवागमन और उसके साथ रेत का घुलना-मिलना, ठहरना, चलना किसी बालक के किसी खेल से कम नहीं लग रहा था। दुग्ध-धवल फेनिल लहरें जो 8-10 फीट की ऊँचाई तक उठतीं और किनारे आकर रेत पर बिछ जातीं, यही सिलसिला युगों से चला आ रहा है। सैकड़ों पर्यटक, बच्चे, युवा, वृद्ध सभी सागर तट पर आकर फूले नहीं समा रहे थे। हरेक चेहरे पर प्रसन्नता की दीप्ति झलक रही थी जैसे कृतार्थ हो गए हों। सच भी था। कौन कृतकृत्य नहीं होगा प्रकृति के इस भव्य नज़ारे को देखकर। यहाँ भारतीयों से अधिक विदेशी यात्री नजर आ रहे थे। कोई जल-स्नान में मग्न था तो कोई सूर्य-स्नान में लीन।" ( पृष्ठ 80 ) 
    दक्षिण भारत के पांच स्थानों की लंबी यात्रा के अनुभवों को 110 पृष्ठ में समेट ते हुए अंत में अपना परिचय देना भी ये नहीं भूली। जंगल का दृश्य लिए शीर्षक के अनुरूप हरे रंग की आभा लिए आवरण पृष्ठ " हरित पगडंडी पर" शीर्षक को साकार करता हुआ आकर्षक बना है। खासियत यह भी है कि बिना किसी भूमिका और लेखकीय के पुस्तक सीधे यात्रा से शुरू हो कर अंतिम पड़ाव कोटा वापस पहुंचने पर समाप्त हो जाती है।
पुस्तक : हरित पगडंडी पर ( यात्रा वृतांत )
लेखिका : डॉ. कृष्णा कुमारी, कोटा
प्रकाशक : बोधि प्रकाशन, जयपुर
संस्मरण : 2023
प्रकार : पेपर बैक
मूल्य : 250 ₹
लेखकीय परिचय
शिक्षा: एम.ए., एम.एड., (मेरिट अवार्ड) साहित्य-रत्न, आयुर्वेद रत्न, श्री.जे.एम.सी, पीएच.डी. प्रकाशन:  मैं पुजारिन हूँ (कविता संग्रह, 1995), प्रेम है केवल ढाई आखर (निबंध, 2003), कितनी बार कहा है तुमसे (कविता, 2003) तो हम क्या करें (गजल, 2004), ज्योतिर्गमय (आलेख, 2006), स्वप्निल कहानियाँ (कहानी, 2006), आओ नैनीताल चलें (यात्रा वृत्तांत, 2009), जंगल में फाग (बाल गीत, 2014), कुछ अपनी, कुछ उनकी (साक्षात्कार, 2018), नागरिक चेतना (दीर्घ निबन्ध, 2018), 'हरित पगडंडी पर' (यात्रा वृत्तांत, 2023), बहुत प्यार करते हैं शब्द (काव्य, 2023) प्रकाशित। विभिन्न राष्ट्रीय एवं राज्य स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं, संकलनों आदि में हजारों रचनाएँ प्रकाशित। शिक्षा निदेशालय बीकानेर द्वारा 'शिक्षक दिवस' पर प्रकाशित पुस्तक श्रृंखला में रचनाएं निरंतर प्रकाशित। कई पुस्तकों, पत्रिकाओं में आधुनिक रेखा चित्र व आवरण चित्र प्रकाशित। कई शोध-ग्रन्थों (पीएच.डी.), संदर्भ ग्रन्थों एवं गु.ना. देव वि. वि. की एम.फिल. में अनुशंसित पुस्तकों में विस्तृत परिचय एवं रचनाएँ प्रकाशित। कई रचनाओं का अंग्रेजी, उर्दू व गुजराती भाषाओं में अनुवाद। विशेष पुरस्कार : एयर इण्डिया एवं राजस्थान पत्रिका द्वारा आयोजित 'रेन्क एण्ड बोल्ट' प्रतियोगिता में जिला स्तरीय एवं राज्य स्तरीय प्रथम पुरस्कार- सिंगापुर की यात्रा अर्जित। राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर द्वारा 'ज्योतिर्गमय' (सांस्कृतिक निबंध) को 'देवराज उपाध्याय पुरस्कार'। साहित्य मंडल नाथद्वारा और डेह नागौर द्वारा पुरस्कृत ।


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