देश के विभिन्न हिस्सों में होली विभिन्न परम्पराओं के साथ मनायी जाती है। सभी स्थानों पर होली मनाने के अलग-अलग अन्दाज़ हैं लेकिन इन सबके बीच राजस्थान के आदिवासी क्षेत्रों में होली मनाने का एक अजब-गजब तरीका ऐसा भी है जिसमें धरती पर लहू के छींटे न गिरें तो होली कोई मायने नहीं रखती। लहू गिराकर धरती को तृप्त करने की रस्म को पूरा करने के लिए ही यहाँ पत्थरों से होली खेली जाती है।
राजस्थान भर में अपनी तरह की अनूठी एवं दूर-दूर तक मशहूर होली धुलेड़ी पर्व पर आदिवासी बहुल वागड़ अन्तर्गत डूंगरपुर जिले के भीलूड़ा गांव में खेली जाती है। इसमें लोग रंग-गुलाल और अबीर की बजाय एक-दूसरे पर पत्थरों की जमकर वर्षा कर होली मनाते हैं। इस गांव की युगों पुरानी परम्परा के अनुसार लोग अपने हाथों में पत्थर लेकर टूट पड़ते हैं एक-दूसरे समूह पर इसकी बरसात को।
इस अनूठी होली का एक पहलू यह भी है कि हर साल कई लोग घायल हो जाते हैं। इसमें एक-दो दर्जन से कम घायल नहीं होते। इसके बावजूद यह परम्परा अनेक सदियों से अक्षुण्ण बनी हुई है।
युद्धोन्माद के कम नहीं होता माहौल
डूंगरपुर जिला मुख्यालय से 55 किलोमीटर दूर सागवाड़ा तहसील के भीलूड़ा गांव में पारंपरिक ‘पत्थरमार-लहू निकाल होली’ का अद्भुत साहसिक नज़ारा देखने हजारों लोग उमड़ते हैं। इस गांव में धुलेड़ी की शाम का माहौल किसी युद्धोन्माद से कम नहीं होता। समीपवर्ती सागवाड़ा शहरवासियों के साथ ही भीलूड़ा तथा आस-पास के गांवों से हजारों ग्रामीणों की मौजूदगी में मन्दिर के सम्मुख मैदान में अनूठी पत्थरमार होली रंग जमाती है।
भारी जन समूह के उल्लासपूर्ण माहौल के बीच ढोल-नगाड़ों, कौण्डियों आदि लोक वाद्यों की धुन पर ग्रामीणों के कई-कई समूह गगनभेदी संवादों पर नाचते-थिरकते और उल्लास का चरम प्रकटाते हुए जमकर गैर नृत्य खेलते हैं और वनांचल की पुरातन उल्लासमयी लोक संस्कृति की मनोहारी परम्पराओें को दिग्दर्शन कराते हैं। इसके बाद प्राचीन श्रीराम मन्दिर के सामने मैदान पर जमा समूह एक-दूसरे समूहों पर जमकर पत्थरों की बारिश करना आरंभ कर देते हैं।
जमकर होती है पत्थरों की बारिश
पहले पहल आमने-सामने पत्थर उछालने से शुरू होने वाला यह अनूठा कार्यक्रम वीर रस की धुन पर केन्द्रित ढोल-नगाड़ों के नादों पर परवान चढ़ता जाता है और इसके साथ ही पत्थरों की बारिश तेज होती जाती है बाद में पत्थरों की मार से इधर-उधर छितराए समूहों पर पत्थर फेंकने की पारंपरिक गोफण (रस्सी से बनी पारंपरिक गुलैल) का सहारा लिया जाता है।
‘पत्थरों की राड़’ के नाम से मशहूर इस आयोजन में पत्थरों की बारिश में आमने-सामने इस कदर पत्थर चलते हैं कि हाथ में ढाल होने व बचाव के उपायों को अपनाने के बावजूद कई लोग घायल व लहूलुहान होने से बच नहीं पाते हैं और उनके जिस्म से खून रिसने लगता है। कईयों के सर तक फट जाते हैं और लहू की धार बह निकलती है।
लहू न बहे तो होता है अनिष्ट
लोक मान्यता के अनुसार भीलूड़ा में हर साल धुलेड़ी पर पत्थरों की होली अनिवार्य है और इस दिन पत्थरों की होली के दौरान जमीन पर खून की बून्दें गिरना शगुन माना जाता है। ऐसा नहीं होने पर वर्ष में किसी न किसी तरह का अनिष्ट क्षेत्र के लोगों को झेलना पड़ता है।
हर साल होने वाली पत्थरों की होली के दौरान कई लोग घायल एवं लहूलुहान हो जाते हैं मगर इन सबकी परवाह किये बगैर लोग पूरे उल्लास से इसमें हिस्सा लेते हैं। प्रशासन ने एकाध बार इस खतरनाक होली को रोकने के प्रयास भी किए मगर गांव की अटूट आस्था व परम्परा के आगे कुछ बदलाव न हो पाया।
परम्परा के मुताबिक पत्थरमार होली के दौरान् कोई भी व्यक्ति घायल हो जाए, अंग-भंग हो जाए या मृत्यु के मुँह में चला जाए, इसकी कोई परवाह नहीं की जाती, न ही ऐसे मामलों में पीड़ित पक्ष द्वारा किसी पर किसी तरह की कानूनी कार्यवाही की जाती है। गांव के लोग इसके लिए स्वैच्छिक रूप से पहले से ही तैयार रहते हैं।
जमकर होता है गैर-डाण्डिया नृत्य
धुलेड़ी की शाम पत्थरमार होली से पूर्व भीलूड़ा में दाणी का नाका क्षेत्र में आस-पास के दो दर्जन गांवों के सैकड़ों लोग करीब डेढ़ घण्टे तक लोक वाद्यों की स्वर लहरियों पर जमकर गैर एवं डाण्डिया नृत्य करते हैं। इन तमाम लोगों को गुलाल का तिलक लगा कर श्रीफल का प्रसाद वितरित किया जाता है। विभिन्न समाजों की ओर से अलग-अलग स्थानों पर ढूण्ढ के आयोजन भी होते हैं।
भीलूड़ा में परम्परागत गैर नृत्य व पत्थरमार होली का आयोजन किंवदन्तियों से जुड़ा हुआ है। इनके पीछे कोई आधार नहीं है लेकिन परम्परा से यह जानकारी पीढ़ियों तक संवहित होती चली आयी है। इसके अनुसार बांसवाड़ा के तत्कालीन महारावल जगमाल का संदेश लेकर बांसवाड़ा के सिपाही डूंगरपुर आए। वापस लौटते वक्त भीलूड़ा के पास कलेवा करने रुके।
इस वक्त भीलूड़ा का एक पाटीदार बैलगाड़ी लेकर खेतों की ओर जा रहा था। उसके साथ पालतू कुत्ता भी था जिसका नाम जगमाल था। इन सिपाहियों के पास से गुजरते हुए सिपाही ने कुत्ते को रोटी डाली।
इस पर मालिक पाटीदार ने कुत्ते से कहा- जगमाल चल। इस पर कुत्ता रोटी वहीं छोड़कर मालिक के साथ आगे बढ़ गया मगर कुत्ते का नाम जगमाल रखने की बात सिपाहियों को चुभ गई और उन्होंने बांसवाड़ा पहुंचकर महारावल जगमाल से यह बात कह दी। इस पर महारावल की भौंहे तन गई।
वह फौज लेकर भीलूड़ा के लिए बढ़ा। भीलूड़ा में फौज आने की बात सुनकर पाटीदार भागने लगा लेकिन सिपाहियों ने इसे मार डाला और सिर लेकर जाने लगे। इस पर पाटीदार की पत्नी हूरण बाई ने प्रतिकार किया और पति का सर लेकर अग्नि समाधि ले ली।
लेकिन इससे पूर्व इस पतिव्रता ने श्राप दिया कि इस गांव में पत्थरों की राड़(पत्थर वर्षा का खेल) नहीं खेली जाएगी तो गांव का अस्तित्व ही मिट जाएगा और वंश समाप्त हो जाएंगे। राड़ खेलने पर ही उसकी आत्मा को शांति मिलेगी। तभी से भीलूड़ा गांव और पत्थरों की राड़ दोनों एक दूसरे के पर्याय हो गए। यहां इस पतिव्रता माता का स्थानक आज भी लोक आस्था का केन्द्र है।
यों किसी समय राड़ अर्थात् पत्थरमार होली खेलने के लिए नियम था कि भीलूड़ा के ऊपर के गांवों राजपुर, सेलोता, जेठाना, कानपुर का एक दल और भीलूड़ा के निचले हिस्सों सूलिया पंड्या, मलवाड़ा, भीलूड़ी, वगेरी पाड़ला, फलातेड़ आदि गांवों के लोगों का दूसरा दल बनता और इनके समूहों में परस्पर पत्थरों की राड़ होती लेकिन अब ऐसा कोई बंधन नहीं रहा। कोई भी व्यक्ति किसी भी पक्ष की ओर से राड़ में हिस्सा ले सकता है।
भीलूड़ा गांव में पत्थरों की राड़ में हर जाति, धर्म और सम्प्रदाय के लोग पूरे उल्लास से हिस्सा लेते हैं। भीलूड़ा गांव के कई साठ पार बुजुर्ग अब भी हर साल राड़ में हिस्सा लेते रहे हैं। राड़ में पत्थरों के लिए बचाव के लिए बनने वाली ढाल भी सूअर और रोजडे़ के चमड़े से बनाये जाने की परंपरा रही है।
कई सदियों बावजूद यह खूनी परम्परा आज भी भीलूड़ा क्षेत्र के लिए आस्था का प्रतीक बनी हुई है। भीलूड़ा की यह घातक होली प्रदेश एवं देश भर में मशहूर है।
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