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“ईश्वर की आज्ञा पालन के लिये सबको अग्निहोत्र यज्ञ करना चाहिये”

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19 Oct 20
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“ईश्वर की आज्ञा पालन के लिये सबको अग्निहोत्र यज्ञ करना चाहिये”

परमात्मा इस संसार का स्वामी है। उसी ने इस संसार को बनाया और वही संसार का पालन कर रहा है। इस संसार को बनाने का उद्देश्य परमात्मा द्वारा अनादि तथा नित्य जीवों को उनके पूर्वजन्मों के अनुसार उनके योग्य प्राणी योनियों में जन्म देना, उनके कर्मों के अनुसार उन्हें सुख व दुःख देना, उन्हें दुःखों से छुड़ाने के लिये मोक्ष प्राप्ति हेतु प्रेरित करना व मोक्ष प्रदान करना है। सभी प्राणी योनियों में मनुष्य योनि ही उभय योनि होती है जिसमें मनुष्य अपने पूर्वजन्मों के कर्मों को भोगता भी है और अपने वर्तमान तथा भविष्य को सुखी व कल्याणप्रद बनाने के लिये नये सत्कर्मों को करता भी है। परमात्मा ने सभी मनुष्यों को अपने-अपने कर्तव्यों का बोध कराने के लिये सृष्टि के आरम्भ में प्रथम पीढ़ी के अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न स्त्री व पुरुषों को चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा के माध्यम से चार वेदों ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद का ज्ञान उपलब्ध कराया है। वेद धर्म का मूल स्रोत है। वेद से ही ईश्वर, जीवात्मा, सृष्टि सहित मनुष्यों के कर्तव्यों व अकर्तव्यों का ज्ञान होता है। वेदों में मनुष्य को पंचमहायज्ञ करने की आज्ञा है जिसका प्रकाश मनुस्मृति में महाराज मनु ने भी किया है। इसी आधार पर सभी गृहस्थ मनुष्यों को प्रतिदिन प्रातः व सायं ब्रह्मयज्ञ व सन्ध्या, देवयज्ञ अग्निहोत्र, पितृयज्ञ, अतिथियज्ञ तथा बलिवैश्वदेव यज्ञ करना अनिवार्य होता है। सभी मनुष्यों का धर्म एक ही होता है। धर्म से इतर मत-मतान्तर हुआ करते हैं। वेद धर्म से इतर संसार में जितने मत व संगठन हैं वह धर्म नहीं अपितु मत हैं। मत का प्रचलन मनुष्यों के द्वारा देश, काल व परिस्थिति के अनुसार समय समय पर होता है परन्तु धर्म का प्रचलन व आविर्भाव तो सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा द्वारा वेदों का ज्ञान प्रदान कर ही होता है। अतः संसार के सभी मनुष्यों को वेदों की महत्ता के कारण वेदों की शरण में आना चाहिये और सत्यधर्म की दीक्षा लेकर अपने जीवन को सफल करना चाहिये।

 

                देवयज्ञ अग्निहोत्र करने का विधान अथर्ववेद के मन्त्रों में भी है। ऋषि दयानन्द ने पंचमहायज्ञ विधि में इन मंत्रों व यज्ञ की विधि को प्रस्तुत किया है। अथर्ववेद के निम्न दो मन्त्रों 19/55/3-4 में प्रतिदिन अग्निहोत्र करने का विधान हैः-

 

                सायंसायं गृहपतिर्नो अग्निः प्रातःप्रातः सौमनसस्य दाता।

                वसोर्वर्सोवसुदान एधि वयं  त्वेन्धानास्तन्वं पुषेम।।1।।

 

                प्रातःप्रातर्गृहपतिर्नो अग्निः सायं सायं सौमनसस्यं दाता।

                वसोर्वसोर्वसुदान एधीन्धानास्त्वा शतंहिमा ऋधेम।।2।।         

 

       इनका मन्त्रों के अर्थ है कि हमारा गृहपति प्रतिदिन प्रातःकाल और सायंकाल श्रेष्ठ उपासना को प्राप्त होके, घर और आत्मा का रक्षक भौतिक अग्नि और परमेश्वर जैसे आरोग्य और आनन्द का देनेवाला है, उसी प्रकार वह उत्तम-से-उत्तम वस्तु को देनेवाले हंै। इसी से परमेश्वर वसु, अर्थात् धन का देनेवाला प्रसिद्ध है। हे परमेश्वर! इस प्रकार आप मेरे राज्य आदि व्यवहार और चित्त में प्रकाशित रहिए तथा इस मन्त्र से अग्निहोत्र आदि करने के लिए भौतिक अग्नि का भी ग्रहण करने योग्य है। हे परमेश्वर! पूर्वोक्त प्रकार से (भौतिक अग्नि व अग्निहोत्र द्वारा) हम आपको प्रकाशित करते हुए अपने शरीर को पुष्ट करें। इसी प्रकार भौतिक अग्नि को प्रज्वलित करते हुए सब संसार की पुष्टि करके (स्वयं भी) पुष्ट हों।1।

 

       इस दूसरे मन्त्र का अर्थ भी पहले मन्त्र के समान है। इसका इतना अर्थ विशेष है कि अग्निहोत्र और ईश्वर की उपासना करते हुए हम लोग सौ हेमन्त ऋतु बीत जाएं उन वर्षों में, अर्थात् सौ वर्षपर्यन्त, धनादि पदार्थों से वृद्धि को प्राप्त होते रहें और अग्निहोत्र कर्म वा यज्ञ करके हमारी हानि कभी न हो, ऐसी हम इच्छा करते हैं।

      वेदों में ईश्वर की उपासना तथा अग्निहोत्र का विधान होने के कारण सृष्टि के आरम्भ से अद्यावधि पर्यन्त सभी ज्ञानी व विवेकवान मनुष्य यज्ञ करते चले आ रहे हैं। यज्ञ के महत्व पर विचार करते हैं तो ज्ञात होता है कि मनुष्य के जीवनयापन करने से वायु, जल तथा पर्यावरण की अशुद्धि होती है तथा इससे वायु में रहने वाले एवं भूमि पर चलने वाले कुछ छोटे प्राणियों को हानि होती है। इस अशुद्धि से वायु, जल व अन्न व ओषधियां आदि भी हानिप्रद हो जाती हैं जिससे मनुष्यों को रोग आदि दुःख हुआ करते हैं। मनुष्य का कर्तव्य होता है कि उसके द्वारा जितनी मात्रा में पर्यावरण अर्थात् वायु, जल आदि की अशुद्धि होती तथा प्राणियों को दुःख होता है, उतनी व उससे कुछ अधिक मात्रा में वह पर्यावरण की शुद्धि करने हेतु अग्निहोत्र देवयज्ञ को किया करें जिससे स्वयं व अन्य प्राणियों को सुख पहुंचे। इसे करने का यज्ञ के अतिरिक्त अन्य को सार्थक एवं प्रभावशाली उपाय नहीं है। यदि मनुष्य ऐसा न करे तो वह पाप का भागी होता है। इसका कारण यह है कि हमारे निमित्त से वायु आदि की अशुद्धि होने से हमें व दूसरे मनुष्य आदि प्राणियों को जो दुःख होते हैं, उतनी मात्रा में हम दोषी होते हैं। अतः हमें ही उस अशुद्धि व विकारों के निर्वाणार्थ अग्निहोत्र द्वारा वायु आदि को शुद्ध करना होता है। यदि ऐसा करते हैं तो हम पाप मुक्त होते हैं। जितनी अधिक मात्रा में हम वायु व जल आदि की शुद्धि करते हैं, उतनी मात्रा में हम पुण्य व उसके परिणामस्वरूप सुखों के भी भागी होते हैं। अतः प्रत्येक मनुष्य को अग्निहोत्र यज्ञ करना चाहिये। इससे हमारा यह जन्म तो सुखों से युक्त होता ही है, यज्ञ कर्मों से जो कर्माशय बनता है, उसके प्रभाव से हम परजन्मों में भी सुख व कल्याण आदि लाभों को प्राप्त करते हैं।

                                                           

                अग्निहोत्र से अन्य अनेक लाभ भी होते हैं। अग्निहोत्र में गोघृत, वनस्पतियों व ओषधियों सहित शक्कर तथा पुष्टि करने वाले पदार्थ भी आहुतियों के रूप में आहुत किये जाते हैं। इससे यह सब पदार्थ अत्यन्त सूक्ष्म होकर वायु के द्वारा आकाश में फैल जाते हैं। गोघृत व यज्ञ में प्रयुक्त सामग्री का एक गुण हानिकारक किटाणुओं का नाश करना भी होता है। इससे हम आने वाले रोगों से बचते हैं व आजीवन स्वस्थ रहते हैं। यज्ञ की सुगन्ध से गृहस्थ, निवास वा घर का वायु यज्ञाग्नि से गर्म होकर हल्का हो जाता है और वह दरवाजों, खिड़कियों व रोशनदानों से बाहर निकल जाता है। इससे बाहर का शुद्ध वायु घर में प्रवेश करता है। ऐसा होना भी स्वास्थ्य के लिए हितकर होता है। यह प्रक्रिया अन्य किसी प्रकार से सम्पन्न नहीं की जा सकती। इस कारण भी यज्ञ करने से यज्ञ करने वालों को लाभ होता है। यज्ञ होने से हमारा वायुमण्डल गोघृत आदि यज्ञीय पदार्थों के ओषधियों गुणों से युक्त हो जाता है जो हमारे फेफड़ों व रक्त में जाकर अनेक व्याधियों आदि को भी ठीक करता व हमें होने वाले रोगों से बचाता है। भोपाल गैस त्रासदी में यह देखा गया था कि वहां गैस का रिसाव होने पर एक याज्ञिक परिवार, जो इस त्रासदी का अनुमान कर अपनी व परिवार की रक्षा हेतु यज्ञ करने लगा था, वह पूर्णतः सुरक्षित बच गया था। गैस के रिसाव से आसपास के लोग विषैली गैस से प्रभावित होकर मर गये व विकलांग हो गये थे परन्तु याज्ञिक परिवार पर उसका प्रभाव न होने से उसे कोई हानि नहीं हुई थी। अतः हमें ईश्वर, वेद, वैदिक विद्वानों व वैदिक परम्पराओं पर विश्वास करते हुए प्रतिदिन अग्निहोत्र यज्ञ करना चाहिये जिससे हम व हमारा परिवार स्वस्थ एवं निरोग रहें और भविष्य में होने वाली किसी भी त्रासदी के प्रभाव से भी बचे रहें।

                अग्निहोत्र यज्ञ में वेद मन्त्रों का उच्चारण करते हुए आहुति देने आदि क्रियाओं को किया जाता है। वेदमन्त्रों में अनादि, नित्य, सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, निराकार, सर्वव्यापक तथा सर्वान्तर्यामी परमात्मा से हम अपने सुख व कल्याण सहित धनैश्वर्य की प्राप्ति के लिये प्रार्थना करते हैं। संसार का स्वामी हमारी आत्मा में विराजमान हमारे प्रत्येक कर्म व विचार को जानता है। हमारी प्रार्थनाओं को सुनता भी है। उसकी आज्ञा पालन करने से हम उससे वह सभी लाभ प्राप्त करने में सफल होते हैं जिसका वर्णन स्वयं परमात्मा ने ही वेदमन्त्रों में किया है। इस कारण से यज्ञ करने से हमारे सभी प्रकार के दुःख, क्लेश व समस्यायें दूर व हल होती है। परमात्मा का आशीर्वाद व कृपा हमें प्राप्त होती है। हम स्वस्थ व निरोग रहते हुए उन्नति करते वा फलते फूलते हैं। इस कारण से हम सब मनुष्यों को ईश्वर की प्रसन्नता तथा अपने हितों व सुखों के लिये प्रतिदिन यज्ञ करना चाहिये। ऋषि दयानन्द ने लिखा है कि जब तक आर्यावर्त देश में वेद विधानों के अनुसार लोग यज्ञ किया करते थे तब तक सभी मनुष्य स्वस्थ, निरोग रहते हुए कल्याण को प्राप्त होते थे। यदि अब भी इसे आरम्भ कर दिया जाये पुनः स्वर्ग का सा समय लाया जा सकता है।

 

      ऋषि दयानन्द के वेदभाष्य, सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका तथा संस्कारविधि आदि ग्रन्थों के विधानों व शिक्षाओं के आधार पर आर्यसमाज संगठन से जुड़े उनके अनुयायी समय समय पर देवयज्ञ अग्निहोत्र व विशेष यज्ञ किया करते हैं जिसका परिणाम उनके परिवारों का सुखी व कल्याणमय जीवन होना होता है। आर्यसमाज में वेदपारायण यज्ञों का प्रचलन भी है। इन पारायण यज्ञों में ईश्वर की वाणी वेद के सभी मन्त्रों का उच्चारण किया जाता है और ऐसा करते हुए यज्ञ में आहुतियां दी जाती हैं। निश्चय ही यह एक कल्याणप्रद प्रक्रिया व अनुष्ठान है। हमने वेद के बड़े बड़े विद्वानों को अपने निवासों पर चतुर्वेद पारायण यज्ञ कराते हुए सुना व देखा है। अथर्ववेद एवं सामवेद भाष्यकार तथा अनेक वैदिक ग्रन्थों के लेखक पं. विश्वनाथ विद्यालंकार वेदोपाध्याय जी के द्वारा आयोजित चतुर्वेद पारायण यज्ञ में हम सम्मिलित भी हुए थे। उन्होंने 103 वर्ष की स्वस्थ आयु प्राप्त की थी।

 

       अतः स्वस्थ जीवन व दीघार्यु सहित सुखों व कल्याण प्राप्ति के लिये सभी मनुष्यों को ईश्वर की वेदों में की गई आज्ञाओं का पालन करते हुए नित्य प्रति देवयज्ञ अग्निहोत्र करना चाहिये। इससे हमारा वर्तमान जन्म तथा परजन्म सभी लाभान्वित होंगे और यह हमारे मोक्ष प्राप्ति में भी सहायक होंगे। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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