GMCH STORIES

“हैदराबाद सत्याग्रह में आर्यसमाज, देहरादून का योगदान”

( Read 5238 Times)

03 Mar 23
Share |
Print This Page
“हैदराबाद सत्याग्रह में आर्यसमाज, देहरादून का योगदान”

देश की आजादी से पूर्व हैदराबाद एक मुस्लिम रियासत थी। वहां हिन्दुओं के बड़ी जनसंख्या में होने पर भी उनके धार्मिक अधिकारों को प्रायः छीन लिया गया था। वहां हिन्दू मन्दिरों में लाउडस्पीकर लगाकर अपने धार्मिक आयोजन नहीं कर सकते थे। जलूस आदि नहीं निकाल सकते थे। वैदिक धर्म प्रचारकों पर भी वहां धर्म प्रचार करने पर प्रतिबन्ध था। घरों पर ओ३म् का ध्वज नहीं लगा सकते थे। वहां घर पर ओ३म् ध्वज लगाने पर एक दम्पती की हत्या तक कर दी गई थी। यहां तक की अपने मन्दिरों की मरम्मत आदि कराने के लिए भी अनुमति लेनी पड़ती थी जो मिलती नहीं थी। ऐसे अनेक बहुत से कारण थे जिनसे विवश होकर आर्य समाज को हिन्दुओं को उनके मौलिक व स्वाभाविक अधिकारों को बहाल करने के लिए प्रयत्न करने पड़े। आर्य समाज के केन्द्रीय नेतृत्व ने हिन्दुओं की न्यायोचित मांगों को बहाल करने के लिए सभी सम्भव प्रयास किये। जब रियासत के अधिकारियों ने उनकी नहीं सुनी तो उन्हें विवश होकर हैदराबाद में एक आर्य-सत्याग्रह का आरम्भ करना पड़ा। सन् 1939 में हिन्दुओं को न्याय दिलाने के लिए विशाल स्तर पर सत्याग्रह आयोजित किया गया। यह सत्याग्रह सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा, दिल्ली के तत्कालीन प्रधान महात्मा नारायण स्वामी जी के नेतृत्व में आयोजित किया गया था। देश भर की आर्यसमाजों से सत्याग्रहियों के जत्थों ने इस सत्याग्रह में उत्साह में भर कर भाग लिया था। देश के विभिन्न भागों से आर्य समाज के जत्थे हैदराबाद पहुंच कर वहां सत्याग्रह करते और अपनी गिरिफ्तारियां देते थे। सत्याग्रहियों लौठियों से पीटा जाता था तथा जेल में यातनायें दी जाती थी। इस कारण कुछ सत्याग्रही शहीद भी हुए। लम्बे समय तक चलने के बाद यह सत्याग्रह सफल हुआ और आर्यसमाज की मांगे मानी गई। इस सत्याग्रह का विवरण जानने के लिए अनेक पुस्तकें उपलब्ध हैं। कुछ अप्राप्य भी हो चुकी हैं। एक महत्वपूर्व पुस्तक ‘हैदराबाद में आर्यों का संघर्ष एवं साधना’ है जिसके लेखक आर्य समाज के लौहपुरुष पं. नरेन्द्र जी, हैदराबाद है। कुछ समय पूर्व ही इस पुस्तक का नया संस्करण आर्यप्रकाशक ‘विजयकुमार गोविन्दराम हासानन्द, दिल्ली’ से प्रकाशित हुआ है। हैदराबाद के आर्य सत्याग्रह में देहरादून आर्यसमाज से भी चार जत्थे गये थे। इस सत्याग्रह का विवरण देहरादून के आर्य विद्वान स्व. श्री यशपाल आर्य ने संग्रहित कर उसे ‘आर्य समाज स्थापना शताब्दी (देहरादून) स्मारिका’ में सन् 1980 में ‘हैदराबाद सत्याग्रह’ शीर्षक से दिया था। वहीं से इस विवरण को लेकर हम प्रस्तुत कर रहे हैं।

दिनांक 13-11-1938: हैदराबाद के शासक निजाम के कृत्यों से तंग आकर वहां की जनता युद्धपथ पर अग्रसर हो गई। नये हिन्दू मन्दिर बनाने की इजाजत तो दूर पुराने मन्दिर की मरम्मत करने में भी कठिनाई पैदा हो गई थी। आर्यसमाज ने प्रयत्न किया कि किसी भी प्रकार शासक को समझाया जा सके और वह सत्य व न्याय का पल्ला न छोड़े। ‘प्रभुता पाये काहू मद नाही’ शासन और शक्ति का घमण्ड तो अच्छे-अच्छे को अन्धा कर देता है। परिणामतः दिनांक 20-12-1938 को शोलापुर में एक सम्मेलन का आयोजन आर्यसमाज को करना पड़ा। उस सम्मेलन के निमित्त एक सौ रुपये आज (दिनांक 13-11-1938) को भेज दिये गये और 400 रुपये जरुरत पड़ने पर भेजने का आश्वासन दिया गया। प्रो. महेन्द्र प्रताप शास्त्री, श्री नारायण दास भार्गव, वैद्य अमरनाथ, पं. चन्द्रमणि विद्यालंकार, श्री कृष्णचन्द्र वकील, श्री जगदर्शन सेवल, श्री चेतराम, सेठ रामकिशोर, श्री काशीनाथ तथा बाबू किशनलाल को सम्मेलन में जाने के लिए प्रतिनिधि बनाया गया था।

सन् 1939: बड़ा प्रयत्न करने पर भी समस्या सुलझी नहीं, जन-अधिकार मिले नहीं। फलतः आर्यसमाज ने देशव्यापी स्तर पर हैदराबाद में अपने अधिकार प्राप्त करने हेतु मोर्चा लगा दिया।

आर्य समाज अपने जीवन काल से ही टक्कर पर टक्कर लेने का आदी रहा है। कभी चैन से बैठा नहीं है, आराम की सांस इसे मिली नहीं है। परन्तु हैदराबाद-सत्याग्रह की तो बात ही कुछ निराली थी। नगर (देहरादून) में अद्भुत जोश, एक अविस्मरणीय चेतना विद्यमान थी। घर-घर में चर्चा का यही विषय था। लोगों के दिलों में यह बात बैठाने में आर्यसमाज सफल हो गया था कि न्याय के विरुद्ध लड़ना, निर्बल की सहायता करना हमारा धर्म है।

हैदराबाद में विजय (हिन्दुओं के धार्मिक अधिकारों को बहाल करवाना) प्राप्त करने का अर्थ था अंग्रेज के एक मजबूत साथी का धराशायी होना, अंग्र्रेज की रीढ़ की हड्डी टूटना। बड़े ठाठ से जलूस निकाले गये। आन्दोलन बढ़ता जाता था, लोगों के उत्साह और हौसले और उन्नत होते जाते थे। देहरादून से चार जत्थे सत्याग्रह में भेजे गए। पहला जत्था पं. चन्द्रमणि विद्यालंकार जी के नेतृत्व में गया। हमारी समाज के उत्साही सदस्य भाई धारासिंह जी भी उस जत्थे में उनके साथ गये थे। (हमने सन् 1978 व उसके बाद श्री धारा सिंह जी को आर्यसमाज के सत्संगों में आते-जाते देखा है, वह सौम्य चेहरे वाले छोटे कद के भरे हुए बदन के व्यक्ति थे। वह धोती-कुर्ता पहनते थे और मितभाषी थे। उनके एक पुत्र भी श्री महेन्द्र प्रताप आर्यसमाज में आते थे। उनके साथ एक बार हम उनके घर भी गये थे जो श्री यशपाल आर्य जी के घर के निकट था। हैदराबाद जाने वाले एक सत्याग्रही श्री जगदीश जी भी आर्यसमाज के सत्संगों में आते थे। उन्होंने कई बार हमें आशीर्वाद दिया था। उन्हें हैदराबाद आर्य-सत्याग्रह में भाग लेने के लिए पेंशन भी मिलती थी-मनमोहन)। हमने इस आन्दोलन में कितने जोश से भाग लिया था इसका अनुमान इस बात से हो सकता है कि इस सत्याग्रह के निमित्त 6,651.61 रुपये खर्च किये थे। (सन् 1939 में यह बहुत बड़ी धनराशि हुआ करती थी।) पुलिस और सरकारी प्रतिबन्धों के बावजूद हमारे बढ़ते कदम उस समय तक नहीं रुके जब तक सफलता प्राप्त नहीं कर ली गई।

इस धर्मयुद्ध में अपने प्राण देने वाले हुतात्माओं की नामावली ताम्रपत्र पर अंकित करके आर्य समाज भवन में लगायी गयी है। (यह नामावली सन् 1974 में आर्य समाज, धामावाला के बने नये भवन पर भी सुरक्षित रखी गई वा लगाई गई है जिसे कोई भी व्यक्ति समाज मन्दिर में जाकर देख सकता है।) मौजूदा देहरादूनवासियों में से अधिकांश पुराने लोगों के लिए यह घटना और आन्दोलन आज भी नये के समान ताजा होगा। इन पंक्तियों को उद्धृत करने के लिए हम स्व. श्री यशपाल आर्य जी का धन्यवाद करते हैं। हम आशा करते हैं कि पाठक इस विवरण से लाभान्वित होंगे।


Source :
This Article/News is also avaliable in following categories : National News , Chintan
Your Comments ! Share Your Openion

You May Like