हम आर्यजगत् के कीर्तिशेष विद्वान श्री मनोहर विद्यालंकार जी का लेख प्रस्तुत कर रहे हैं जो उन्होंने सन् 1986 से कुछ समय पूर्व लिखा था। इस लेख को डा. विनोदचन्द्र विद्यालंकार जी ने अपनी पुस्तक ‘एक विलक्षण व्यक्तित्व: स्वामी श्रद्धानन्द’ में स्थान दिया है। लेख के विद्वान लेखक श्री मनोहर विद्यालंकार ने लेख में अपने गुरुकुल प्रवेश सहित स्वामी श्रद्धानन्द जी से जुड़ी कुछ स्मृतियों को भी प्रस्तुत किया है। लेख अत्यन्त रोचक एवं पठनीय है।
श्री मनोहर विद्यालंकार लिखते हैं कि सन् 1915 की बात है। मेरा जन्म नहीं हुआ था। मेरे पिता जी आर्यसमाज के साथ नया संपर्क होने के कारण, गुरुकुल कांगड़ी के उत्सव पर गये थे। वहां उन्हें दस्त लग गये और उनकी दशा गंभीर हो गई। डा. सुखदेव जी उन दिनों चिकित्सालय के अध्यक्ष थे। परमात्मा की कृपा, डाक्टर महोदय की चिकित्सा और ब्रह्मचारियों द्वारा बारी-बारी से लगाई गयी डूयूटी में की गई सेवा के परिणामस्वरूप वे खतरे से बाहर हो गये। धीरे-धीरे स्वस्थ हो गये। इसप्रकार उन्हें नया जीवन प्राप्त हुआ। इन परिस्थितियों में गुरुकुल के वातावरण से प्रभावित होकर मेरे पिता जी ने मन ही मन निश्चय किया कि यदि मेरे पुत्र उत्पन्न हुआ तो उसे इसी संस्था में प्रविष्ट कराऊंगा और यहां की पूरी शिक्षा दिलाऊंगा।
सन् 1921 में मेरी (श्री मनोहर विद्यालंकार जी की) आयु पांच वर्ष की थी। पिताजी, अपनी व्यापार-यात्रा पर गुजरात जाते हुए मुझे अपने साथ ले गये। व्यापारिक कार्य समाप्त करके, घूमने की नीयत से, मुझे लेकर वे बम्बई चले गये। वहां रहते हुए एक दिन खुदाई में निकली हई प्राचीनकालीन एलिफैन्टा की गुफाएं देखने गये, उनके साथ मैं भी था। उन दिनों यह यात्रा, जहाज में न ले जाकर, बड़ी-बड़ी पाल की किश्तियों में हुआ करती थी।
एलिफैन्टा की इन गुफाओं को देखने के बाद जब हम वापस लौट रहे थे, तब सौभाग्य से हमें उस किश्ती में जगह मिली, जिसमें स्वामी श्रद्धानन्द जी विद्यमान थे। अभी कुछ ही दूर चले होंगे कि तेज हवाएं चल पड़ीं और किश्ती डगमगाने लगी। उसमें बैठे लोग भी घबरा गये। ऐसा लगता था कि किश्ती अब डूबी या तब डूबी।
स्वामी जी ने सबको सान्त्वना दी और परमेश्वर को याद करने और गायत्री मन्त्र जपने को कहा। साथ ही यह भी बताया कि घबराने का कोई लाभ नहीं, सच्चे हृदय से निकली हुई पुकार को वह अवश्य सुनता है। तदनन्तर हवा के शान्त होने पर, अपनी ओर से एक अपील की और कहा कि मेरी बात को ध्यान से सुनकर, उस पर विचार करना और संभव हो तो उसे पूरा करना। मेरी बात मानने से तुम्हारा और तुम्हारी सन्तान का लाभ ही होगा। निश्चय करो कि अपने एक-एक पुत्र को गुरुकुल कांगड़ी (हरिद्वार) में दाखिल कराओगे।
इस पर मेरे पिता जी ने दोबारा मुझे गुरुकुल में प्रविष्ट कराने का संकल्प करके, स्वामी जी से पूछा कि मैं इसे लेकर कब गुरुकुल आऊं? स्वामी जी ने 8वां वर्ष लगने पर गुरुकुल के उत्सव पर आकर प्रवेश कराने की सलाह दी।
उपरिलिखित दोनों घटनाओं के पणिामस्वरूप मुझे गुरुकुल कांगड़ी में प्रविष्ट कराया गया।
सन् 1924 के वार्षिकोत्सव से 10 दिन पहले ही मेरे माता-पिता मुझे लेकर (मैं उनकी पहली और अेकली संतान था) गंगा पार वाली गुरुकुल की पुण्य-भूमि पहुंच गये। वहां जाकर वे गुरुकुल के प्रसिद्ध भीमसेनी सुरमे के आविष्कर्ता, बंगाली डाक्टर आर्यन जी के पास गुरुकुल के पक्के परिवार गृह के मध्य फूंस की छत वाली कुटिया में ठहरे।
उन दिनों गुरुकुल में विद्यार्थी का प्रवेश, आजकल के मैडिकल कालिज या पब्लिक स्कूल के प्रवेश से अधिक कठिन था, क्योंकि वहां न सिफारिश चलती थी, न दान का विचार होता था। आजकल के महाविद्वान् श्री युधिष्ठिर मीमांसक और भारत सरकार के एक भूतपूर्व मन्त्री भी गुरुकुल में प्रवेश के लिए गये थे, किन्तु शारीरिक अयोग्यता और आयु की अधिकता के कारण इन दोनों को प्रवेश नहीं मिल सका था।
गुरुकुल प्रवेश की इस कठिनता को जानकर ही मेरे पिता जी ने घर का नाम गुरुकुल के योग्य न समझकर मेरा नाम ‘‘ज्ञानेन्द्र” रख दिया था। लेकिन पता नहीं क्यों, मेरा वह नाम भी बदल कर ‘‘मनोहर” कर दिया गया।
उसी उत्सव पर भीषण आग लगी, जिसमें एक शिशु जल कर मर गया। यह खबर पाते ही स्वामी जी तत्काल घटना-स्थल पर पहुंचे, शिशु को अपनी गोद में लेकर बैठ गये, माता-पिता को सान्त्वना देते रहे और फिर अपने गेरुए वस्त्र से ढक कर उसे अन्तिम संस्कार के लिए ले गये। स्वामी जी के इस व्यवहार का सारी जनता पर बड़ा अच्छा प्रभाव हुआ और बच्चे के माता-पिता का शोक भी बहुत कुछ कम हो गया।
वर्षा ऋतु मे होने वाले दीर्घावकाश के दिनों में हम प्राथमिक श्रेणियों के विद्यार्थी देहरादून गये थे। वहां एक दिन समाचार मिला कि गंगा की बाढ़ में गुरुकुल की प्रायः सभी इमारतें ढह और बह गई हैं।
दीर्घावकाश के बाद गुरुकुल वापस पहुंचने पर हमारी प्रथम श्रेणी के विद्याथियों को गंगा के किनारे, खटवे के वृक्ष के पास बने स्वामी जी के बंगले में रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। बाढ़ से पूर्व इस बंगले का वही महत्व था, जो उन दिनों प्रान्त की राजधानी में गवर्नर हाउस का हुआ करता था।
उन दिनों के निवास की स्मृति आते ही बरबस कुल-गीत की निम्न पंक्ति याद आ जाती हैः
‘तेरे वनों की स्तब्धता में दिव्य कोई राग है।’
ऐसा लगता है कि वनों, पर्वतों पर घूमने का शौक, उस समय पड़े संस्कारों का ही परिणाम है। इस शौक ने कभी चैन से बैठने नहीं दिया। देश के एक छोर से दूसरे तक प्रत्येक तीर्थ, ऐतिहासिक स्थल और विशिष्ट प्रदेश को देखने की प्रेरणा की। इसके अतिरिक्त कैलाश-मानसरोवर की यात्रा, यूरोप-भ्रमण, रशिया के युवक समारोह और जापान में होने वाले सांस्कृतिक समारोह में भाग लेने की अन्तःप्रेरणा का श्रेय भी इन्हीं संस्कारों को दिया जाना चाहिये।
बाढ़ के बाद रहने की सारी व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो गई थी। इसलिये द्वितीय श्रेणी में हमें कनखल स्थित लण्ढौर की कोठी में और कुछ मास बाद मायापुर वाटिका में रखा गया।
उन दिनों हमें कभी-कभी मायापुर और कनखल या नहर की सड़क पर भ्रमण करते हुए स्वामी श्रद्धानन्द जी के दर्शन हो जाया करते थे। वे गुरुकुल के ब्रह्मचारियों को देखकर खड़े हो जाते थे। हम उनके चरण-स्पर्श करते थे ओर वे हम सब के सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया करते थे।
उन दिनों गुरुकुल केवल शिक्षा संस्था न होकर भारतीय संस्कृति के प्रसार और मातृभूमि के प्रति गरिमा की भावना को जागृत करने का एक आन्दोलन था। इसी श्रृंखला में श्री रवीन्द्रनाथ की विश्वभारती, काशी विद्यापीठ और बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना हुई थी।
स्वामी श्रद्धानन्द जी का बलिदान
सन् 1926 के दिसम्बर मास में अब्दुल रशीद नामक एक मुसलमान ने दिल्ली में, प्यास का बहाना करके उनके सेवक को पानी लाने के लिए भिजवा कर, एकान्त पाकर पिस्तौल से गोलियां चलाकर उनकी हत्या कर दी। उनकी शव यात्रा, दिल्ली के इतिहास में अभूतपूर्व थी।
हम छोटे विद्यार्थी उस समय की खबरों को सुनकर उन्हें विश्व का सबसे महान् परुष समझते थे और अपने को उनके द्वारा स्थापित संस्था में होने के कारण अत्यन्त गौरवपूर्ण मानते थे। (यहां श्री मनोहर विद्यालंकार जी का लेख समाप्त होता है।)
आगामी 23 दिसम्बर, 2021 को स्वामी श्रद्धानन्द जी का 95वां बलिदान दिवस है। हम स्वामी श्रद्धानन्द जी को उनके बलिदान दिवस पर श्रद्धांजलि देते हैं। ईश्वर से प्रार्थना है कि वह ऋषि दयानन्द एवं स्वामी श्रद्धानन्द के भक्तों को प्रेरणा करें कि वह स्वामी श्रद्धानन्द जी के स्वप्नों को साकार करने का पुरुषार्थ करें। हम वैदिक विद्वान श्री मनोहर विद्यालंकार जी को भी श्रद्धांजलि देते हैं। हम ‘एक विलक्षण व्यक्तित्व: स्वामी श्रद्धानन्द’ के लेखक महानुभाव कीर्तिशेष डा. विनोद चन्द्र विद्यालंकार जी और पुस्तक के प्रकाशक महोदय का भी आभार व्यक्त करते हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
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