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कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा - गोवर्धन पूजा। 

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23 Oct 25
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कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा - गोवर्धन पूजा। 

कार्तिक अमावस्या को दीपावली मनाए जाने के अगले दिन यानी कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा ( एकम्) को गोवर्धन पूजा मनाई जाती है। इस पूजा की विशेषता यह है कि इसकी शुरूआत भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं की थी।

भगवान श्रीकृष्ण के धरा पर अवतीर्ण हो जाने के बाद भी गोकुल में वहां के लोग देवराज इन्द्र की यज्ञों के द्वारा पूजा करते थे। जहां साक्षात् भगवान स्वयं उपस्थित हों , वहां उन्हें छोड़कर दूसरे की पूजा करना उचित नहीं है।

भगवान श्रीकृष्ण नंदबाबा सहित बड़े-बूढ़े गोपों से कहा -

 

*ज्ञात्वा अज्ञात्वा च कर्मणि जनोऽयमनुतिष्ठति।* 

*विदुष: कर्मसिद्धि: स्यात्तथा नाविदुषो भवेत्।।* 

 

अर्थात् यह संसारी मनुष्य समझे - बिना समझे अनेक प्रकार के कर्मों का अनुष्ठान करता है। उसमें से समझ - बूझकर करने वाले पुरुषों के कर्म जैसे सफल होते हैं , वैसे नासमझों के नहीं होते।

 

तब नंद बाबा ने कहा कि यह कार्य हमारे कुल परंपरा से चला आ रहा है। भगवान श्रीकृष्ण परंपरा से भी आई हुई कुरीतियों का विरोध करते हैं तथा उसमें युगानुकूल परिवर्तन करते हैं। भगवान श्री कृष्ण विश्व के प्रथम क्रांतिद्रष्टा थे।

उन्होंने कहा - 

*नित्यं वनौकसस्तात वनशैलनिवासिन:।।* 

हम लोग तो सदा के वनवासी हैं। वन और शैल (पर्वत) ही हमारे घर हैं।

अतः हमें इंद्र-यज्ञ के लिए जो सामग्रियां इकट्ठी की गई हैं ,उन्हीं से गोवर्धन गिरिराज - यज्ञ का अनुष्ठान करें। इसके पश्चात् भगवान श्रीकृष्ण की प्रेरणा से अपना तथा गौओं का कल्याण करने के लिए सभी ने भगवान गिरिराज का विधिपूर्वक पूजन किया।

 

देवराज इंद्र को अपने पद का बड़ा घमंड था। वह समझता था कि मैं ही त्रिलोकी का ईश्वर हूं। जब उसे यह पता लगा कि उसकी पूजा बंद कर दी गई है , तब उसने क्रोध में मेघों को आज्ञा दी कि नंद बाबा के ब्रज पर प्रचंड आंधी - बिजली के साथ मूसलाधार पानी बरसाओ। प्रबल झंझावात और मूसलाधार बारिश से सारे लोग व्याकुल हो गए। 

भगवान मन-ही-मन सोचने लगे -

 

*न हि सद्भावयुक्तनां सुराणामीशविस्मय:।* 

*मत्तोऽसतां मानभंग: प्रशमायोकल्पते।।* 

 

अर्थात् देवता लोग तो सत्त्वप्रधान होते हैं। इनमें अपने ऐश्वर्य और पद का अभिमान नहीं होना चाहिए। अतः यह उचित ही है कि सत्त्वगुण से च्युत दुष्ट देवताओं का मैं मान-भंग करूं। इससे अंत में उन्हें शांति ही मिलेगी।

 

तदनन्तर भगवान श्रीकृष्ण ने खेल-खेल में एक ही हाथ से गिरिराज गोवर्धन को उठा लिया और उस पर्वत को धारण कर लिया। सारे बृजवासी अपनी गौओं तथा अन्य सामग्रियोंसहित उस पर्वत के नीचे आश्रय ले लिए।

सात दिनों तक लगातार बारिश हुई। भगवान श्रीकृष्ण भूख-प्यास की पीड़ा , आराम-विश्राम की आवश्यकता आदि सब कुछ भूल कर सात दिनों तक अनवरत उस पर्वत को उठाए रखा। वे एक कदम भी वहां से इधर-उधर नहीं हुए।

श्रीकृष्ण की योग-माया का यह प्रभाव देखकर इंद्र के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। अंत में इंद्र ने भगवान श्रीकृष्ण से क्षमा मांग ली और बारिश बंद हो गयी।

तब सर्वशक्तिमान भगवान श्रीकृष्णा ने खेल-खेल में ही गिरिराज को पूर्ववत् उसके स्थान पर रख दिया।


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