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आईएसबीटीआई की तीन दिवसीय 42वीं कांफ्रेंस ‘ट्रांसकोन 2017’ का समापन

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11 Dec 17
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कोटा(डॉ. प्रभात कुमार सिंघल)| इंडियन सोसाइटी ऑफ ब्लड ट्रांसफ्यूजन एंड इम्यूनो हेमेटोलॉजी यानि आईएसबीटीआई, मेडिकल काॅलेज कोटा तथा ब्लड बैंक सोसायटी की ओर से आयोजित तीन दिवसीय 42वीं कांफ्रेंस ‘ट्रांसकोन 2017’ का रविवार को मेडिकल काॅलेज आॅडिटोरियम में समापन किया गया। समापन समारोह में विधायक प्रहलाद गुंजल, मेडिकल काॅलेज के प्रिंसीपल डाॅ. गिरीश वर्मा, आईएसबीटीआई के नेशनल प्रसीडेंट डाॅ. युद्धवीर सिंह, सचिव डाॅ. टीआर रैना, राजसीको के डायरेक्टर डाॅ. एसएस चैहान, आयोजन के चैयरपर्सन डाॅ. वेदप्रकाश गुप्ता, आयोजन सचिव डॉ. एचएल मीणा अतिथि के तौर पर मौजूद रहे।

समारोह को संबोधित करते हुए विधायक गुंजल ने कहा कि जागृति और प्रेरणा के बीच आईएसबीटीआई सेतु का कार्य कर रही है। मेडिकल शिक्षा एक संवेदनशील विषय है, जिसमें नवाचार जरूरी हैं। राजस्थान भौगालिक दृष्टि से सबसे बड़ा राज्य होने के बावजूद किडनी का ट्रांसप्लांट दो वर्ष पूर्व प्रारंभ हो पाया था। दुनिया के नवाचार से हम अभी 20-30 वर्ष पीछे चल रहे हैं। अपने उज्ज्वल इतिहास पर गौर करते हैं तो हमारा सामथ्र्य इतना बड़ा था, जिसे हमने खो दिया है। आज ब्रिटेन चूहे के सिर का प्रत्यारोपण कर रहा है, जिसे लाखों वर्ष पूर्व भगवान गणेश के सिर पर हाथी का सिर लगाकर भारतीय मनीषी कर चुके हैें। चिकित्सा विज्ञान ऐसे उदाहरणों को मानने को तैयार नहीं होता है, लेकिन जब उसी को पश्चिम के लोग करने लगते हैं तो उसका अनुकरण किया जाता है।

उन्होंने कहा कि आज का विज्ञान उस विज्ञान के नजदीक भी नहीं पहुंच पाया है, जहां कभी भारतीय ऋषि पहुंचे थे। उन्होंने रामायण का उदाहरण देते हुए कहा कि ‘वर विज्ञान कठिन कोदण्डा’ के द्वारा रामायण में उसी व्यक्ति के जीतने की संभावना बताई गई है, जिसके पास सर्वश्रेष्ठ विज्ञान है। आज आर्यभट्ट की गणित के सूत्र पढकर हमारे विज्ञानी सफलतापूर्वक उपग्रह प्रक्षेपण कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि गांव और गरीब को रक्त पहुंचाने के लिए सदैव तत्पर रहूंगा। इस दौरान ओरल पेपर प्रस्तुति में डाॅ. अभिनव वर्मा तथा डाॅ. कानू निमावत को प्रथम स्थान मिला। वहीं डाॅ. नागार्जुन पालुमारू को द्वितीव व डाॅ. कविता, डाॅ. नीलिमा सोनी, प्रियंका भास्कर को तृतीय स्थान दिया गया। इसी प्रकार, पोस्टर में डाॅ. प्रशांत गुप्ता को प्रथम, डाॅ. राकेश लुहार को द्वितीय तथा डाॅ. रितु राॅय को तृतीय स्थान मिला। इसके अलावा क्विज प्रतियोगिता में निपुण व अशोक ने प्रथम, तो सरिता व रश्मि ने द्वितीय तथा अंकुर व विवके ने तृतीय स्थान अर्जित करने पर स्मृति चिन्ह भेंट किए गए।

कांफ्रंेस के अंतिम दिन रविवार को डाॅ. दीपिका जैन, नागार्जुन पालुमारू, डाॅ. स्वाति कुलकर्णी, सुशांत कुमार, डीमेलो उज्ज्वला, रश्मि पाराशर, अमिषा देसाई, सान्या शर्मा, राकेश लुहार, विनोद अग्रवाल, डाॅ. स्वाति कुलकर्णी, डाॅ. आशीष वर्मा, डाॅ. आशीष जैन, डाॅ. अर्चना वाजपेयी, डाॅ. ऋचा गुप्ता, डाॅ. रूपम जैन, डाॅ. गंगदीप कौर, यशा शाह, प्रियंका भास्कर, अंजलि बाहेती, अंकुर गोयल, ईश्वर प्रसाद, प्रीति पोल, निपुन प्रिंजा, अशोकपाल, गणेश सिंह, अतुल जैन, डाॅ. सीबीदास गुप्ता, डाॅ. किशोर खत्री, डाॅ. रेखा हंस, डाॅ. संजय जाधव, डाॅ. अपूर्व घोष, भुवनेश गुप्ता, डाॅ. अरूण माथुर, डाॅ. इटालिया ने ओरल पेपर प्रस्तुत किए तथा व्याख्याान दिए। समापन समारोह पर मेडिकल काॅलेज के एडिशनल प्रिंसीपल डाॅ. नरेश राॅय, डाॅ. संजय जाधव, डाॅ. आशीष जैन, डाॅ. राजीव सक्सेना, डाॅ. एनके भाटिया, डाॅ. शरद जैन, डाॅ. नरेन्द्र वसावदा, डाॅ. सुधा, डाॅ. वन्दना, डाॅ. सरिता, डाॅ. जगजीत शर्मा समेत कईं रक्त विशेषज्ञ मौजूद रहे।

प्लेटलेट नहीं पानी देना चाहिए डेंगू रोगी को
कांफे्रंस में प्रजेंटेशन देते हुए चण्डीगढ मेडिकल काॅलेज में एसोसिएट प्रोफेसर डाॅ. गगनदीप कौर ने कहा कि डेंगू के मरीज को पानी अधिक पीना चाहिए। अच्छी डाइट लेने और नींबू और नारियल आदि का पानी लेने पर प्लेटलेट्स चढाने की आवश्यकता नहीं रह जाती है। उन्होंने कहा कि ठोस सबूत के लिए रोगी की केस स्टडी की जाती है। हालांकि उन्होंने एविडेंस के लिए टेस्ट लिखने की बात को नकार दिया। डेंगू में प्लेटलेट की संख्या की गणना जरूरी है, लेकिन उस संख्या को देखकर ही कईं बार रोगी घबराने लगता है।

प्रेगनेंसी में पेट के अंदर बच्चे को हो जाता है एनिमिया
नेशनल इन्स्टीट्यूट आॅफ इम्यूनो हेमेटोलॉजी मुम्बई की डिप्टी डायरेक्टर डाॅ. स्नेहलता गुप्ता ने कहा कि आज भी प्रेगनेंसी के समय बच्चे को पेट के अंदर ही खून की कमी होने के मामले सामने आते हैं। जिसमें 38 सप्ताह का भू्रण भी 5 ग्राम से कम को होता है। ऐसे में बच्चे को ब्लड ट्रांसफ्यूजन की जरूरत होती है। ऐसे बच्चों के हाथ पैर कमजोर तथा सिर व पेट बड़ा होने लगता है। इससे लाल रक्त नष्ट हो जाता है तो उसे इन्ट्रा यूटेराइन ट्रांसफ्यूजन के द्वारा रक्त पहुंचाया जा सकता है। बच्चे के बाहर आने के बाद तो इलाज संभव हो पाता है, लेकिन अंदर इलाज बहुत मुश्किल रहता है। इसके लिए महिलाओं में स्वयं के देखभाल की कमी जिम्मेदार है। उन्होंने कुछ हद तक करप्ट प्रैक्टिसिंग को सिजेरियन डिलीवरी के लिए जिम्मेदार माना।

मोबाइल क्रांति से रक्तक्रांति को मिला सहयोग
आईएसबीटीआई के राजस्थान चैप्टर के सेक्रेटरी भुवनेश गुप्ता ने इनफोर्मेशन टेक्नोलाॅजी इन ब्लड ट्रांसफ्यूजन विषय पर संबोधित करते हुए कहा कि आज मोबाइल क्रांति नें भी रक्तक्रांति को बढावा देने में भूमिका अदा की है। आज मोबाइल के द्वारा हर सूचना आसानी से लोगों तक पहुंच रही है। उन्होंने बताया कि सोशल मीडिया पर बनाए गए गु्रप के कारण से 10 लोगों को साथ लेकर चला कांरवा आज 250 की संख्या तक पहुंच गया है। जो रक्तक्रांति के लिए कार्य करने के इच्छुक हैं। सूचना क्रांति भी रक्तक्रांति के लिए आधार बनकर उभरी है।

वर्ष 2020 तक हासिल करना होगा 100 प्रतिशत स्वैच्छिक रक्तदान का लक्ष्य
फेडरेशन आॅफ वाल्यूंटरी ब्लड डोनेशन के प्रेसीडेंट डाॅ. एनके भाटिया ने कहा कि भारत सरकार के द्वारा वर्ष 2002 में पाॅलिसी बनाई थी, जिसमें 2005 तक 100 प्रतिशत स्वैच्छिक रक्तदान हासिल करना था। जबकि आज 2017 में हम केवल 50 प्रतिशत स्वैच्छिक रक्तदान तक ही पहुंच पाए हैं। ऐसे में डब्ल्यूएचओ की ओर से जारी टारगेट के अनुसार 2020 तक 100 प्रतिशत स्वैच्छिक रक्तदान करने के लिए कृत संकल्पित होना चाहिए। उन्होंने कहा कि आज भी 50 से 60 प्रतिशत रक्त रिप्लेमेंट के द्वारा ही प्राप्त हो रहा है, यह स्थिति चिंताजनक है। इसमें सरकार और एनजीओ दोनों को ही अपनी भूमिका बढानी होगी।

उन्होंने कहा कि देश में 1 लाख महिलाएं प्रतिवर्ष डिलीवरी के दौरान खून की कमी होने से तथा डेढ लाख लोग दुर्घटना के बाद रक्त न मिलने के कारण मर जाते हैं। वहीं, 75 प्रतिशत महिलाएं एनीमिया, 3 से 6 प्रतिशत लोग थैलीसीमिया से ग्रस्त हैं। इसके बावजूद भारत में प्रति एक हजार पर 3 से 5 लोग रक्तदान करते हैं, जबकि पड़ौसी श्रीलंका में ही यह संख्या 35 है। इस समय देश में 30 से 40 लाख नौजवान है, जिनकी उम्र 18 से 35 वर्ष के बीच है। यही उम्र स्वैच्छिक रक्तदान के लिए भी सबसे आदर्श मानी जाती है। इन नौजवानों को प्रेरित करते हुए स्वैच्छिक रक्तदान की ओर बढाया जा सकता है। देश में 1.12 मिलियन यूनिट ब्लड एकत्र होता है। यदि इस रक्त से रक्त कणिकाएं, प्लाज्मा और प्लेटलेट निकालकर कम्पोनेंट अलग किए जाएं तो एक यूनिट रक्त ही तीन लोगों के काम आ सकता है। जबकि अभी भी देश मे ंएकत्रित 40 प्रतिशत रक्त बिना कम्पोनेंट निकाले ही प्रयोग लिया जा रहा है।

उन्होंने कहा कि महिलाओं में प्रकृति ने स्वयं ही रक्तदान का सिस्टम ‘मासिक धर्म’ के रूप में बनाया है। जिसके कारण से महिलाएं जब तक ऋतुस्राव में रहती है, उन्हें बीपी, डायबिटीज, कोलेस्ट्रोल हाइपर, दिमाग की नाली जैसी बीमारियां नहीं होती हैं और वे मेडिकली स्ट्रोंग होती हैं। रक्तदान करने से खून के पतले होने के कारण से हार्ट अटैक की संभावना भी समाप्त हो जाती है। उन्होंने कहा कि ऐसी रिसर्च की जा रही है, जिसमें मासिक धर्म में निकले रक्त का उपयोग भी जीवनदान में किया जा सकेगा। इस रक्त से स्टेमसेल निकालकर रोगी को ट्रांस्प्लांट करने पर काम किया जा रहा है।

उन्होंने कहा कि देश में 50 हजार लोग थैलिसीमिया के रोगी हैं, जिनको जिन्दगी देने के लिए प्रतिवर्ष 12 लाख यूनिट रक्त खर्च करना पड़ता है। यदि देश में मौजूद 60 लाख अविवाहित युवाओं का सीबीसी टेस्ट करके एचबी कोर एन्जाइम टेस्ट का पता कर लिया जाए थैलिसेमिक कैरियर की पहचान की जा सकती है। जिससे उनके होने वाले बच्चे को थैलिसीमिया होने से रोका जा सकता है। उन्होंने कहा कि 1 से 6 प्रतिशत लोगों में हैपेटाइटिस-सी का वायरस होता है, लेकिन कभी टेस्ट नहीं होने के कारण से वे 25 से 30 वर्ष की उम्र में लीवर कैंसर से मर जाते हैं। इसे स्वैच्छिक रक्तदान को बढावा देकर ही रोका जा सकता है।
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