"बुलावा "- उर्मिला फुलवारिया
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23 Jun 16
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परमपिता परमेश्वर की सत्ता प्रकृति के कण-कण में व्याप्त हैं। प्रकृति के विभिन्न उपादान मौन रूप में मुझे अपनी ओर बुला रहे हैं यह मेरे उर को प्रतिपल आभास हो रहा है ।
परमात्मा द्वारा स्वयं में समाहित करने के लिए आत्मा अर्थात मुझे मौन रूप में बुलाने के भाव को इंगित करती मेरी रचना।
निशीथ मधुरिमा थी स्तब्ध
जग शिशु सा बन नादान
चकित चितवन से निर्निमेष
निहार रहा था लावण्य अंजान
प्राणी नैश स्वप्न में खोये थे
अपनों के संग निर्भय होकर सोये थे ,
न जाने, खद्योतों से कौन
बुला रहा , मुझको मौन ? ।।१।।
तड़ित द्युति नभ में
मेघ उमड़-घुमड़ कर आए
उच्छ्वास वेग से चली पवन
बारिश अपने संग लाए
रत्नगर्भा की शमित हुई प्रेम अगन
बरखा की बूँदों में मन हो गया मगन ,
न जाने , चपला में कौन
बुला रहा , मुझको मौन ? ।।२।।
वसुधा मधुमास का पाकर साथ
आ जाता उसमें यौवन भार
दिगन्त में मादकता छाई
बसंत ले आया जीवन में बहार
ऋतुराज नई उमंग ,
नई आशा का जाम छलकाता
तब हिय प्रेम का मधुर राग सुनाता ,
न जाने, सौरभ के बहाने कौन
बुला रहा, मुझको मौन ? ।।३।।
कनक छाया में रवि की किरणें
ले सौरभीला समीर को संग
धरा पर धीरे-धीरे उतरी अप्सरा सी
खग कूजन से प्रफुल्लित जग
उषा की अपूर्व मन मोहिनी छटा
जीवन से संतापो का दूकूल हटा ,
न जाने , निद्रालस में कौन
खोल देता , मेरे दृग मौन ? ।।४।।
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