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’ऋशि-भक्त वेद-विदुशी आचार्या सूर्यादेवी से अजमेर में भेंट एवं वार्तालाप‘

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09 Dec 16
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आर्य समाज के सभी विद्वान एवं विदुशी बहिनें आचार्या सूर्यादेवी जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से परिचित हैं। आपकी षिक्षा दीक्षा आचार्या प्रज्ञादेवी जी के वाराणसी स्थित जिज्ञासु स्मारक पाणिनी कन्या गुरुकुल में सम्पन्न हुई है। हमें ६-८ दिसम्बर, वर्श १९९६ में आयोजत इस गुरुकुल के रजत जयन्ती समारोह में जाने का अवसर मिला था। वहां पहली बार वेद विदुशी आदरणीय बहिन सूर्यादेवी जी के हमने दर्षन किये थे। उनसे वार्तालाप भी किया था और उस जानकारी के आधार पर एक संक्षिप्त लेख लिखा था जो जालन्धर से प्रकाषित आर्य प्रतिनिधि सभा, पंजाब के साप्ताहिक मुख पत्र में प्रकाषित हुआ था। बहिन जी आर्यजगत् की वेदों की उच्च कोटि की विदुशी देवी हैं। आपने वेदों से संबंधित कुछ विद्वानों की षंकाओं के समाधान में भी पुस्तकों की रचना की है। आपकी कुछ पुस्तकें भी हमारे पास हैं जिनमें से एक है ’त्रिपदी गौ‘। विगत लम्बे समय से हम आफ वैदुश्य से पूर्ण लेखों को आर्य जगत की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में पढते आ रहे हैं। एक बार ऋशि जन्मभूमि टंकारा में भी हमनें बहिन मेधा देवी जी एवं गुरुकुल की कुछ ब्रह्मचारियों के साथ आफ दर्षन किये थे। देहरादून के मानव कल्याण केन्द्र वा द्रोणस्थली कन्या गुरुकुल एवं श्री मद्दयानन्द आर्श ज्योतिर्मठ गुरुकुल पौंधा, देहरादून में भी आफ दर्षन करने व प्रवचन सुनने का सौभाग्य हमें अनेक बार मिला है। विगत दिनों हमें पता चला था कि आप परोपकारिणी सभा, अजमेर के निवेदन पर ऋशि दयानन्द के यजुर्वेद भाश्य के सम्पादन आदि विशयक कुछ वृहत कार्य कर रही हैं। आपकी अनुजा बहिन धारणा जी षिवगंज राजस्थान में कन्याओं का एक गुरुकुल चलाती हैं। आप भी वाराणसी स्थित डा. प्रज्ञादेवी जी के गुरुकुल से स्नातिका हैं। धारणा बहिन जी को इस वर्श परोपकारिणी सभा द्वारा आयोजित ऋशि मेले के कार्यकम में सम्मानित भी किया गया है जिसम हम भी सम्मिलित थे। बहिन धारणा जी को गुरुकुल के संचालन में आचार्या सूर्यादेवी जी का पूरा सहयोग मिलता है। बहिन सूर्यादेवी जी का अधिकांष समय गुरुकुल में अध्ययन वा अध्यापन में ही व्यतीत होता है। हम अपने ज्ञान व अनुमान के आधार पर मानते हैं कि आप वेदों व वैदिक साहित्य की अधिकारी विदुशी देवी हैं। हमारा यह भी मानना है कि आपका यह गुरुकुल देष के कुछ गिने चुने कन्या गुरुकुलों में अन्यतम है। आर्य बन्धुओं का कर्तव्य है कि बहिन सूर्यादेवी जी को सभी प्रकार के दायित्वों से मुक्त रखने के लिए उनकी गतिविधियों में अधिकाधिक सहयोग करें ओर उनसे उनकी योग्यता के अनुसार आर्यसमाज के वर्तमान व भविश्य की दृश्टि से उत्तम व महत्वपूर्ण कार्यों को सम्पन्न करायें।

हमें लगता है कि बहिन सूर्यादेवी जी में वेदों का भाश्य करने की दक्षता है। ऋशि दयानन्द जी के बाद उनके अन्य अनुयायियों वा षिश्यों ने चारों वेद, किसी एक वेद व वेद के किसी भाग पर भाश्य व टीकायें आदि लिखी हैं। हमारे यह सभी विद्वान पुरुश वर्ग से ही हैं। ऋशि दयानन्द जी के बाद वेदभाश्य करने वालों में श्री हरिषरण सिद्धान्तालंकार, श्री जयदेव विद्यालंकार, पं. आर्यमुनि जी, स्वामी ब्रह्ममुनि जी, पं. षिवषंकर षर्मा काव्यतीर्थ, पं. तुलसी राम स्वामी, पं. विष्वनाथ विद्यालंकार विद्यामार्तण्ड, डा. रामनाथ वेदालंकार विद्यामार्तण्ड, पं. क्षेमकरण दास त्रिवेदी, आचार्य वैद्यनाथ षास्त्री, पं. हरिष्चन्द्र विद्यालंकार आदि प्रमुख विद्वान हैं। स्वामी डा. सत्यप्रकाष सरस्वती एवं डा. सत्यकाम विद्यालंकार जी ने चारों वेदों का अंग्रेजी में अुनवाद किया है। स्वामी जगदीष्वरानन्द सरस्वती जी ने भी सामवेद पर भाश्य किया है। पं. विष्वनाथ विद्यालंकार, आचार्य डा. रामनाथ वेदालंकार, डा. सत्यप्रकाष जी तथा स्वामी जगदीष्वरानन्द सरस्वती जी का तो हमें सान्निध्य भी प्राप्त रहा है। यह सभी वेद भाश्यकार पुरुश ही हैं। मध्यकाल में हमारे आचार्यों ने अज्ञानता वा स्वार्थ के कारण समाज की सभी स्त्री व षूद्रों को वेदाध्ययन के अधिकार से वंचित कर दिया था और उनके वेदाध्ययन करने पर अनेक अनुचित दण्डात्मक विधान किये थे जिनसे मुख्यतः नारी जाति में वेदों के अध्ययन व श्रवण की परम्परा पूर्णतयः बन्द हो गई थी। मध्यकाल व उससे पूर्व किसी वेदों की भाश्यकार विदुशी महिला का नाम इतिहास में पढने को नहीं मिलता। कुछ वेद मन्त्रों के अर्थों की साक्षात्कत्री अवष्य ही कुछ ऋशिकायें हैं परन्तु वेदों के भाश्यकारों में एक वा अधिक स्त्रियों के नाम भी अवष्य होने चाहियें, ऐसा हमें लगता था। हमने अपने मित्रों व कुछ लेखों के माध्यम से बहिन सूर्यादेवी जी सहित किसी विदुशी बहिन द्वारा चार में से किसी एक व अधिक का भाश्य करने की अपनी इच्छा व्यक्त की थी। बहिन सूर्यादेवी जी व्यस्त रहती हैं, अतः वह इस कार्य में प्रवृत्त नहीं हो सकी थीं। अजमेर में दिनांक ४ से ६ नवम्बर, २०१६ के ऋशि मेले के दूसरे दिन हमें बहिन जी से संक्षेप में बातचीत करने का अवसर मिल ही गया तो अनेक बातों के साथ हमने उन्हें किसी एक वेद का भाश्य करने के कार्य को भी ध्यान में रखने का निवेदन किया। इस बार बहिन जी ने हमें इस विशय पर गौर करने वा ध्यान देने की बात कही है। हमें लगता है कि यह उनकी योग्यता का सबसे अधिक उपयोग हो सकता है और वह इसे अवष्य करेंगी। यदि बहिन जी इस कार्य में प्रवृत्त हो जाती हैं और ईष्वर की कृपा से यह कार्य पूरा हो जाता है तो हम पौराणिक जगत को यह सन्देष दे सकते हैं कि तुम्हारें आचार्यों ने जिस मातृषक्ति को वेदाध्ययन से वंचित कर दिया था, उसी वेदाध्ययन द्वारा ऋशि दयानन्द भक्त व उनकी अनुयायी एक स्त्री, बहिन व मातृषक्ति ने वेदों का भाश्य कर तुम्हारी उस मान्यता को धराषायी कर दिया है। इससे हमारे गुरुकुल की योग्य छात्राओं को भी भविश्य में वेद और वेद विशयक प्रमुख ग्रन्थों पर टीका आदि लिखने की प्रेरणा मिलेगी। महर्शि दयानन्द जी यही चाहते थे कि सभी मनुश्यों को वेदाध्ययन का अवसर मिले और वह अधिक से अधिक इस कार्य में प्रवृत्त होकर कुछ ऐसा कार्य करें जिससे वेदाज्ञा ’’कृण्वन्तों विष्वमार्यम्‘‘ के उद्देष्य में प्रगति होकर वह भविश्य में पूरा हो सके। यदि संसार से अविद्या का समूल उच्छेद करना है तो वेदाध्ययन को जन-जन में प्रवृत्त करना ही होगा। विज्ञान ने जिस प्रकार उन्नति करते हुए नाना प्रकार के कम्प्यूटर और विभिन्न सुविधाओं से सज्जित मोबाइल फोन आदि अनेकानेक सुविधाजनक यन्त्र वा वस्तुओं का निर्माण किया है, उसी प्रकार आर्यसमाज द्वारा प्रभावषाली रूप से जन-जन में वेद प्रचार करते रहने से वह समय अवष्य आ सकता है कि अब अविद्या अपनी समाप्ती पर आ जाये, अविद्याजन्य सभी मत-मतान्तर समाप्त हो जायें और लोग वैदिक मान्यताओं को जानकर इस विचारधारा को ही अपने जीवन का उद्देष्य व आचरण स्वीकार करें।

अजमेर में देहरादून से हमारे वरिश्ठ आदरणीय मित्र और वैदिक विद्वान श्री कृश्ण कान्त वैदिक षास्त्री भी साथ गये थे। हमने बहिन जी से वार्तालाप करने के साथ कुछ चित्र भी लिये। उनका एक चित्र प्रस्तुत है। भविश्य में क्या होना है, हम नहीं जान सकते। महर्शि दयानन्द के सन् १८६३ में सार्वजनिक जीवन में प्रवेष के समय भी किसी ने यह अनुमान नहीं किया था कि कोई व्यक्ति आकर वेदों का उद्धार व जन-जन में वेदों का प्रचार करेगा। स्त्री व षूद्रों को वेदाध्ययन का अधिकार दिलायेगा। सामाजिक भेदभाव और जन्मना जाति व्यवस्था पर तीव्र प्रहार करने के साथ मूर्तिपजा, कब्रपूजा, व्यक्तिपूजा, अवतारवाद, फलित ज्योतिश, मृतक श्राद्ध, अनमेल व बेमेल विवाह का विरोध कर उन्हें ज्ञान व तर्क के आधार पर पराजित करेगा। मत-मतान्तरों की मिथ्या व असत्य मान्यताओं व सिद्धान्तों का खण्डन कर सत्य मान्यताओं व सिद्धान्तों से परिचित करायेगा। जैसे तब अनुमान नहीं था वैसे ही हम अब भी भविश्य का अनुमान नहीं लगा सकते। हमसे जो हो सकता है, उसे हम अधिक से अधिक व अच्छे से अच्छा करने का प्रयास करें और षेश के लिए ईष्वर से प्रार्थना करें। हमें लगता है कि सच्चे मन से की गई प्रार्थना व्यर्थ नहीं जायेगी। ईष्वर उसे अवष्य सुनेगा और यथा समय पूरी भी करेगा।

इस लेख पर आर्य विद्वान श्री कृष्ण कान्त वैदिक शास्त्री जी ने महत्वपूर्ण प्रतिक्रिया दी है। वह लिखते हैं कि ’’विद्वान् लेखक ने आपने पोस्ट में कहा है कि हमारे आचार्यों ने अज्ञानता वा स्वार्थ के कारण समाज की सभी स्त्री व शूद्रों को वेदाध्ययन के अधिकार से वंचित कर दिया था और उनके वेदाध्ययन करने पर अनेक अनुचित दण्डात्मक विधान किये थे जिनसे मुख्यतः नारी जाति में वेदों के अध्ययन व श्रवण की परम्परा पूर्णतयः बन्द हो गई थी। मध्यकाल व उससे पूर्व किसी वेदों की भाष्यकार विदुषी महिला का नाम इतिहास में पढने को नहीं मिलता है। यह सर्वविदित तथ्य है कि वेदों का ज्ञान आदिकालीन ऋषियों - अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा को प्राप्त होने के बाद विभिन्न विदुषियां जिनमें सूर्या सावित्री, सिकता निवावरी, अदिति, अपाला आत्रेयी, उर्वशी, घोषा काक्षीवती, इन्द्राणी, दक्षिणा प्राजापत्या, वाक आम्भृणी, जुहू, ब्रह्मजाया, मातृनामा आदि का नाम उल्लेखनीय हैं, वेद की ऋषिकाएं रही हैं। वेद के ऋषियों के बारे में निरुक्तकार आचार्य यास्क ने कहा है- ’साक्षात्कृतधर्माण ऋषयो बभूवुः अर्थात् ऋषियों ने प्रतिभा रूपी चक्षु से साक्षात्कार किया। उन्होंने ऋषि की व्याख्या की है ’ऋषि दर्शनात‘ अर्थात् ऋषियों ने मंत्रों का दर्शन किया है। यहां पर ऋषि और ऋषिकाएं दोनों सम्मिलित हैं क्योकि वैदिक काल से ही वेदों का ज्ञान जनसामान्य तक लाने में स्त्रियों की भी अग्रणीय भूमिका रही है।

ऋग्वेद के २२४ मंत्रों की २४ ऋषिकाएं और अथर्ववेद के १९८ मंत्रों की ४ ऋषिकाएं रही हैं। परन्तु कोई भी महिला भाष्यकार नहीं हुई है। आज वह युग है जबकि महिलाये जीवन के हर क्षेत्र में आगे बढ रही हैं। ज्ञान के क्षेत्र में भी बहिन सूर्या देवी की अग्रणीय भूमिका है, ऐसे में बन्धु मनमोहनजी द्वारा उनसे वेदभाष्य की आकांक्षा रखना पूर्णतः उचित और एक सराहनीय प्रयास है। मैं उन्हें इस शुभ आग्रह के लिए साधुवाद देते हुए बहिन सूर्या देवी से अपनी ओर से भी निवेदन करता हूँ कि वह इस अनुपम कार्य को अवश्य ही सम्पादित करने की महती कृपा करें। जहां हम बहिन जी से यह प्रार्थना कर रहे है, वहीं हम आर्यों का यह दायित्व भी बनता है कि हम उन्हें गुरुकुल के प्रशासनिक और आर्थिक कार्यों में सहयोग दें जिससे कि उनका समय और ऊर्जा बचे और वह अपना अधिक से अधिक समय भाष्य के कार्य में लगा सकें। आर्यजी को पुनः साधुवाद।‘‘

इसी के साथ हम लेखनी को विराम देते हैं। ओ३म् षम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
पताः १९६ चुक्खूवाला-२
देहरादून-२४८००१
फोनः०९४१२९८५१२१

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