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‘ईश्वरोपासना से मनुष्य जीवन के अन्तिम लक्ष्य ईश्वर-साक्षात्कार वा मोक्ष को प्राप्त होता है’

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26 May 17
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हम मनुष्य हैं इसलिए हमें मनुष्योचित कार्य ही करने अभीष्ट हैं। मनुष्योचित कार्यों में मुख्य कार्य ज्ञान की प्राप्ति और तदनुसार कर्म करना हमारा कर्तव्य सिद्ध होता है। हम समझते हैं कि कोई मनुष्य व विद्वान, किसी भी मत व सम्प्रदाय का क्यों न हो, यह नहीं कह सकता कि ज्ञान प्राप्ती और तदनुकूल कर्म व आचरण करना मनुष्यों का कर्तव्य नहीं है। अब यदि यह बात सर्वमान्य है तो फिर हमें अपने जीवन का अवलोकन अर्थात् आत्मालोचन कर यह जानना है कि क्या हमने ज्ञान की प्राप्ति के लिए आवश्यक कर्तव्यों का पालन किया है। हम समझते हैं कि यदि इसका गम्भीरता से विचार व चिन्तन करें तो हमें लगेगा कि हमसे बहुत भूलें व त्रुटियां हुई हैं। यद्यपि हमारे जीवन का बहुमूल्य समय निकल चुका है परन्तु फिर भी यदि हम सम्भल जायें तो आने वाले समय में हम अपने जीवन में काफी सार्थक व सकारात्मक परिवर्तन ला सकते हैं। इससे हमारा यह जीवन भी सुधरेगा और परजन्म में भी हमारी उन्नति होगी, इसकी स्वीकृति हमारी आत्मा सहित हमारे ऋषियों के तर्क व युक्तिसंगत विचारों से हमें मिलती है।

ज्ञान प्राप्ति का उद्देश्य सत्य व असत्य का विवेक कर जीवन को सत्य के मार्ग पर चलाना है और जीवन में जो असत्य व अज्ञानयुक्त बातें व आचरण हैं, संस्कार व क्रियायें हैं, उन्हें छोड़ना है। यही मनुष्य जीवन का उद्देश्य भी है। ज्ञान प्राप्ती गुरु से हुआ करती है। गुरु वह होता है जो पूर्ण व अधिकांश विषयों का ज्ञान रखता हो तथा जिसमें दूसरे मनुष्यों के कल्याण की भावना हो। ऐसे गुरु को प्राप्त होकर हम अपना अज्ञान व अविद्या को दूर कर सकते हैं। ऋषि दयानन्द ने भी इसी प्रकार प्रज्ञाचक्षु दण्डी गुरु स्वामी विरजानन्द जी के चरणों में बैठकर व उनकी सेवा-सुश्रुषा कर उनसे ज्ञान प्राप्त किया था। इसी सेवा, गुरु की निकटता एवं अध्ययन से वह आज विश्व के सर्वोपरि गुरु के आसन पर प्रतिष्ठित हैं। उन्होंने संसार को वह ज्ञान दिया जिसे संसार भूल चुका था। मिथ्या ज्ञान सारे संसार में व्याप्त फैला हुआ था। उन्होंने न केवल सद्ज्ञान ही दिया अपितु मिथ्याज्ञान की समीक्षा कर उसे अनावश्यक और जीवन के लिए हानिकारक सिद्ध किया। सत्यार्थप्रकाश के रूप में उनके द्वारा दिया ज्ञान आज अनेक लोगों के घरों में विद्यमान है।

संसार में ज्ञान प्राप्ति के लिए गुरु किसे बनाया जाये? ऐसी कौन सी पुस्तक है जिसमें मनुष्यों के जीवन के उद्देश्य का ज्ञान कराने सहित उसकी प्राप्ति के साधनों का वर्णन भी है। इन प्रश्नों पर विचार करने पर सच्चा गुरु वह सिद्ध होता है जो स्वामी विरजानन्द सरस्वती और स्वामी दयानन्द सरस्वती के समान ज्ञानी व विद्वान हो हो। ईश्वरोपासक होने के साथ समाधि को भी प्राप्त हो तथा जिसमें समाज व विश्व के कल्याण की भावना भी हो। ऐसा गुरु तो सम्भवतः संसार में मिलना कठिन है परन्तु ईश्वरीय ज्ञान वेद, उपनिषद्, दर्शन, विशुद्ध मनुस्मृति, ऋषि दयानन्द जी के ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय आदि का अध्ययन कर मनुष्य अपने उद्देश्यों को जानकर इनमें वर्णित साधनों को आचरण में लाकर अपने जीवन को सफल कर सकता है। पूर्ण सफलता ईश्वर के साक्षात्कार होने पर प्राप्त होती है। इसी के लिए हमारे वेदज्ञ ऋषियों व विद्वानों सहित ऋषि दयानन्द ने ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना के रूप में ब्रह्मयज्ञ अर्थात् ईश्वरोपासना, देवयज्ञ आदि पंच महायज्ञों का विधान किया है। उपासना जिसमें ईश्वर की स्तुति व प्रार्थना भी अनिवार्य रूप से जुड़ी हुईं है, को ऋषि दयानन्द के शब्दों को जान लेना उचित होगा। सत्यार्थप्रकाश के सप्तम समुल्लास में प्रश्नोत्तर शैली में ऋषि दयानन्द लिखते हैं कि परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना करनी चाहिए या नहीं? (उत्तर) करनी चाहिए। (प्रश्न) क्या स्तुति आदि करने से ईश्वर अपना नियम छोड़ स्तुति, प्रार्थना करने वाले का पाप छुड़ा देगा? (उत्तर) नहीं। (प्रश्न) तो फिर स्तुति प्रार्थना क्यों करना? (उत्तर) उनके करने का फल अन्य ही है। (प्रश्न) क्या है? (उत्तर) स्तुति से ईश्वर में प्रीति, उस के गुण, कर्म, स्वभाव से अपने गुण, कर्म, स्वभाव का सुधारना, प्रार्थना से निरभिमानता, उत्साह और सहाय का मिलना, उपासना से परब्रह्म से मेल और उसका साक्षात्कार होना। (प्रश्न) इनको स्पष्ट करके समझाओ। इसके उत्तर में ऋषि दयानन्द ने यजुर्वेद का 40/8 मन्त्र प्रस्तुत किया है और इसका अर्थ करते हुए ईश्वर की स्तुति के विषय में लिखा है कि वह परमात्मा सब में व्यापक, शीघ्रकारी और अनन्त बलवान् जो शुद्ध, सर्वज्ञ, सब का अन्तर्यामी, सर्वोपरि विराजमान, सनातन, स्वयंसिद्ध, परमेश्वर अपनी जीवरूप सनातन अनादि प्रजा को अपनी सनातन विद्या से यथावत् अर्थों का बोध वेद द्वारा कराता है। यह सगुण स्तुति अर्थात् परमेश्वर के जिस-जिस गुण को बोलकर, जानकर व मन में वैसे भावों को बनाकर स्तुति करना वह सगुण, (अकाय) अर्थात् वह कभी शरीर धारण व जन्म नहीं लेता, जिस में छिद्र नहीं होता, नाड़ी आदि के बन्धन में नहीं आता और कभी पापाचरण नहीं करता, जिस में क्लेश, दुःख, अज्ञान कभी नहीं होता, इत्यादि जिस-जिस राग, द्वेषादि गुणों से पृथक् मानकर परमेश्वर को स्तुति करना है वह निर्गुण स्तुति है। इस से फल यह है कि जैसे परमेश्वर के गुण है वैसे गुण, कर्म, स्वभाव अपने भी करना। जैसे वह न्यायकारी है तो आप भी न्यायकारी होंवे। और जो केवल भांड के समान परमेश्वर के गुण-कीर्तन करता जाता और अपने चरित्र को नहीं सुधारता उसका स्तुति करना व्यर्थ है।

प्रार्थना का सत्यार्थप्रकाश के सप्तम् समुल्लास में उल्लेख कर ऋषि ने आठ वेदमंत्र दिये हैं और उनके अर्थ किये हैं। हम प्रथम तीन प्रार्थना मंत्रों का ही अर्थ यहां प्रस्तुत कर रहे हैं। वह लिख्षते हे अग्ने! अर्थात् प्रकाशस्वरूप परमेश्वर आप की कृपा से जिस बुद्धि की उपासना विद्वान्, ज्ञानी और योगी लोग करते है उसी बुद्धि से युक्त हम को इसी वर्तमान समय में आप बुद्धिमान् कीजिये।।1।। आप प्रकाशस्वरूप हैं, कृपा कर मुझ में भी प्रकाश स्थापन कीजिये। आप अनन्त पराक्रम युक्त हैं, इसलिये मुझ में भी कृपाकटाक्ष से पूर्ण पराक्रम धरिये। आप अनन्त बलयुक्त हैं इसलिये मुझ में भी बल धारण कीजिये। आप अनन्त सामथ्र्ययुक्त हैं, मुझ को भी पूर्ण सामथ्र्य दीजिये। आप दुष्ट काम और दुष्टों पर क्रोधकारी हैं, मुझ को भी वैसा ही कीजिये। आप निन्दा, स्तुति और स्व-अपराधियों का सहन करने वाले हैं, कृपा से मुझ को भी वैसा ही कीजिये।।2।। हे दयानिधे आप की कृपा से जो मेरा मन जागते में दूर-दूर जाता दिव्यगुणयुक्त रहता है, और वही सोते हुए मेरा मन सुषुप्ति को प्राप्त होता या स्वप्न में दूर-दूर जाने के समान व्यवहार करता है, सब प्रकाशकों का प्रकाशक, एक वह मेरा मन शिवसंकल्प अर्थात् अपने और दूसरे प्राणियों के अर्थ कल्याण का संकल्प करनेहारा होवे। किसी की हानि करने की इच्छायुक्त कभी न होवे।।4।। अन्य मन्त्रों के अर्थों के लिए पाठक कृपया सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन करने की कृपा करें। प्रार्थना विषय का समापन करते हुए ऋषि लिखते हैं कि इसी प्रकार परमोश्वर भी सब के उपकार करने की प्रार्थना में सहायक होता है हानिकारक कर्म में नहीं। जो कोई गुड़ मीठा है ऐसा कहता है उस को गुड़ प्राप्त वा उस को स्वाद प्राप्त कभी नहीं होता और जो यत्न करता है उस को शीघ्र या विलम्ब से गुड़ मिल ही जाता है।

उपासना का उल्लेख कर ऋषि कहते हैं कि जिस पुरुष के समाधियोग से अविद्यादि मल नष्ट हो गये हैं, आत्मस्थ होकर परमात्मा में चित्त जिस ने लगाया है उस को जो परमात्मा के योग का सुख होता है वह वाणी से कहा नहीं जा सकता क्योंकि उस आनन्द को जीवात्मा अपने अन्तःकरण से ग्रहण करता है। उपासना शब्द का अर्थ समीपस्थ होना है। अष्टांग योग से परमात्मा के समीपस्थ होने ओर उस को सर्वव्यापी, सर्वान्तर्यामीरूप से प्रत्यक्ष के लिए जो-जो काम करना होता है वह-वह सब करना चाहये। “स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश” में भी ऋषि ने स्तुति, प्रार्थना व उपासना पर संक्षेप से प्रकाश डाला है। स्तुति के विषय में ऋषि कहते हैं कि ईश्वर का गुण कीर्तन करना, उसके सत्यस्वरूप का श्रवण और ज्ञान होना स्तुति है जिसका फल ईश्वर से प्रीति आदि होते हैं। प्रार्थना वह होती है कि जिसमें अपने सामथ्र्य के उपरान्त ईश्वर के सम्बन्ध से जो विज्ञान आदि प्राप्त होते हैं, उसके लिये याचना करना प्रार्थना है और इसका फल उपासक में निरभिमानता का होना आदि होता है। उपासना में ईश्वर के पवित्र गुण, कर्म व स्वभाव को जानकर उनके अनुरूप अपने गुण, कर्म व स्वभाव करना होता है। ईश्वर को सर्वव्यापक और अपनी आत्मा को ईश्वर से व्याप्य जान कर ईश्वर के समीप हम और हमारे समीप ईश्वर है, ऐसा निश्चय योगाभ्यास से साक्षात् करना उपासना कहाती है। इस का फल ज्ञान की उन्नति आदि है। इससे ज्ञात होता है कि उपासना का चरम लक्ष्य ईश्वर का साक्षात्कार वा प्रत्यक्ष अर्थात् समाधि अवस्था में उसका निभ्र्रान्त वा निश्चयात्मक ज्ञान है।

ईश्वर की उपासना से मनुष्य में मनुष्योचित दिव्य गुणों का आधान होता है। आत्मा के मल दूर होते हैं। आत्मा पवित्र व निर्मल होकर ईश्वर की मित्रता को प्राप्त होता है। जीवात्मा का ज्ञान बढ़ता व उसमें अज्ञान का नाश होता है। उपासना में ईश्वर की वेद मन्त्रों व उसके अर्थां व भावों के अनुरूप ईश्वर की स्तुति व प्रार्थना की जाती है। स्तुति करने से ईश्वर से प्रीति हो जाती है और प्रार्थना से जीवात्मा कें अहंकार का नाश होता है। ईश्वरोपासना के साथ मनुष्य के लिए देवयज्ञ अग्निहोत्र करना भी आवश्यक है। इससे मनुष्य का व्यक्तिगत लाभ होने सहित समाज व देश भी लाभान्वित होते हैं। ईश्वरोपासना और देवयज्ञ मनुष्य को सत्य के ग्रहण में प्रेरित व प्रवृत्त करते हैं और असत्य, अज्ञान व अविद्या को दूर करते हैं। मनुष्य अविद्या से मुक्त होकर विद्या से युक्त होता है। सभी लोग यदि सच्चे ईश्वरोपासक व याज्ञिक हो जायें तो इससे समाज अज्ञान, अन्धविश्वास, अविद्या, मिथ्याविश्वासों व परम्पराओं सहित पाप व कुटिलता के आचरणों से मुक्त हो सकता है। ऐसा होने पर आदर्श मनुष्य जीवन बनकर आदर्श समाज की रचना होती है। अन्ततः उपासक मनुष्य को ईश्वर का साक्षात्कार, उसका प्रत्यक्ष व निभ्र्रान्त ज्ञान होकर ईश्वर विषयक व अन्य सभी प्रकार के भ्रम दूर हो जाते हैं। मृत्यु होने तक जीवनमुक्त अवस्था में रहता है और मृत्यु होने पर जन्-मरण से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त होता है। यही मनुष्य जीवन का अन्तिम चरम लक्ष्य है। इसी के साथ इस चर्चा को समाप्त करते हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
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ओ३म्

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