उदयपुर, आदिनाथ भवन सेक्टर 11 के आदिनाथ भवन में आचार्यश्री सुनीलसागरजी महाराज के सानिध्य में माघ कृष्ण चतुर्दशी को धर्म तीर्थ के प्रवर्तक युगादि पुरुष भगवान आदिनाथ प्रभु का बड़े धूम धाम से निर्वाण महोत्सव मनाया गया। अध्यक्ष अशोक शाह ने बताया कि प्रात: काल की मंगल बेला में जिनाभिषेक हुआ। उसके पश्चात् संगीतयी भक्तामर विधान का आयोजन किया गया। निर्वाण महोत्सव में श्रावक- श्राविकाओं ने भाग लेकर पुण्य लाभ लिया।
आचार्य भगवन सुनीलसागरजी ने अपने मंगल उदबोधन में कहा कि भगवान आदिनाथ, जो की अंतिम कुलकर नभिराय व माता मरुदेवी के पुत्र थे, वे इस काल के प्रथम तीर्थंकर थे। कोई भी बने बनाए भगवान नहीं होते। पुरुषार्थ करना पड़ता है। संसार में ढकेलने वाले तो बहुत मिल जाते है लेकिन धर्म मार्ग पर लगाने वाले एक-आध ही होते है। कोई पार लगाने में सहयोगी बनता है तो कोई डूबाने में सहयोगी बनता है। ज्ञानी जीव होगा, भव्या होगा तो थोड़े में ही समझ जाएगा। ऐसे भव्य जीव संसार सागर से तर जाते और अभव्य संसार में भटकते रहते है। कितना भी कुछ भी हो जाए मोह नहीं छूट पाता। जैसे क्रोध कषाय का परिणाम पीछा नहीं छोड़ता वैसे ही अत्याधिक राग का परिणाम भी नहीं छूट पाता। आयु पूरी होती है तो पर्याय बदल जाती है। जीव तो शाश्वत है।
आचार्यश्री ने कहा कि संसार में कुछ भी सुख का या दु:ख का कारण नहीं होता। परिस्थिति अनुकूल हो तो सुख की अनुभूति होती है और यदि वही प्रतिकूल हो जाए तो दु:ख की अनुभूति होती है। सुख के साधन होते है लेकिन वही कभी दु:ख का कारण भी बन जाते है। अग्नि खाना पचाने के लिए ज़रूरी होती है लेकिन वही अग्नि पूरे के पूरे आदमी को भी जला सकती है। इसीलिए किसी भी चीज़ को लेकर ज़्यादा राग, द्वेष, मोह नहीं करना चाहिये। करने योग्य कर्तव्य का निर्वाह तो करना ही चाहिये। मोक्ष मार्ग वीतरागता के बल पर चलता है। कषायवृत्ति छूटेगी तो ही जीव का कल्याण होगा।
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