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दया धर्म का मूल है: आचार्यश्री सुनीलसागरजी

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12 Jan 18
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दया धर्म का मूल है: आचार्यश्री सुनीलसागरजी उदयपुर, आदिनाथ भवन सेक्टर 11 में विराजित आचार्यश्री सुनील सागरी महाराज ने प्रात:कालीन धर्मसभा में कहा कि दुनिया में तो सभी करते हैं, सभी का धर्म करने का तरीका अलग- अलग होता है। धर्म करना जीवन में बहुत जरूरी है। चाहे अपने- अपने हिसाब से, अपनी- अपनी क्षमता के अनुसार। लेकिन साथ में वास्तविक धर्म क्या है यह भी जानना जरूरी है। धर्म के बारे में ज्ञानियों ने कहा है- दया धर्म का मूल है। धर्म का सबसे पहला आचरण है दया। धर्म तो भीतर से पैदा होता है। स्वयं के पुरूषार्थ और इच्छा शक्ति से पैदा होता है। मनुष्य चाहे कितने ही दान- पुण्य करे, धर्म प्रभावना करे लेकिन उसके चित्त में, उसके मन में या उसकी आत्मा में दया का भाव नहीं है तो जो भी धर्म के नाम पर वह कर रहा है वह सब व्यर्थ है। यह बात अलग है कि आज कल कई लोगों ने अपनी सोच और अपनी खोज के आधार पर कई तरह के धर्म बना लिये हैं, लेकिन चाहे कुछ भी हो जहां दया का भाव है असली धर्म वहीं पर होता है।
आचार्यश्री ने कहा कि धर्म कहीं से नहीं आता है। धर्म आता है वात्सल्य भाव से, स्नेह और प्रेम भाव से। जहां मन शुद्ध है, आत्मा शुद्ध है और दया भाव है उसी शरीर में वास्तविक धर्म का वास होता है। धर्म सभी का कल्याण करने वाला, सभी का शुभ करने वाला होता है। धर्म तो सभी जगह है, धर्म तो सार्वभोमिक है लेकिन धर्म करने के साथ दया का भाव होने बहुत जरूरी है। अगर जाने अनजाने में आपसे किसी का कोई अहित हो गया है, या कोई अधार्मिक कार्य हो गया हो, लेकिन उसी क्षण अगर आपमें प्रायश्चित का भाव, दया का भाव आ गया ते समझो आपमें धर्म पैदा हो रहा है। मनुष्य की पहचान रंग से नहीं स्वरूप से होती है। मनुष्य कितना, सहज है, निर्मल है उसी आधार पर उसका चरित्र आंका जाता है।

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