उदयपुर झीलों में मछलियो की उपयुक्त संख्या एवं प्रकार व अनुपात (कम्पोजिशन व प्रपोशन) के वैज्ञानिक आंकलन के पश्चात ही मछलियो को निकालने के ठेके देने चाहिए। उक्त विचार झील संरक्षण समिति एवं डॉ मोहन सिंह मेहता मेमोरियल के सांझे में आयोजित संवाद में व्यक्त किये गए।
झील संरक्षण समिति के डॉ तेज राजदान व अनिल मेहता ने कहा कि झील की जैव विविधता का संतुलन निहायत जरुरी है किन्तु पारिस्थितिक तंत्र को बनाये रखने के लिए कितनी मात्रा में मछलिया होनी चाहिए इसका निर्धारण वैज्ञानिक अध्ययन से ही ज्ञात हो सकता है अतः वैज्ञानिक आंकलन के पश्चात ही फ़तेह सागर व पिछला का ठेका दिया जाना चाहिए। मछली ठेकेदार पर निगरानी व नियंत्रण की पुख्ता व्यवस्था होनी चाहिए ताकि झील के लिए जरुरी मछली अनुपात व संख्या बनी रहे।
पूर्व उप निदेशक मत्स्य इस्माईल अली दुर्गा ने कहा कि मछली के ठेकेदार व्यवसाइक किस्म की मछलियो जैसे कतला ,रोहू ,मृगल ,कॉमन कार्प , ग्रास कार्प आदि मछलियो के बीज तालाबों में संचय करते है। पिछोला फतेसागर व बड़ी की झीले चूँकि पेयजल के प्रमुख स्त्रोत है इसलिए इन जलाशयों में गैर व्यावसायिक मछलिया जो कि जल पारिस्थितिकी के संतुलन में सहयोगी है उनका होना भी आवश्यक है, जो काई व गन्दगी को खा कर ख़त्म करती है। इसके लिए सुध लेना आवश्यक है।
सरोवर विज्ञानी डॉ प्रवीण राठोड ने कहा कि जलीय पर्यावरण संतुलन ,उत्पादकता एवं जलीय गुणवत्ता के लिए विभिन्न मछलियो का निश्चित अनुपात में होना जरुरी है।
झील मित्र संस्थान के तेजशंकर पालीवाल ने कहा कि झील के पर्यावरण को बचाने में मछलियो की प्रमुख भूमिका है। शहर की झीले सीवरेज से अटी पड़ी है ऐसे में मछियो का ठेका पारम्परिक तरीके से देना बिना किसी अध्यन के उचित नहीं लगता।
संवाद का संयोजन करते हुए ट्रस्ट सचिव नन्द किशोर शर्मा ने कहा कि उदयपुर की झीलों से कछुआ,महासीर का लुफ्त होना व्यावसायिकता व झीलों का प्रदूषित होना है। मछलियो का ठेका बिना वैज्ञानिक अध्ययन देना उचित नहीं है।