GMCH STORIES

विकास परियोजनाओं की गति की तलाश

( Read 4011 Times)

20 Feb 18
Share |
Print This Page
विकास परियोजनाओं की गति की तलाश ललित गर्ग
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बुनियादी ढांचे से संबंधित आवश्यक एवं विकासमूलक विभिन्न परियोजनाओं में हो रहे अनावश्यक विलम्ब पर चिन्ता व्यक्त की। उन्होंने ऐसी परियोजनाओं को गति देने के लिये प्रतिबद्धता जताई, यह आवश्यक है। इस तरह की प्रतिबद्धता की सार्थकता तभी है जब जमीन पर भी ऐसा होता हुआ दिखे।
हमारे राष्ट्र के सामने विकास परियोजनाओं का अधर में झलना, एक बड़ी समस्या है, यह एक चनौती भी है। अनैतिकता, भ्रष्टाचार, महंगाई, बढ़ती जनसंख्या की बहुत बड़ी चुनौतियां पहले से ही हैं, उनके साथ कश्मीर में आतंकवाद सबसे बड़ी चुनौती बनकर खड़ा है। राष्ट्र के लोगों के मन में भय छाया हुआ है। कोई भी व्यक्ति, प्रसंग, अवसर अगर राष्ट्र को एक दिन के लिए ही आशावान बना देते हैं तो वह महत्वपूर्ण होते हैं। पर यहां तो निराशा और भय की लम्बी रात की काली छाया व्याप्त है। भले ही प्रधानमंत्री यह कह रहे हों कि सड़क, बिजली, शिक्षा, स्वास्थ्य संबंधी परियोजनाओं के क्रियान्वयन में तेजी आई है और यह तेजी नियमों एवं प्रक्रियाओं को आसान बनाने का परिणाम है, हम उनकी बात पर विश्वास कर सकते हैं। लेकिन ऐसा विकास दिखना भी चाहिए। भाषणों एवं नारों में तो सात दशक से यह सब हम देख रहे हैं। लेकिन लगता है कि अभी इस मोर्चे पर काफी कुछ किया जाना शेष है। इसकी पुष्टि केंद्रीय सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय की वह रपट भी कर रही है जिसमें यह कहा गया है कि बुनियादी ढांचे से संबंधित करीब साढ़े तीन सौ परियोजनाएं देरी का शिकार हैं। यह रपट यह भी बता रही है कि इस देरी के चलते इन परियोजनाओं की लागत करीब दो लाख करोड़ रुपये बढ़ गई है। यदि परियोजनाओं को समय से पूरा करने के लिए कुछ ठोस कदम नहीं उठाए गए तो यह लागत और भी बढ़ सकती है। प्रश्न है कि परियोजनाओं में विलम्ब के लिये कौन जिम्मेदार है? प्रश्न यह भी है कि कब हम अपनी इन हिमालयी जड़ताओं को गलायेंगे? कब हम अतीत को सीख बनायेंगे? उन भूलों को न दोहराये जिनसे हमारा विकास जख्मी है, या अधूरा पड़ा है। सत्ता और स्वार्थ ने अपनी आकांक्षी योजनाओं को पूर्णता देने में नैतिक कायरता दिखाई है। इसकी वजह से लोगों में विश्वास इस कदर उठ गया कि चैराहों पर खड़े आदमी को सही रास्ता दिखाने वाला भी झूठा-सा लगता है। आंखें उस चेहरे पर सचाई की साक्षी ढूंढ़ती है। मोदीजी की बातें लुभाती है, लेकिन क्या कारण है कि वे जो कहते हैं, वैसा होता हुआ दिखाई नहीं देता। हर विकासशील राष्ट्र को कई बार अग्नि स्नान करता पड़ता है। पर आज हमारा राष्ट्र ”कीचड़ स्नान“ कर रहा है। आतंकवाद, अलगाववाद, सम्प्रदायवाद की समस्याएं विषम बनी हुई हैं। कोई भी राजनैतिक दल बाहर एवं अन्दर से वैसा नहीं है, जैसा उसे होना चाहिए, या जैसा होने का वे दिखावा करते हैं। ऐसी स्थिति में मोदी का दायित्व कई गुना बढ़ जाता है।
ऐसे में केंद्र सरकार को उन कारणों का निवारण प्राथमिकता के आधार पर करना होगा जिनके चलते इतनी बड़ी संख्या में परियोजनाएं समय से पीछे चल रही हैं। ऐसा लगता है कि परियोजनाओं को समय से पूरा करने के मामले में वे ही तौर-तरीके आड़े आ रहे हैं जो पिछली सरकार में देखने को मिलते थे। सांख्यिकी मंत्रालय की रिपोर्ट भले ही यह कह रही हो कि लंबित परियोजनाओं की संख्या में कमी आई है, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि इस गणना का आधार परियोजनाओं की समय-सीमा में फेरबदल है। इसका कोई औचित्य नहीं कि एक ओर प्रधानमंत्री यह दावा करें कि परियोजनाओं को तेजी से आगे बढ़ाया जा रहा है और दूसरी ओर यह सामने आए कि तमाम परियोजनाएं देरी का शिकार हैं। आम तौर पर परियोजनाएं इसीलिए लंबित होती हैं, क्योंकि नौकरशाही उन्हें समय से पूरा करने के लिए आवश्यक इच्छाशक्ति का प्रदर्शन नहीं करती। आखिर नौकरीशाही की लापरवाही को राष्ट्र क्यों भुगते? अब यह केवल तथाकथित नौकरशाहों के बलबूते की बात नहीं रही कि वे गिरते विकास एवं अधूरी पड़ी परियोजनाओं को गति दे सकें, समस्याओं से ग्रस्त सामाजिक व राष्ट्रीय ढांचे को सुधार सकें, तोड़कर नया बना सकें।
इस मामले में राज्यों के स्तर की नौकरशाही का रवैया सबसे बड़ी बाधा है। एक अन्य गंभीर समस्या समय पर पर्यावरण मंजूरी न मिलने अथवा अदालती हस्तक्षेप की भी है। यह ठीक है कि प्रधानमंत्री समय-समय पर विभिन्न परियोजनाओं की समीक्षा करते रहते हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि समीक्षा के दायरे में वे पहलू नहीं आ पा रहे हैं जो परियोजनाओं की देरी का कारण बन रहे हैं। एक ऐसे समय जब तमाम विदेशी निवेशक भारत में बुनियादी ढांचे में सुधार के लिए प्रतीक्षारत हैं तब उनकी प्रतीक्षा बढ़ते जाना कोई शुभ संकेत नहीं। बेहतर यह होगा कि बुनियादी ढांचे से जुड़ी परियोजनाओं की समीक्षा के क्रम में राज्य सरकारों को भी भागीदार बनाया जाए। ऐसा इसलिए आवश्यक है, क्योंकि राज्यों की सक्रियता के बगैर इन परियोजनाओं को समय से पूरा करना संभव नहीं। आवश्यकता केवल चुनौतियों को समझने की ही नहीं है, आवश्यकता है कि हमारा मनोबल दृढ़ हो, चुनौतियों का सामना करने के लिए हम ईमानदार हों और अपने स्वार्थ को नहीं परार्थ और राष्ट्रहित को अधिमान दें।
सच तो यह है कि जरूरत इसकी भी है कि नौकरशाही के रुख-रवैये में बदलाव लाने के लिए प्रशासनिक सुधारों को प्राथमिकता के आधार पर आगे बढ़ाया जाए। यह समझना कठिन है कि विभिन्न योजनाओं-परियोजनाओं को गति देने के लिए प्रतिबद्ध सरकार प्रशासनिक सुधारों को अपने एजेंडे पर क्यों नहीं ले रही है? वस्तुतः यह इस एजेंडे के अधूरे रहने का ही परिणाम है कि केंद्र सरकार के तमाम दावे जमीनी हकीकत से मेल नहीं खाते।
प्रधानमंत्री नया भारत निर्मित करना चाहते हैं, लेकिन अधूरी योजनाओं एवं परियोजनाओं के रहते वह कैसे संभव है? उनको चाहिए कि वे राजनीतिक जागृति के साथ प्रशासनिक जागृति का अभियान भी शुरु करें। नौकरशाहों पर नकेल कसना एवं उन्हें अपनी जिम्मेदारियों के लिये प्रतिबद्ध करना ज्यादा जरूरी है। कभी-कभी ऊंचा उठने और भौतिक उपलब्धियों की महत्वाकांक्षा राष्ट्र को यह सोचने-समझने का मौका ही नहीं देती कि कुछ पाने के लिए उसने कितना खो दिया? और जब यह सोचने का मौका मिलता है तब पता चलता है कि वक्त बहुत आगे निकल गया और तब राष्ट्र अनिर्णय के ऊहापोह में दिग्भ्रमित हो जाता है।
राष्ट्र केवल पहाड़ों, नदियों, खेतों, भवनों और कारखानों से ही नहीं बनता, यह बनता है उसमें रहने वाले लोगों के उच्च चरित्र से। हम केवल राष्ट्रीयता के खाने (काॅलम) में भारतीय लिखने तक ही न जीयंे, बल्कि एक महान राष्ट्रीयता (सुपर नेशनेलिटी) यानि चरित्रयुक्त राष्ट्रीयता के प्रतीक बन कर जीयें। यही बात जिस दिन नौकरशाहों के समझ में आ जायेंगी, उस दिन परियोजनाएं भी अधूरी नहीं रहेगी और उनके इरादे भी विश्वसनीय एवं मजबूत होेंगे। तभी नये भारत का निर्माण संभव होगा, तभी हर रास्ता मुकाम तक ले जायेगा।
Source :
This Article/News is also avaliable in following categories : Sponsored Stories
Your Comments ! Share Your Openion

You May Like