समूचे विश्व में अपने शौर्य, स्थापत्य और संस्कृति के लिए प्रसिद्ध राजस्थान प्रदेश के दक्षिणी भाग में अवस्थित डूँगरपुर ऐतिहासिक, धार्मिक एवं पुरातात्विक महत्व रखने के साथ-साथ जनजातीय लोक सँस्कृति का बहुआयामी दिग्दर्शन कराता है। सात सदियों पुरानी समृद्ध संस्कृति और ऐतिहासिक-पुरातात्विक विरासत को अपने में समाहित किए डूँगरपुर की विकास यात्रा उतनी ही आकर्षक है जितनी इसकी संस्कृति और इतिहास गाथा। सतरंगी आदिम संस्कृति, विमोहनी लोक परंपराएं और शिल्प वैशिष्ट्य का अनूठी धरा डूँगरपुर 22 नवंबर 2015 को अपना 734 वां स्थापना दिवस मना रहा है।
अनूठी सांस्कृतिक परंपराओं व ख्यातनाम व्यक्तित्वों के साथ विलक्षण स्थापत्य एवं मूर्ति शिल्प के लिए प्रसिद्घ डूँगरपुर में अनूठी आभा वाले विशाल राजमहल, प्रवेश द्वार, अद्भुत देवालय, हवेलियाँ, कलात्मक गवाक्ष, मूर्ति उत्कीर्णित पाषाण स्तम्भ, तोरण आदि बरबस ही कला व सौन्दर्य प्रेमियों का मन मोह लेते हैं वहीं नैसर्गिक सुषमा से समृद्घ इस अंचल में लबालब जलाशयों के तटों व वृक्षों पर विचरण करते देशी विदेशी परिन्दें और वनाच्छादित क्षेत्रों में उन्मुक्त घूमते वन्यजीवों से इस जिले की अपनी अलग ही पहचान बनी है।
भौगोलिक परिदृश्य:
राजस्थान के सुदूर दक्षिण मेें अरावली की उपत्यकाओं के आँचल में अवस्थित आदिवासी बहुल डूँगरपुर जिला 23.20 से 24 डिग्री उत्तर अक्षांश तथा 73.22 से 74.23 डिग्री पूर्व देशान्तर के बीच फैला हुआ है। इसकी पूर्व से पश्चिम की अधिकतम लम्बाई 105 किलोमीटर एवं उत्तर से दक्षिण के बीच की अधिकतम लम्बाई 105 किलोमीटर है जबकि उत्तर से दक्षिण के बीच की अधिकतम चौड़ाई 72 किलोमीटर है। पहाडियों वाले इस जिले का सामान्य धरातल समुद्र तल से 320 मीटर ऊँचा है जबकि पहाडियाँ 552 मीटर ऊँची हैं। जिले की सर्वोच्च पहाड़ी चोटी उत्तर-पश्चिमी भाग में है जिसकी ऊँचाई 572 मीटर है।
इस जिले का मुख्यालय डूँगरपुर राज्य की राजधानी जयपुर से 555 किलोमीटर, बांसवाड़ा से 105 किलोमीटर, उदयपुर से 105 किलोमीटर व अहमदाबाद से 250 किलेामीटर की दूरी पर स्थित है ।
जिले का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 3855 वर्ग किलोमीटर है। इस जिले के गलियाकोट कस्बे से कर्क रेखा गुजरती है। जिले में माही, सोम, भादर, मोरन, वात्रक आदि नदियाँ हैं। सोम नदी उदयपुर जिले तथा माही नदी बाँसवाड़ा जिले के साथ इस जिले की सीमाओं का निर्धारण करती है। मारगिया, लोडेश्वर एवं सोम कमला आम्बा यहाँ के प्रमुख बाँध हैं।
डूँगरपुर का इतिहास
ऐतिहासिक संदर्भों के अनुसार रावल वीरसिंहदेव (1278-1303 ई.) ने कार्तिक शुक्ला एकादशी, विक्रम संवत 1339 ( 1282 ई.) के दिन डूँगरपुर नगर की खूँटी गाड़ी। यही डूँगरपुर नगर का स्थापना दिवस माना जाता है।
कालान्तर में वीरसिंह के पोते रावल डूँगरसिंह ने वास्तु शास्त्र की पुरातन विधियों के अनुसार गढ़ के निर्माण और नगर के विकास-विस्तार के काम आरंभ किए थे। इनके पुत्र रावल कर्मसिंह ने (1362-1384 ई) ये काम पूरे करवाए।
महान व्यक्तित्वों की सुदीर्घ श्रंृखला:
डूंगरपुर ने देश को महान व्यक्तित्वों की ऐसी श्रृंखला प्रदान की है जिस पर न केवल राजस्थान अपितु पूरा देश गौरव करता है। वागड़ में स्वाधीनता संग्राम के अग्रदूत क्रान्तिचेता व्यक्तित्व गोविन्द गुरू, वागड़ गांधी के नाम से ख्यातनाम पद्मभूषण भोगीलाल पण्ड्या, कुशल राजनीतिज्ञ महारावल लक्ष्मण सिंह, जिले के प्रथम आईएएस महाराज वीरभद्र सिंह, अन्तर्राष्ट्रीय सामुद्रिक कानून के विश्वविख्यात विधिवेत्ता, संयुक्त राष्ट्र महासभा में भारत का प्रतिनिधित्व करने वाले अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय के न्यायाधीश पद्म विभूषण डॉ.नागेन्द्र सिंह, सेनानायक लेफ्टिनेंट जनरल नाथू सिंह, भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के पूर्व अध्यक्ष राजसिंह डूंगरपुर, विश्व प्रकृति निधि के के महासचिव रहे पर्यावरणविद् समरसिंह आदि व्यक्तित्वों ने जहां राजनैतिक व सामाजिक क्षेत्रों में अपनी अद्वितीय छवि स्थापित की है वहीं साहित्य के क्षेत्र में अपनी अनूठी सर्जनाओं के लिए ठाकुर भैरवसिंह चुण्डावत और ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता पन्नालाल पटेल का नाम अविस्मरणीय है।
सात सदियों का जीवन्त इतिहास
डूंगरपुर नगर के साथ ही जिलेभर में धार्मिक, ऐतिहासिक एवं पुरा महत्व के अनेकों स्थल हैं। नगर में स्थित विभिन्न राजमहल, देवालय व शिल्प स्थापत्य सवा सात सौ सालों के जीवन्त इतिहास को अपने में समाहित किए हुए हैं। डूँगरपुर के समृद्ध इतिहास के इन जीवन्त प्रतीकों पर समूचा वागड़ अंचल गौरव की अनुभूति करता प्रतीत होता है।
प्राचीनतम जूना महल - डूँगरपुर शहर में धनमाता की पहाड़ी पर स्थित सात मंजिला जूना महल अपनी विलक्षण स्थापत्य व बेनजीर चित्रकला का प्राचीनतम जीवन्त दस्तावेज है। सात सौ वर्षों से भी अधिक प्राचीन इस राजमहल की नींव रावल वीरसिंह देव ने वि.सं. 1939 कार्तिक शुक्ला एकादशी के दिन रखी थी। तेरहवीं शताब्दी में डाली गई नींव पर अठारहवीं शताब्दी के लगभग ये महल पूरे हुए । यह महल दावड़ा पत्थर से निर्मित ऊँचे चबूतरे पर बना है। महल जमीन से दो मंजिल नीचे और सात मंजिल ऊपर है। महल का प्रवेश द्वार ‘रामपोल’ और कलात्मक त्रिपोलिया द्वार जनाकर्षण का प्रमुख केन्द्र है। महल स्थानीय पारेवा पत्थर से बनाया गया है।
विशाल उदयविलास - महारावल उदयसिंह (द्वितीय) द्वारा शिवबाग परिसर में उदयविलास नामक महल सन् 1883-1887 ई. के बीच बनवाया था। स्थानीय बलवाडिय़ा व पारेवा पत्थर से निर्मित इस आलीशान महल के तीन प्रमुख भाग है जिसे उदयविलास, रनिवास और कृष्णप्रकाश (एक थंबिया महल) कहा जाता है। मोहक चित्रकारी, आकर्षक प्रस्तर शिल्पकारी और बेन$जीर सौन्दर्य को अपने में समाहित किए इस उदयविलास महल के एक हिस्से में हेरिटेज हॉटल संचालित है ।
मोहक विजय राजराजेश्वर - उदयविलास से सटे गेपसागर जलाशय की अथाह जलराशि के मध्य स्थित विजय राजराजेश्वर अपने विशिष्ट सौन्दर्य को लिए आकर्षक का केन्द्र है। इस शिवालय को महारावल विजयसिंह ने बनवाना शुरू किया था लेकिन इसकी प्रतिष्ठा महारावल लक्ष्मणसिंह ने 1923 ईस्वी में करवाई। शिवालय के गर्भगृह में शिवविग्रह व देवी पार्वती की सौम्य प्रतिमा विद्यमान है।
सौन्दर्य प्रतिमान एक थम्बिया महल - उदयविलास में स्थित कृष्णप्रकाश ही आज का स्वप्न सा सुन्दर ‘एक थम्बिया महल’ है। उदयविलास, खुमाण निवास, विजयनिवास और लक्ष्मण निवास से घिरे गुलाबी-सफेद पत्थरों से जड़े समचौरस चौक के बीच निर्मित चतुर्मुख कुंड के बीच न$जाकत भरी शान से खड़ा एक थम्बिया महल स्थानीय शिल्पियों के उत्कृष्ट कौशल और उनकी अद्भुत प्रतिभा का मौन साक्षी है। महल की प्रस्तर शिल्पकारी को देखकर प्रतीत होता है कि शिल्पियों ने अपनी सतत् साधना से कठोर पाषाण को भी मृदु मोम सा मोहक आकृतियों में ढाल दिया है। शिल्पियों ने कल्पना-प्रवणता से दुग्ध-धवल संग-मरमर, हरे-नीले पारेवा पत्थर, रंग-बिरंगे काँच और अर्द्ध मूल्यवान पत्थर एवं स्वर्णकलश का नयनाभिराम संयोजन कर इन्द्रधनुषी छटा बिखेरने का प्रयास कर इस सुन्दर ईमारत को आकार प्रदान किया है।
आकर्षक बादल महल - गेपसागर जलाशय के एकछोर पर स्थित बादल महल अपनी विशिष्ट बनावट के लिए जाना जाता है। दो चरणों में बने बादल महल के चबूतरे और एक मंजिल का निर्माण महारावल गोपीनाथ ने करवाया था तो दूसरे चरण में, महारावल पुंजराज (सन् 1609-1657 ई.) ने पहले से बने महल में मरम्मत और आवश्यक परिवर्तन करवाने के साथ पहली मं$िजल के सामने बरामदा, दूसरी मंजिल और गुम्बज बनवाए। बादल-महल का चबूतरा और उसके ऊपर की पहली मंजिल डाबड़ा पत्थर से बनाए गए हैं। महल के आकर्षक तीन गुम्बजों में गोल गुम्बजों पर एक-एक और लम्बे गुम्बज पर तीन अधखिले कमल इसके सौन्दर्य की अभिवृद्घि करते हैं। डँूगरपुर शैली के गोखड़ों के साथ सादगी व मजबूती की प्रतीक राजपूत शैली और अलंकरण की प्रवृति वाली मुगल शैली के स्थापत्य के दर्शन इस एक ही भवन में हो जाते हैं।
महारावल गोपीनाथ ने इस महल का निर्माण सैर-सपाटे के लिए करवाया था। राज्य के अतिथि इसमें ठहरतें थे। बादमें आक्रमणकारी सेनापति इसमें डेरा डालने लगे। विद्रोहियों के साथ चर्चा के लिए भी इस भवन का उपयोग किया जाता था।
ऐतिहासिक गेप सागर - ऐतिहासिक गेपसागर झील शहर के बीचों बीच अपने मनोरम स्वरूप के कारण शहरवासियों के साथ ही जिले भर के लिए गौरव बोध प्रतीकरूपा बनी हुई है । स्थानीय हनुमान मन्दिर के पास सड़क में दब गए नौ पंक्तियों के शिलालेख के अनुसार इस झील का निर्माण स्थापत्य के चतुर चितेरे महाराज गोपीनाथ (गेपा रावल) द्वारा विक्रम संवत 1485 (ईस्वी 1428)में करवाया था। इस झील से कई-कई जनश्रुतियाँ जुड़ी रही हैं जिसके कारण इसके यह लोक श्रद्धा का केन्द्र बनी हुई है। प्रकृतिप्रेमी गैपा रावल ने गैप सागर की लहरों का सौन्दर्य निहारने गेप सागर के पार्श्व में ‘भागा महल’ बनवाया और बाद में इस झील की जलराशि के बीच बादल महल बनवायाँ संत मावजी महाराज ने गैप सागर के बारे में भविष्यवाणी की, वहीं वागड़ की मीरा के रूप में प्रसिद्ध भक्तिमती गवरी बाई तक ने गैप सागर को अपने पदों में ‘गैप सागर गंग’ कहकर इसकी प्रशस्ति गायी है।
श्रीनाथजी मंदिर - भगवान श्रीकृष्ण की आदमकद प्रतिमाओं वाला श्रीनाथ मंदिर पुष्टिमार्ग के प्रवर्तक श्री वल्लभाचार्य के पुत्र गोस्वामी श्री विट्ठलनाथ की प्रेरणा से बनाया गया था। इस मंदिर का निर्माण महारावल पुंजराज द्वारा 25 अप्रेल 1623 ई. में करवाया था। माना जाता है कि श्री विट्ठलनाथ के वंशज श्री गोपेन्द्रलाल डूंगरपुर में वि.सं. 1721 से वि.सं.1732 तक रहे थे। मुख्य मंदिर के सामने विशाल प्रांगण में 36 छोटे-छोटे कतारबद्घ अन्य मंदिर भी इस मंदिर की शोभा व विशालता बढ़ाते हैं।
समृद्ध संग्रहालय -
वागड़ अंचल के स्वर्णिम अतीत का दिग्दर्शन कराता डूँगरपुर शहर का राजमाता देवेन्द्र कुँवर राजकीय संग्रहालय बेहद समृद्घ है। इसमें प्राचीन सभ्यता और संस्कृति की झलक दिखाने वाली पुरा-ऐतिहासिक महत्व की सामग्री आकर्षण का केन्द्र है। संग्रहालय में मुग्धकारी कलात्मक मूर्तियाँ, कलाकृतियाँ, प्राच्य सांस्कृतिक अवशेष इत्यादि देखने लायक हैं। इसमें छठी शताब्दी से लेकर वर्तमान तक की विभिन्न देवी-देवताओं की प्रतिमाएं, शिलालेख, धात्विक प्रतिमाएं, सिक्के, लघुचित्र आदि प्रदर्शित हैं। संग्रहालय की प्रथम दीर्घा में वागड़ अंचल से प्राप्त गुप्तकाल से लेकर सोलहवीं शताब्दी तक की मूर्तियाँ है जिन्हें जिले के आमझरा, गलियाकोट, बड़ौदा, आंतरी आदि ईलाकों से संग्रहित किया गया है। इस दीर्घा में आमझरा से प्राप्त पांचवी छठी शताब्दी की गुप्तकालीन प्रतिमाओं में तंत्र साधना की प्राचीनता को बखानती तांत्रिक गणेश की प्रतिमा महत्त्वपूर्ण है। इसी प्रकार वीणाधर शिव, मृग चर्म धारण किए हुए ब्राह्मी, बारहवीं तेरहवी शताब्दी की हरिहर प्रतिमा, गरूड़ासन वैष्णवी, कौमारी, पद्मिीनी, प्रणाला, कुबेर, पद्मपाणी यक्ष, तथा वराह प्रतिमाए आकर्षण का प्रमुख केन्द्र हैं।
शिल्प स्थापत्य के साक्षी प्रवेश द्वार -
डूँगरपुर शहर में ऐतिहासिक व सामरिक महत्ता को दृष्टिगत रखकर बनाए गए प्रवेश द्वार तात्कालीन शिल्प व स्थापत्य के साक्षी बने हुए है। महारावल फतेहसिंह द्वारा गेपसागर की पाल पर निर्मित डूँगरपुर का प्रमुख प्रवेश द्वार माने जाने वाला कुरीयाला पोल, महारावल कान्हड़देव द्वारा शहर के मध्य में निर्मित कान्हड़पोल (कानेरापोल) , कान्हड़देव के पुत्र पाता रावल (महारावल प्रतापसिंह) द्वारा निर्मित पातापेाल जनाकर्षण का केन्द्र बने हुए हैं। इसी प्रकार जूना महल में महारावल उदयसिंह द्वितीय द्वारा बनवाया गया तोरण पोल तथा खंदा की पोल, जूना महल में महारावल शिवसिंह के समय में बनवाया गया त्रिपोलिया दरवाजा तथा उदयविलास महल के आगे वनेश्वर मंदिर के पास बना सूरजपोल, घंटाला दरवाजा संपूर्ण शहर के सौन्दर्य में अभिवृद्घि करते प्रतीत हो रहे हैं। इसके अलावा घाटी में हनुमत पोल, महारावल लक्ष्मणसिंह द्वारा बनवाया गया चांदपोल तथा शहर का सबसे प्राचीन माना जाने वाला घांटी पोल आज भी अपने स्थापत्य कौशल को उद्घाटित कर रहा है।
विश्वविख्यात सोमपुरा कलाकार - डूँगरपुरके सोमपुरा मूर्तिकला के लिए विश्वविख्यात हैं। इनके द्वारा निर्मित मंदिर और भवन वागड़ अंचल की समृद्घ शिल्प एवं स्थापत्य कला के नायाब उदाहरण है। वागड़ अंचल और देश ही नहीं अपितु विदेशों में भी इन्होंने अपनी कला का जौहर दिखाया है और जिले को ख्याति प्रदान की है। स्थानीय पारेवा पत्थर से निर्मित प्रतिमाएं इन कलाकारों की कला से जीवन्त हो जाती हैं। इनके द्वारा निर्मित विभिन्न कलात्मक प्रतिमाएं यहां आने वाले पर्यटकों को लुभाती है और पर्यटक डूँगरपुर की कलात्मक स्मृतियों को अपने साथ ले जाना नहीं भूलते हैं।
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पूर्णतया मौलिक..........अप्रकाशित..........अप्रसारित आलेख।