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’वेद सृश्टिकर्ता ईष्वर से ही उत्पन्न हुए हैं‘

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20 Nov 17
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संसार में दो प्रकार की रचनायें हैं। प्रथम अपौरुशेय कहलाती हैं जिन्हें कि मनुश्य व मनुश्य समूह मिलकर भी निर्मित नहीं कर सकते। दूसरी रचनायें मनुश्यों द्वारा अपनी बुद्धि में निहित ज्ञान व षारीरिक बल व सामर्थ्य का प्रयोग करके की जाती हैं। सूर्य, चन्द्र, पृथिवी एवं पृथिवीस्थ सभी पदार्थ तथा यह ब्रह्माण्ड अपौरुशेय रचना है जिसका अर्थ है कि इसे मनुश्यों द्वारा नहीं बनाया गया है। यह ब्रह्माण्ड किसने बनाया है, तो इसका उत्तर यही हो सकता है कि जो सत्य, चेतन, सर्वज्ञ, सर्वषक्तिमान, , सर्वातिसूक्ष्म वा सूक्ष्मतम सत्ता हो व ऐसे अनेक वा अनन्त गुणों से युक्त हो उसी से यह संसार बन सकता है। यह गुण व ऐसे अन्य सब गुण एक ही सत्ता में हैं जिनका वर्णन वेद व वैदिक साहित्य में हुआ है। उसे ईष्वर कहते हैं। आर्यसमाज के दूसरे नियम में वेदों के आधार पर वेदों के अर्थों के प्रत्यक्षकर्ता ऋशि दयानन्द ने ईष्वर के स्वरूप का वर्णन करते हुए लिखा है कि ईष्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वषक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेष्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृश्टिकर्ता है। अन्यत्र उन्होंने वेदों के आधार पर कहा है कि ईष्वर सभी जीवों का माता, पिता, बन्धु, सखा व मित्र है तथा जीवों के पूर्व जन्म वा पूर्व कल्प में किये पाप व पुण्य कर्मों का सुख व दुःख रूपी फल देने के लिए उसने इस सृश्टि की रचना की है। यह उत्तर बुद्धिगम्य, भ्रमरहित व स्वीकार्य है। इसका इससे भिन्न अन्य कोई उत्तर नहीं हो सकता। तथाकथित नास्तिक वाममार्गी बुद्धिजीवी सृश्टि को स्वतः निर्मित व प्रलय को प्राप्त होने वाली मानते हैं जिसकी समीक्षा कर ऋशि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाष ग्रन्थ में सिद्ध किया है कि जड पदार्थ किसी नियम के अन्तर्गत संयुक्त होकर स्वयं सृश्टि का निर्माण नहीं कर सकते हैं। यदि ऐसा मान भी ले तो फिर सृश्टि की प्रलय कभी न होगी जो कि होना अनिवार्य है क्योंकि उत्पन्न पदार्थ का नाष अवष्य होता है, यह सिद्धान्त है। वेद चार हैं जिनके नाम हैं ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। वेद संस्कृत भाशा में है। संस्कृत ही समस्त विष्व की आदि व मूल भाशा है। इसी भाशा से संसार की सभी भाशाएं उत्पन्न हुई हैं। वेद संसार के प्राचीनतम ग्रन्थ हैं। विदेषी विद्वान भी इसे स्वीकार करते हैं। वेद संसार की ज्ञान की प्रथम पुस्तकें हैं। वेद से पूर्व संसार में कोई पुस्तक किसी मनुश्य आदि ने नहीं लिखी। वैदिक गणना के अनुसार वेदोत्पत्ति काल १,९६,०८,५३,११७ वर्श है। वेद किसने रचे, इसका उत्तर परवर्ती वैदिक साहित्य में तो है ही, वेद में भी अनेक स्थानों पर मिलता है। हम यहां यजुर्वेद के ३१वें अध्याय का ७वां मन्त्र प्रमाण रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं जो वेदों के उत्पत्तिकर्ता का ज्ञान कराता है। मन्त्र है-’ओ३म् तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतऽऋचः सामानि जज्ञिरे। छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत।।‘ यजुर्वेद भाश्य में ऋशि दयानन्द ने इस मंत्र का षब्दार्थ करते हुए लिखा है कि हे मनुश्यों! तुमको चाहिये कि तुम उस पूर्ण पुरुश को जानो जिस यज्ञस्वरूप व अत्यन्त पूजनीय परमात्मा को सब लोग अपने समस्त पदार्थ समर्पित करते हैं। उस परमात्मा से ऋग्वेद, सामवेद उत्पन्न होते हैं। उस परमात्मा से ही अथर्ववेद उत्पन्न होता है और उसी परमात्मा से यजुर्वेद उत्पन्न होता है। वेदमंत्र में जो जज्ञिरे षब्द आया है यह कि्रया पद है जिसका अर्थ जायन्ते वा उत्पन्न हुए होता है। इससे स्पश्ट होता है कि चारों वेद ईष्वर से ही उत्पन्न हुए हैं जिसके स्वरूप का संक्षिप्त उल्लेख उपर्युक्त मंत्र व उसके षब्दार्थ की पंक्तियों में हुआ है। बहुत से लोग इस प्रमाण को षायद स्वीकार न करें। उनका दायित्व है कि वह बतायें कि यदि वेद परमात्मा से उत्पन्न नहीं हुए तो फिर किस चेतन सत्ता से उत्पन्न हुएं? इसका सन्तोशप्रद व निर्भ्रान्त उत्तर किसी के पास नहीं है। वेदों का ज्ञान आदि काल में मनुश्य उत्पन्न नहीं कर सकते थे और ईष्वर के अतिरिक्त अन्य कोई चेतन सत्ता थी नहीं। सच्चाई यह है कि वेद ईष्वर से ही उत्पन्न हुए हैं। वेद ज्ञान को कहते हैं। ज्ञान ज्ञानी का गुण होता है। ज्ञानी में ही ज्ञान रहता है। यह सृश्टि की रचना में इसके रचयिता ने अपने ज्ञान आदि गुणों की पराकाश्ठा की है। आज संसार में जितना ज्ञान है वह या तो वेद में है अथवा वह सब वा अधिकांष इस सृश्टि का अध्ययन करके ही उत्पन्न किया गया है। सृश्टि का समस्त ज्ञान ईष्वर में निहित है। ईष्वर से ही यह ज्ञान सृश्टि में आता है और वेद व सृश्टि से मनुश्यों में। सृश्टिकर्ता का वेदों का ज्ञान नित्य है जो न कभी उसमें उत्पन्न हुआ और न कभी नश्ट होता है। वह सदा से एक समान है और सदा व सर्वत्र, अर्थात् उसके सर्वव्यापक स्वरूप में सर्वत्र, एक समान व एक रस ही रहता है। इस वेद विद्या व सर्वषक्तिमान होने से ही ईष्वर इस सृश्टि की रचना कर सके ह। सृश्टि रचना का वर्णन भी वेदों के अनेक मन्त्रों व सूक्तों में उपलब्ध होता है। ऐसा ही वर्णन ऋग्वेद के मण्डल १०, सूक्त १९० के मंत्र १ से ३ में हुआ है। इन तीनों मंत्रों का विधान ऋशि दयानन्द ने ईष्वरोपासना व सन्ध्या के मन्त्रों में अघमर्शण मन्त्रों के नाम से किया है। इसमें एक स्थान पर यह भी कहा गया है कि ईष्वर ने अपने अपूर्व ज्ञान व पूर्व कल्पों के समान इस सृश्टि की रचना की है। ऐसा वर्णन वेदों के परवर्ती ऋशि परम्परा के विपरीत ग्रन्थों, मध्यकालीन व परवर्ती किसी मत के आचार्य व उनकी पुस्तकों में नहीं मिलता है। वेद सृश्टि के आदि ग्रन्थ हैं। विदेषी विद्वान मैक्समूलर भी इस तथ्य को स्वीकार करते हैं। वह यह भी मानते थे कि वेदों का मूल स्वरूप सृश्टि के आदि से लेकर आज तक यथावत् बना रहा है। उसमें किंचित भी परिवर्तन व परिवर्धन नहीं हुआ है। इसके लिए वह वेदाध्यायी पंडितों की प्रषंसा भी करते हैं। एक फ्रासीसी विद्वान ज्यां ले मेई अपनी पुस्तक भ्लउदे तिवउ जीम त्पहअमकं ;।ब् १९७५ म्कपजपवदद्ध में लिखते हैं कि ’लोगों ने अपनी संस्कृति को सुरक्षित रखने के लिए पत्थरों की इमारतें बनाई, जो प्रतिवर्श कुछ-न-कुछ जीर्ण होती जाती हैं। उन संस्कृतियों में से बहुतों के केवल खण्डहर रह गये हैं। किन्तु आर्य संस्कृति के प्राचीनतम ऋशियों ने ईष्वरीय ज्ञान वेद को यथाषक्य मूल रूप में सुरक्षित रखने का प्रयत्न किया। जिस परिश्रम और तपस्या से भारतवर्श के ऋशियों ने पिछले हजारों वर्शों की परम्परा द्वारा आज तक वेद का यह भण्डार हमारे लिए सुरक्षित रखा है, उससे बडा आष्चर्य क्या होगा?‘ सृश्टि के आरम्भ से वर्तमान काल तक वेदों के सुरक्षित रहने में एक कारण यह भी है कि उसके आठ प्रकार के विकृति पाठ होते हैं। यह पाठ हैं जटा, माला, षिखा, लेखा, ध्वजो, दण्डो, रथो एवं धन पाठ। षास्त्रों में यह विधान है कि ब्राह्मण किसी लाभ हानि का विचार किये बिना, अर्थात् निश्कारण ही, वेदों का अध्ययन करें व उनकी रक्षा करें। यहां मुख्य बात यह है कि सृश्टि के आदि काल में वेदों की उत्पत्ति के विशय में कोई विवाद नहीं था। वेदों में जो कहा गया है वह मनुश्यों की जानकारी के लिए बताया गया है जिससे उनमें किसी कारण षंका व भ्रम उत्पन्न न हो। यदि इस वेद मन्त्रों में वेदों की उत्पत्ति ईष्वर से होने की चर्चा व उल्लेख न होतो तो भ्रम हो सकता था और परवर्ती मनुश्यों को यह निष्चित करने में कठिनाई होती। वेदों में उल्लेख मिलने से सभी षंकायें निर्मूल हो गई हैं। यह भी विचारणीय है कि जब सृश्टि की आदि में मनुश्यों की अमैथुनी उत्पत्ति हुई तो उन्हें अपने दैनन्दिन कार्य करने के लिए भाशा बोलने व कर्तव्यों के ज्ञान की आवष्यकता थी। उस समय उन्हें भाशा सिखाने व कर्तव्यों का ज्ञान कराने वाला कोई आचार्य व माता-पिता नहीं थे। सृश्टि में इस संसार की रचना करने वाला ईष्वर ही उनका आचार्य, माता व पिता सब कुछ था। वह सर्वज्ञ व सर्वषक्तिमान होने सहित सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी भी था व है। अतः भाशा व कर्तव्यों का ज्ञान उसी ईष्वर से प्राप्त हो सकता है। इसीलिए वेदों की भाशा और ज्ञान ईष्वर ज्ञान सिद्ध होता है। यदि इस विशय में विस्तार से जानना हो तो पाठकों को ऋशि दयानन्द कृत सत्यार्थप्रकाष और ऋग्वेदादिभाश्यभूमिका आदि ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिये। इन ग्रन्थों के अध्ययन से वेदोत्पत्ति विशयक सभी भ्रम दूर हो जाते ह, ऐसा हम अनुभव करते हैं। वर्तमान काल में संसार में अनेक मिथ्या मत-मतान्तर हैं। मिथ्या इस कारण से कि इनकी ईष्वर व जीवात्मा संबंधी अपूर्ण व मिथ्या मान्यतायें हैं। इन मतों में मनुश्यों के कर्तव्यों का भी भली प्रकार से विधान नहीं है। इन सभी मतों से इनके आचार्यों एवं अनुयायियों के अपने अपने स्वार्थ जुडे हुए हैं। वह सत्य को जानना व समझना ही नहीं चाहते। उन्होंने एकतरफा मान लिया है कि उनके ग्रन्थों में जो लिखा है वह सत्य है तो भी ठीक है और नहीं है तो भी ठीक है। वह अपने ग्रन्थों के असत्य को भी सत्य ही मानेंगे। सत्यासत्य के निर्णय के लिए न्यायदर्षन की रचना वैदिक साहित्य के अर्न्तगत महर्शि गौतम ने की है। वैदिक ऋशियों और आर्यसमाज के विद्वानों ने इसी आधार पर वैदिक मान्यताओं के सत्यासत्य की परीक्षा कर सत्य को स्वीकार किया है। ऋशि दयानन्द के समान सत्य का आग्रही षायद संसार में आज तक दूसरा उत्पन्न नहीं हुआ है। उन्होंने अपनी सभी मान्यताओं को वैदिक षास्त्रों की सत्यासत्य के निर्णय की प्रकि्रया के अनुसार यथार्थ सिद्ध होने पर ही स्वीकार किया है। अतः वैदिक मान्यतायें ही पूर्णतः सत्य है। ईसादि मनुश्यकृत मत-मतान्तरों की जो मान्यतायें वेदानुकूल व वेदसम्मत हैं वह सत्य हैं अन्यथा असत्य प्रायः हैं और वह असत्य उन मतों व उनके आचार्यों का अपना है। उसके लिए परमात्मा व वेद दोशी नहीं है।
वेदों की महत्ता इस बात से भी सिद्ध है कि यह सृश्टि के आदि काल में उत्पन्न हुए। वेदों में ईष्वर, जीवात्मा व प्रकृति का जो ज्ञान विज्ञान सम्मत प्रकाष हुआ है उससे यह ईष्वरीय ज्ञान सिद्ध होते हैं। देष से बाहर व भीतर विगत चार हजार वर्शों में जितने मत-मतान्तर उत्पन्न हुए हैं उनमें ईष्वर, जीव व सृश्टि विशयक विचार वेदों की दृश्टि से बहुत ही निम्न कोटि के, अपूर्ण व अषुद्ध हैं। उन्हें तो यह भी ज्ञात नहीं कि यह सृश्टि ईष्वर ने कब, क्यों व किस लिए बनाई? मनुश्यों से इतर पषुओं आदि की रचना का कारण क्या है। प्रलय कब व क्यों होगा? मत-मतान्तरों के ग्रन्थों में स्त्री व पुरुशों को समान अधिकार न देकर महिलाओं को निम्न व पुरुशों को श्रेश्ठ व अधिक महत्वपूर्ण माना गया है। आज भी अनेक मतों में स्त्रियों को उनके धार्मिक स्थलों में जाने की अनुमति नहीं है। इसके लिए संघर्श चल रहे हैं। इससे ऐसे सभी मत ज्ञान विज्ञान के विपरीत अनुपयोगी व मनुश्यों के लिए लाभदायक होने के स्थान पर हानिकारक प्रतीत होते हैं। यह मत कर्म फल सिद्धान्त तक को जानते नहीं हैं और इनके ईष्वर एक देषी होने के कारण सभी प्राणियों के कर्मों के साक्षी न होने से सत्य न्याय भी नहीं कर सकते। इसी कारण इन मतों में पापकर्मी मनुश्यों की संख्या अधिक पायी जाती है। ऐसे अनेक कारणों से वैदिक मत से इतर सभी मत आज अप्रसांगिक हैं। ईष्वर व उसका ज्ञान वेद ही मनुश्य के लिए सर्वाधिक हितकारी है। ईष्वर व जीवात्मा का सत्य स्वरूप वेद में वर्णित है और जो वेद में वर्णित है वह सभी पदार्थ व विधान वैसे ही सृश्टि में घटित हो रहे हैं। वेद ईष्वर रचित हैं, अतः सबको वेद पढने चाहिये और वेदाचारण ही सब मनुश्यों का धर्म है। इसी के साथ इस चर्चा को समाप्त करते हैं। ओ३म् षम्।

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