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संसार के सभी मनुश्यों के जीवन में वेद, ईष्वर एवं धर्म का गहरा सम्बन्ध

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15 Oct 17
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यदि कोई मनुश्य इनकी उपेक्षा करता है तो वह अपना कुछ यह जन्म और पूरा परजन्म विनश्ट करता है। परस्पर विरोधी बातें सत्य नहीं हुआ करतीं। या तो पूर्वजन्म-जन्म-पुनर्जन्म का सिद्धान्त सत्य है या फिर एक जन्म जिसका न पूर्व है न पष्चात है। इन दोनों में से एक ही सिद्धान्त सत्य हो सकता है। सिद्धान्त उसी को कहते हैं कि जो सत्य तथ्यों पर आधारित हों जैसे कि विज्ञान के सिद्धान्त होते हैं। पूर्व और पुनर्जन्म के पक्ष में इस संसार को बनाने वाले ईष्वर की वेदों में साक्षी है और पूर्व व परजन्म को न मानने वाले कुछ अल्पज्ञ लोग हैं जबकि विष्व की बहुत बडी जनसंख्या पूर्व व पर-जन्म को मानती है। यदि पूर्व व पष्चात जन्मों पर विचार करें तो इसके पक्ष में अनेक तर्क, युक्तियां व समर्थक विचार उपलब्ध होते हैं। विज्ञान का सिद्धान्त है कि संसार में जो पदार्थ हैं वह किन्हीं आदि पदार्थों का ही विकार हो सकता है क्योंकि सृश्टि में अभाव से न कोई नया पदार्थ बनता है और न ही नश्ट होता है। ईष्वर और जीवात्मा भी दो चेतन तत्व ह जो अनादि व अनन्त स्वरूप वाले हैं। सृश्टि को देखकर सृश्टिकर्ता का ज्ञान उसी प्रकार से होता है जैसे किसी भी रचना को देखकर रचयिता का ज्ञान होता है। मेज व पुस्तक को देखकर इनके बनाने वाले रचयिता बढई व पुस्तक लेखक, मुद्रक व प्रकाषक का ज्ञान होता है। जिस प्रकार मेज बनाने व पुस्तक लिखने व प्रकाषित करने का कोई न कोई उद्देष्य होता है इसी प्रकार से ईष्वर का सृश्टि बनाने और जीवात्मा का जन्म मरण व मोक्ष प्राप्ति का अकाट्य वा तर्कसंगत उद्देष्य वा प्रयोजन वेद व वैदिक साहित्य में प्राप्त होता है। अतः सृश्टि है तो इसका बनाने वाला भी सिद्ध होता है और सृश्टि बनाने का उद्देष्य भी निष्चित होता है। वैदिक मान्यताओं के अनुसार ईष्वर एक स्वयंभू अकेली, दो, तीन व अधिक नहीं, सत्ता है। वह सच्चिदानन्दस्वरूप सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वषक्तिमान, सर्वान्तर्यामी व सृश्टि की उत्पत्ति, स्थिति व प्रलय के ज्ञान से परिपूर्ण है व उनकी उत्पत्ति सहित इन्हें संचालित करने व इसकी प्रलय करने में समर्थ है। संसार में एक ईष्वर के अतिरिक्त अणु प्रमाण वाली अनन्त संख्या में चेतन जीवात्मायें हैं जिनका स्वभाव व स्वरूप ज्ञान व कर्म की प्रवृत्ति वाला है। यह इच्छा, द्वेश, सुख, दुःख आदि से युक्त हैं। यह भी अनादि, अविनाषी व अमर हैं। अल्पज्ञ व अल्प षक्तिमान हैं। जन्म व मृत्यु के बीच जीवात्मा वा आत्मा का अस्तित्व अनुभव होता है तथा इससे भिन्न अवस्था में इनका दर्षन व अनुभव मनुश्य षरीर की कुछ न्यूनताओं के कारण नहीं होता परन्तु वेद प्रमाण व मन व बुद्धि से चिन्तन करने पर अनुभव में कुछ कुछ आ जाता है। इन जीवात्माओं की संख्या अनन्त हैं। इन जीवात्माओं को षुभाषुभ कर्म करने व पूर्व के कर्मों का फल भोगने के लिए ही ईष्वर सृश्टि की रचना करता है व जीवात्माओं को उनके पूर्व कर्मो वा प्रारब्ध के अनुसार उनकी जाति, आयु व भोग निर्धारित कर संसार में भेजता है। यह जन्म व मरण का चक्र सृश्टि की प्रलय होने तक चलता रहता है। सृश्टि कीप्रलय के बाद ईष्वर फिर सृश्टि बनाता है और यह क्रम फिर आरम्भ हो जाता है। जन्म व पुनर्जन्म का यह चक्र अन्तहीन हैं जो हमेषा चलता रहेगा।
संसार में ईष्वर व जीवात्मा से भिन्न तीसरा पदार्थ प्रकृति है। मूल प्रकृति सत्, रज् व तम् गुणों वाली प्रकृति की साम्यावस्था को कहते हैं। यह प्रकृति चेतन पदार्थ न होकर जड पदार्थ है। यह परमाणुरूप बताई जाती है। परमात्मा प्रकृति के सूक्ष्म कणों से सृश्टि की रचना करता है। प्रकृति का पहला विकार महतत्व होता है, दूसरा अहंकार और उससे पांच तन्मात्रायें बनती हैं। इसके बाद पंचमहाभूत अग्नि, वायु, जल, आकाष और पृथिवी बनते हैं। प्रकृति के सूक्ष्म कणों, महतत्व व अहंकार से ही हमारा मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, ज्ञानेन्दि्रय व कर्मेन्दि्रयां बनी हैं। यह भी जानने योग्य है कि हमारा दिखाई देने वाला षरीर स्थूल षरीर है जो हमारे आत्मा से युक्त सूक्ष्म षरीर से बनता है। यह सूक्ष्म षरीर सभी जीवात्माओं का ईष्वर सृश्टि की आदि में बनाते हैं जो सृश्टि की प्रलय तक चलता है। यही सूक्ष्म षरीर संसार के सभी प्राणियों, जीव-जन्तुओं में एक समान है अर्थात् मनुश्य का सूक्ष्म षरीर, कुत्ते, बिल्ली, मछली, बकरी, भेड, गाय, भैंस आदि सबका एक समान होता है।
हमने उर्युक्त पंक्तियों में ईष्वर व जीवात्मा तथा मानव षरीर के बारे में जो कहा है वह वेद और वैदिक साहित्य के अध्ययन के आधार पर कहा है जो विचार व चिन्तन करने पर सत्य व प्रत्यक्ष होता है। वेद और ईष्वर का परस्पर गहरा, अटूट, नित्य व अनादिकाल से संबंध है। वेद इस सृश्टि विशयक व इससे भी अतिरिक्त वह ज्ञान है जो अपनी पूर्ण उन्नत अवस्था में ईष्वर में निहित है। ईष्वर सर्वदेषी व सर्वव्यापक होने के कारण भी सर्वज्ञ वा वेद ज्ञान से परिपूर्ण है। यद्यपि ईष्वर में वाक इन्दि्रय नहीं है फिर भी उसके सर्वषक्तिमान व सर्वान्तर्यामी होने के कारण यह सामर्थ्य है कि वह अपने ज्ञान को सृश्टि के आरम्भ में चार ऋशियों को देते हैं। इसका उद्देष्य यह है कि संसार के सभी मनुश्य सम्पूर्ण ज्ञान व अपने कर्तव्याकर्तव्य को जान सकें। ऋशि दयानन्द ने कहा है कि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेद का पढना-पढाना और सुनना-सुनाना सब आर्यों अर्थात् मनुश्यों का परमधर्म है। ऋशि दयानन्द ने जो कहा है वह सृश्टि की आदि से महाभारतकाल पर्यन्त भूगोल में प्रचलित रहा है। परीक्षा करने पर भी यह बात सत्य सिद्ध होती है। मानव जाति का यह सौभाग्य है कि ईष्वर ने सृश्टि के आरम्भ में चार वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का ज्ञान दिया था वह आज तक यथावत् न केवल सुरक्षित है अपितु आज यह ज्ञान हमें संस्कृत भाशा सहित हिन्दी, अंग्रेजी एवं अन्य भाशाओं में भी उपलब्ध है। इसका श्रेय महर्शि दयानन्द सरस्वती जी को है। इस दृश्टि से हम महाभारतकाल के बाद व ऋशि दयानन्द के वेदभाश्य करने तक उत्पन्न हुए सभी मनुश्यों की तुलना में अधिक भाग्यषाली हैं क्योंकि वेद व उसके सत्यार्थ हमें उपलब्ध हैं जिनका अध्ययन कर हम उनसे लाभ उठा रहे हैं। हमें तो यह भी अनुभव होता है कि देष ने ऋशि दयानन्द के समय से जो उन्नति की है उसमें सर्वाधिक योगदान ऋशि की वेद विचारधारा व वेद ज्ञान को ही जाता है। इसी से देष्ज्ञ व विष्व में सभी दिषाओं में सुधार हुए और देष स्वतन्त्र होकर आज भौतिक दृश्टि से उन्नति के पथ पर अग्रसर है। यदि आज के हिन्दू व इसके पौराणिक विद्वान असत्य व पौराणिकता को छोडकर वेद व वैदिक ऋशियों के ग्रन्थों को अपना लें तो हिन्दू जाति, अध्यात्म, भौतिक ज्ञान व आधुनिक साधनों की दृश्टि से संसार की सबसे बलवान व श्रेश्ठ जाति बन सकती है।
वेद ईष्वर का ज्ञान है जो मनुश्यों के कल्यार्ण ईष्वर सर्ग के आरम्भ में चार ऋशियों को देता है। वेद ज्ञान को जान लेने के बाद मनुश्य संसार में विद्या के क्षेत्र में वह सभी कार्य कर सकते हैं जो विद्या से सम्भव हैं। विद्या की उन्नति में सबसे अधिक बाधक अविद्या अर्थात् अज्ञान, अन्धविष्वास, मिथ्या-परम्परायें, सामाजिक कुरीतियां, मनुश्यों का आलस्य प्रमाद व स्वार्थ आदि हैं। अच्छे षिक्षित व धार्मिक वेद ज्ञान युक्त माता, पिता व आचार्यों का न होना भी मनुश्य व संसार की उन्नति में बाधक है। आज कल की पाष्चात्य भोगवादी संस्कृति ने भारतीयों को भी त्यागमय आध्यात्मिक जीवन से दूर कर भोगवादी बना दिया है। इसी कारण वेदों का प्रचार कार्य सफलतापूर्वक नहीं हो पा रहा है। आर्यसमाज के विद्वानों की अपनी सन्तानें भी आधुनिक षिक्षा अर्जित कर उन कार्यों को कर रहे हैं जहां पैसा अधिक हो भले ही उन्हें रात दिन कार्य करना पडे। ऐसे सभी लोग विदेषों में जाकर रहना पसन्द करते हैं। देष इन लोगों से दूर हो जाता है। आर्यसमाज के बहुत से विद्वान भी विदेषों में जाने का जुगाड करते दीखते हैं। एक प्रकार से वैदिक धर्म व संस्कृति के लिए वर्तमान का समय कुछ अवरोधक सा प्रतीत होता है। हमें लगता है कि यह ईष्वर का ही कार्य है। वही योग्य मनुश्यों व विद्वानों को वेद मार्ग अपनाने व प्रचार करने की प्रेरणा करेगा तभी यह कार्य वृद्धि को प्राप्त हो सकता है।
धर्म की बात करें तो धर्म और कुछ नहीं ईष्वर की आज्ञा का पालन करना है। यह आज्ञा ईष्वर ने वेदों में दी है। वेदों का अध्ययन कर उसके अनुसार चलना ही धर्म है और उसके विपरीत चलना अधर्म है। ईष्वर व जीवात्मा का स्वरूप सत्य व चित्त है। अतः जिस प्रकार ईष्वर सत्य में स्थित है उसी प्रकार से जीवात्मा को भी सत्य में स्थित रहना धर्म है। इसी कारण सत्याचार को धर्म बताया जाता है। परोपकार व दुःखयों का दुःख दूर करना भी धर्म में आता है। दुख देना पाप व अधर्म है व दुखियों के दुःख दूर करने में तत्पर रहना धर्म है। मनुश्य जीवन के जो श्रेश्ठ कर्तव्य हैं उनका पालन धर्म है। वेद पंचमहायज्ञ वा महा-कर्तव्य-पालन की षिक्षा देते हैं। यह है ब्रह्मयज्ञ व ईष्वरोपासना, देवयज्ञ अग्निहोत्र, पितृ यज्ञ के अन्तर्गत माता-पिता व वृद्धों की सेवा, अतिथियज्ञ वा विद्वान आचार्यों व गुणियों का सम्मान, सेवा व सत्कार आदि तथा पंाचवा कर्तव्य बलिवैष्वदेवयज्ञ है जिसमें पषु, पक्षियों के प्रति मित्रता का भाव रखते हुए उनके जीवनयापन में सहयोग करना होता है। वेदाध्ययन से मनुश्य को सन्मार्ग में चलने की प्रेरणा व ज्ञान प्राप्त होता है अतः वेदाध्ययन व वेदाचरण ही धर्म सिद्ध होता है। संसार के जितने भी मत-मतान्तर हैं, वह मत, सम्प्रदाय, मजहब आदि तो हो सकते हैं परन्तु धर्म तो संसार के सभी मनुश्यों का एक ही होता है और वह सत्याचरण वा वेदाचरण है। यह दोनों षब्द पर्यायवाची हैं। इनसे भ्रमित नहीं होना चाहिये।
हमने वेद, ईष्वर व धर्म की चर्चा की है। हम अधिकारी विद्वान नहीं है परन्तु हमने वैदिक व आर्य साहित्य का कुछ थोडा सा अध्ययन किया है जिससे प्रभावित होकर हम कुछ सामग्री अपने मित्रों के सामने प्रस्तुत करते रहते हैं। उसी कडी में यह लेख है। यह आप सब पाठकों को समर्पित है।

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