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उपासना करने वाले भक्त के सभी शत्रु नष्ट हो जाते

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22 Sep 17
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मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।आश्रम के शरदुत्सव के दूसरे दिन प्रातः योग साधना का प्रशिक्षण व उसके बाद सन्ध्या एवं ऋग्वेद के मन्त्रों से यज्ञ का आयोजन सफलतापूर्वक सम्पन्न किया गया। दिन में आश्रम के भव्य एवं वृहद नव-निर्मित सभागार में आश्रम द्वारा संचालित तपोवन विद्या निकेतन जूनियर हाईस्कूल का वार्षिकोत्सव आयोजित हुआ जिसमें विद्यालय के बच्चों ने अनेक भव्य एवं चित्ताकर्षक एवं मनोरंजक कार्यक्रम प्रस्तुत किये जिनसे श्रोता भाव विभोर हो गये। इसकी पुष्टि वहां गणमान्य व्यक्तियों ने अपने सम्बोधनों में भी की।

आश्रम में आयोजित यज्ञ की ब्रह्मा नजीबाबाद के आर्य कन्या गुरुकुल की संस्थापिका आचार्या प्रियंवदा जी थी और मन्त्रपाठ उन्हीं के गुरुकुल की पांच छात्राओं ने शुद्ध व स्पष्ट उच्चारण करके किया। मंच पर आर्यजगत की महान हस्ती गीतकार एवं भजन गायक पं. सत्यपाल पथिक जी उपस्थित थी। दो भजनोपदेशक पं. रूहेल सिंह एवं श्री आजाद सिंह जी भी उपस्थित थे। आश्रम के यशस्वी प्रधान श्री दर्शनकुमार अग्निहोत्री एवं यशस्वी मंत्री श्री प्रेम प्रकाश शर्मा जी के साथ श्री शैलेश मुनि सत्यार्थी एवं मरणोपरान्त अपने शरीर के सभी अंगों का दान करने वाले आदरणीय भाई श्री सुशील भाटिया जी भी उपस्थित थे। इस आयोजन में गुरुकुल पौंधा के 9 ब्रह्मचारी भी उपस्थित थे जो आश्रम के सेवा कार्या में अपना सहयोग कर रहे हैं।

यज्ञ में उच्चारित ऋग्वेद के सूक्तों की समाप्ति के अनन्तर यज्ञ की ब्रह्मा आचार्य प्रियंवदा जी व्याख्यान भी करती हैं जिससे श्रोता ज्ञान लाभ करते हैं। उन्होंने कहा कि वेद परम पिता परमात्मा का काव्य है। प्रभु अग्नि, इन्द्र, सोम व वरूण भी हैं। उन्होंने साधको व यज्ञ प्रेमियों को परमात्मा के इन गुणों को जानने व उन्हें धारण करने का आह्वान किया। उन्होंने कहा कि ईश्वर अग्नि अर्थात् प्रकाशस्वरूप, ज्ञानस्वरूप एवं तेज का पुंज है। हमें उसके इन गुणों को धारण करना है। उन्होंने बताया कि आगे ले जाने के कारण अग्नि को अग्नि कहते हैं। उन्होंने कहा कि जहां अन्धकार होता वहां हमें प्रकाश की आवश्यकता होती है और हम उसे ढूंढते हैं। परमात्मा अग्नि हैं और वह हमें अन्धकार से भी बाहर निकाल कर प्रकाश देते हैं। परमात्मा हमें आगे ले जाने के कारण अग्नि कहे जाते हैं। उन्होंने कहा कि ईश्वर की उपासना करने वाले भक्त के सभी शत्रु नष्ट हो जाते हैं। उन्होंने कहा कि यज्ञ का साथ परमात्मा का साथ है व उसका हाथ पकड़ना है। ईश्वर की उपासना ऐसी है जैसे कि किसी निर्धन की बेटी का किसी अमीर के पुत्र के साथ विवाह होना। उन्होंने यह भी कहा कि हमें प्रभु से जुड़ना चाहिये। प्रभु की भंक्ति हमें अपने अन्तःकरण से करनी चाहिये। हमें ईश्वर की भक्ति को छोड़कर इधर उधर भटकना नहीं चाहिये।

यज्ञ की समाप्ती के बाद पं. सत्यपाल पथिक जी ने यज्ञ प्रार्थना गाकर प्रस्तुत की जिसका आनन्द कई गुणा बढ़ गया। इसके बाद उन्होंने एक और भजन प्रस्तुत किया। भजन से पूर्व पथिक जी ने कहा कि यहां आश्रम मंम वेद की गंगा बह रही है। उन्होंने वेदों का एक मन्त्र बोला और कहा कि ऐसा लग रहा कि यहां बैठा हुआ प्रत्येक व्यक्ति वेद की गंगा में स्नान कर रहा है। उन्होंने गुरुकुल की ब्रह्मचारिणियों द्वारा शुद्ध मंत्र पाठ करने के लिए सराहना की। वेद मन्त्र का अर्थ करते हुए उन्होंने कहा कि मन्त्र में कहा गया है कि मेरे मन के पाप, तू यहां से हट जा, दूर चला जा। मैं तूझे बिलकुल पसन्द नहीं करता। मन्त्र कहता है कि पाप तू वन में जाकर अपना डेरा लगा, यहां मेरे पास तेरा कोई काम नहीं है। स्तोता कहता है कि मेरा मन गोसेवा तथा समाज सेवा आदि अच्छे कार्यों में लगा हुआ है। इस मंत्र पर आधारित पथिक जी ने अपनी एक रचना गाकर प्रस्तुत की। गीत के बोल थे ‘अरे पाप अरे हट जा मेरे मन के निकट नहीं आ। मनुआ मेरा सीधा साधा तेरा नहीं है नेक इरादा रे।।’ हमने इस गीत के आंशिक भाग की वीडियो रिकार्डिंग भी की। पथिक जी के बाद आर्य भजनोपदेशक श्री रूहेलसिंह जी ने एक भजन प्रस्तुत किया जिसके बोल थे ‘प्रीत तुमसे लगी दुनिया से प्यार क्यों करें। कोई कुछ भी कहे इसका विचार कौन करे।। छ़ोड़ दी तेरे भरोसे पे भंवर में नैया। मूढ़ माझी की विनय बार बार कौन करे।। बन गये अश्रु मोती की लड़ी। देखों तो भेंट तुमको अब फूलों के हार कौन करे।। मन है सुन्दर तो रंग रूप सभी सुन्दर हैं। बनावटी श्रृंगार कौन करे।।’ इस भजन के बाद दिल्ली की माता सरदाना जी ने अपनी एक स्वरचित कविता प्रस्तुत की।

अपने प्रवचन में यज्ञ की ब्रह्मा आचार्या प्रियंवदा जी ने तामस यज्ञ की चर्चा की। ऐसा यज्ञ जो मंत्र विहीन हो, जिसमें पुरोहितों को दक्षिणा न दी जाये और जिसमें अन्न व शुद्ध गो घृत की आहुतियां न दी जाये वह तामस यज्ञ होता है। उन्होंने कहा कि यदि ऋषि दयानन्द जी इस धरा धाम पर न आये होते तो हम वैदिक यज्ञ न रचा पाते। स्वामी दयानन्द जी की कृपा हमारे वर्तमान यज्ञों में अनुश्रुत है। ऋषि दयानन्द जी से हमें सन्ध्या भी मिली है जो कि उनकी हम पर विशेष कृपा दर्शाती है। ऋषि दयानन्द व उनसे पूर्व अथर्ववेद को लोग निकृष्ट मानते थे। वह अन्य तीन ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद को ही वेद मानते थे, अथर्ववेद को नहीं मानते थे। ऋषि ने सप्रमाण घोषणा की कि सृष्टि के आरम्भ में एक साथ चार ऋषियों को चार वेदों का ज्ञान मिला था। चारों वेदों का स्थान समान है कोई कम व कोई अधिक महत्वपूर्ण नहीं है। उन्होंने कहा कि अथर्ववेद तीन वेदों के बाद आया, इस मिथ्या मान्यता का खण्डन ऋषि दयानन्द के अनेक वचनों से होता है। इससे सम्बन्धित विदुषी वक्ता ने वेदों के प्रमाण बोलकर भी सुनाये। आचार्या डा. प्रियंवदा वेदभारती जी ने जन्दावस्ता ग्रन्थ की चर्चा की और कहा कि यह लगभग पांच हजार वर्ष पुराना है। उन्होंने बताया कि इसका मूल छन्दोवेद अर्थात् अर्थववेद है। उनके अनुसार यही बिगड़ कर जन्दावस्ता बना है। इसका पहला मंत्र शं नो देवीर्भिष्टय का कुछ बिगड़ा रूप है। उन्होंने कहा कि अथर्ववेद की पैप्लाद शाखा का पहला मन्त्र शं नो देवीर्भिष्टय ही है। उन्होंने कहा कि आर्यसमाज में अथर्ववेद की शौनक शाखा का प्रचलन है।

वैदिक साधन आश्रम तपोवन द्वारा संचालित तपोवन विद्या निकेतन जूनियर हाईस्कूल का आज वार्षिकोत्सव भी सम्पन्न हुआ। इस अवसर पर स्कूल के छात्र और छात्राओं ने अनेक सांस्कृतिक कार्यक्रम जिनमें नृत्य, नाटक व गीत आदि थे, प्रस्तुत किये। बच्चों के अभिभावक, आश्रम के साधक-साधिकायें एवं आमंत्रित अतिथि भी आयोजन में सम्मिलित थे। स्कूल के सभी बच्चे भी इस उत्सव में सम्मिलित हुए। कार्यक्रम अत्यन्त रोचक एवं प्रभावशाली था। अन्त में इस आयोजन को आचार्या प्रियंवदा जी ने सम्बोधित किया और आयोजन में प्रस्तुत अनेकानेक प्रस्तुतियों की खुल कर प्रशंसा की।

रात्रिकालीन सभा में आर्ष गुरुकुल पौंधा के ब्रह्मचारी देवव्रत का एक प्रभावशाली भजन हुआ। इससे पूर्व आर्य भजनोपदेशक श्री आजाद सिंह आजाद ने भी भजन प्रस्तुत किये। देवव्रत जी के भजन की प्रथम पंक्ति थी ‘सत्य धर्म की राहों पर क्यूं तुमने चलना छोड़ दिया।’ इसके बाद एक अन्य आर्य भजनोपदेशक श्री रूहेल सिंह जी का भजन हुआ। उनके भजन की प्रथम पंक्ति थी ‘ऋषि दयानन्द अगर न आते तो हमारी नैया पार न होती।’ श्री रूहेल सिंह जी के बाद आर्य कन्या गुरुकुल नजीबाबाद की छात्रा ब्र. निकेता ने एक भजन प्रस्तुत किया जिसके बोल थे ‘एक जंगल में नई बस्ती बसा दी तुने। पत्थर पत्थर में ज्योति लगा दी तुने।।’ इस भजन को बहुत सराहा गया। लोगों ने धन देकर भी निकेता जी का उत्साहवर्धन किया।

इसके बाद आर्यसमाज लक्ष्मण चौक के विद्वान पुरोहित श्री रणजीत शास्त्री का प्रभावशाली एवं प्रेरणादायक व्याख्यान हुआ। उन्होंने कहा कि वेद का अर्थ ज्ञान होता है। उन्होंने आगे कहा कि मर्यादा टूटती हैं तो महाभारत होता है। उदाहरण देकर उन्होंने कहा कि जब वेदाज्ञा हिंसा मत करो, चोरी मत करो, असत्य व्यवहार मत करो आदि को तोड़ा जाता है तो विवाद व युद्ध हुआ करते है। उन्होंने कहा कि महाभारत काल में राजा शान्तनु ने मर्यादा तोड़ी। उनको वानप्रस्थ जाना चाहिये था परन्तु वह नहीं गये। इससे मर्यादा टूट गयी और इसके भावी परिणाम अच्छे नहीं हुए। इस सम्बन्ध में उन्होंने अनेक उदाहरण भी दिये। विद्वान वक्ता ने कहा कि जन्म के समय सांसे मुख्य होती है। मृत्यु के समय मृतक का नाम व उसके काम शेष रह जाते हैं। उन्होंने कहा कि जन्म और मृत्यु अथवा सांस और नाम के बीच की जो अवधि है उसे ही जीवन कहते हैं। उन्होंने कहा कि सन्त और बसन्त में थोड़ा सा अन्तर है। बसन्त के आने पर प्रकृति सुधर जाया करती है और सन्त आते हैं तो संस्कृति सुधर जाती है। श्री रणजीत शास्त्री जी ने कहा कि वेद मंत्रों में निहित ज्ञान को हमें जानना है व उन पर चिन्तन करना है। श्रोताओं को वेद की शिक्षाओं को अपने जीवन में ढालने का उन्होंने आह्वान किया। वेद विरूद्ध कार्य वेदों की मर्यादाओं का उल्लघंन हैं। उन्होंने पं. रामचन्द्र देहलवी, आचार्य उदयवीर शास्त्री, पं. प्रकाशवीर शास्त्री और स्वामी विद्यानन्द सरस्वती जी के नाम लेकर कहा कि पहले के विद्वान काम के विद्वान थे अब अधिकतर नाम के विद्वान हैं।

कार्यक्रम के अन्त में प्रसिद्ध आर्य भजनोपदेशक पं. सत्यपाल पथिक जी के प्रभावशाली भजन हुए। पहला था ‘ऐ आर्यजनों प्रणवीर बनो संसार को आर्य बनाना है।’ दूसरा भजन उनकी एक नई रचना है जिसे उन्होंने पुस्तक रूप में प्रकाशित भी कराया है। पुस्तक का नाम है ‘ऋषि दयानन्द गुणगान’। यह पुस्तक हनुमान चालीस की तरज पर लिखी गई है। पथिक जी ने इसे कन्या गुरुकुल की छात्राओं एवं अन्यों के साथ मिलकर गाया। इसी के साथ रात्रि कालीन सत्संग समाप्त हुआ। अन्त में शान्ति पाठ भी किया गया। ओ३म् शम्।

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