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परमात्मा जिसका वरण कर लेते हैं उसके सामने अपना स्व.....

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13 Oct 18
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परमात्मा जिसका वरण कर लेते हैं उसके सामने अपना स्व..... -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून। आर्यसमाज लक्ष्मणचौक, देहरादून का 52वां वार्षिकोत्सव आंशिक ऋग्वेद पारायण यज्ञ से हुआ। आयोजन में दो आर्य विद्वान श्री वीरेन्द्र शास्त्री जी सहारनपुर से पधारे हुए हैं। दोनों के नाम पं. वीरेन्द्र शास्त्री हैं। यज्ञ में मंत्रोच्चार गुरुकुल पौंधा के दो ब्रह्मचारियों श्री विनीत आर्य और श्री वेदप्रिय आर्य ने किया। भजन के लिये आर्य भजनोपदेशक श्री अमरेश आर्य जी अपने ढोलक वादक श्री सुखदेव एवं हिमांशु जी के साथ पधारे हैं। ऋग्वेद आंशिक पारायण यज्ञ चार बड़े यज्ञकुण्डों में किया गया जिसमें कुण्ड के चारों ओर अनेकों यजमानों ने हव्य प्रदान किये। ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के 10 सूक्तों के पाठ से आहुतियां सम्पन्न होने पर यज्ञ के ब्रह्मा आचार्य वीरेन्द्र शास्त्री जी ने अपने सम्बोधन में कहा कि इन सूक्तों में दो देवताओं अग्नि व इन्द्र का वर्णन आया है। देवता वेदमन्त्र के विषय को कहते हैं। मन्त्रों के देवता व ऋषि वेदों की पुस्तक में मन्त्रों के साथ अंकित होते हैं। ऋषि मन्त्र का द्रष्टा होता है। मन्त्र परमात्मा के बनाये व दिये हुए हैं। आचार्य जी ने अग्नि देवता के रूढ़ एवं यौगिक अर्थों की चर्चा की। उन्होंने कहा कि ऋषि दयानन्द ने प्रत्येक मन्त्र का यौगिक पद्धति से अर्थ किया है। यौगिक अर्थ तीन प्रकार से किये जाते हैं ईश्वर परक, जीव परक तथा संसार परक। अग्नि उसे कहते हैं जो आगे जाती व आगे ले जाती है। मनुष्यों को वेदों का ज्ञान देने से परमात्मा को भी अग्नि कहते हैं। ज्ञान, गमन व प्राप्ति अर्थ में भी अग्नि का प्रयोग होता है। प्रकाशकों का प्रकाशक परमात्मा अग्नि कहलाता है। मनुष्य की इन्द्रियों को प्रकाश परमात्मा से ही मिलता है। ऐश्वर्यशाली होने से परमात्मा इन्द्र है। हमारे शरीरों में जो जीवात्मा है उसे भी इन्द्र कहते हैं। इन्द्र के अनेक अर्थ राजा, इन्द्र आदि भी होते हैं।

आचार्य वीरेन्द्र शास्त्री जी ने अग्निरूप परमेश्वर की उपासना करने का उपदेश किया। भौतिक अग्नि के गुणों को जानकर उसका उपयोग करना अग्नि की पूजा है। उन्होंने कहा कि मनुष्यों ने जो परमाणु हथियार बनायें हैं वह भी अग्नि के प्रयोग से ही बनें हैं। शास्त्री जी ने परमात्मा की उपासना करने का आग्रह किया। परमात्मा सभी प्राणियों का हितकारी होने से पुरोहित कहलाता है। परमात्मा ने ही सृष्टि व सृष्टि के सब पदार्थों को बनाया है। परमात्मा होता है अर्थात वह सबको सब कुछ देने वाला है। सारे संसार में यज्ञ को परमात्मा चला रहा है। उन्होंने कहा कि सूर्य की किरणें समुद्र का खारा जल लेती हैं और उन्हें वायु के साथ अनेक स्थानों पर ले जाकर वर्षा करती हैं। खारा जल खारा न रहकर खारेपन से रहित होकर प्राणीमात्र के लिये कल्याणकारी हो जाता है। हमारे शरीर का अधिकांश भाग जल ही है जो वर्षा के द्वारा समुद्र व नदियों आदि से सूर्य की किरणों के द्वारा आता है। यह वर्षा चक्र परमात्मा द्वारा किया जाने वाला यज्ञ है। आचार्य जी ने कहा कि यज्ञ करने वाला यज्ञ की तरह से बढ़ता है।

यज्ञ के समापन के बाद पंडित अमरेश आर्य जी नेयज्ञ प्रार्थना कराई। इसके बाद यजमानों को वैदिक वचनों से आशीर्वाद दिया गया। आर्यसमाज के विद्वान पुरोहित आचार्य रणजीत शास्त्री जी ने उत्सव से सम्बन्धित अनेक सूचनायें दीं। इसके बाद ध्वजारोहण हुआ। सभी यजमानों, श्रोताओं, आर्यसमाज के विद्यालय की सभी अघ्यापिकाओं एवं विद्यार्थियों ने मिलकर ध्वजारोहण किया। यजुर्वेद के 22/22 मन्त्र से राष्ट्रीय प्रार्थना संस्कृत व हिन्दी दोनों भाषाओं में हुई। ‘जयति ओ३म् ध्वज व्योम-विहारी विश्व-प्रेम-प्रतिमा अति प्यारी’ प्रार्थना आर्यसमाज के प्रसिद्ध पंडित सत्यपाल सरल जी ने गाकर प्रस्तुत की। ओ३म् ध्वज वा पताका को पूर्व प्रधान श्री राजकुमार भण्डारी तथा पं. वीरेन्द्र शास्त्री जी ने मिलकर फहराया। इसके बाद सभी बन्धुओं ने नाश्ता व चाय ग्रहण की। भजन व प्रवचन का आयोजन इसके बाद आरम्भ हुआ। प्रथम श्री अमरेश आर्य जी के भजन हुए। पहला भजन था ‘सारे नामों में है ओ३म् नाम प्यारा देने वाला है वह सबको सहारा, हमें और जगत से क्या लेना क्या लेना, सारे नामों में है ओ३म् नाम प्यारा।’ दूसरे भजन के बोल थे ‘सृष्टि रचाने वाले कितना महान् है तू, दाता दया के सागर प्राणों का प्राण है तू।’ तीसरे भजन के बोल थे ‘तू कर प्रभु से प्रीति यू हीं दिन बीतते जाते है।, तू हार के बाजी जीत यू हीं दिन बीतते जाते हैं।’

पं. वीरेन्द्र शास्त्री जी ने अपने प्रवचन के आरम्भ में कहा कि हम सदैव श्रुति को सुनें। श्रुति वेद को कहते हैं। वेद के अध्ययन व श्रवण से मनुष्य का मन, बुद्धि व आत्मा सभी पवित्र होते हैं। आर्यसमाज के भजन श्रुतियों के अर्थ ही हैं जिन्हें गीत के द्वारा प्रस्तुत किया जाता है। उन्होंने कहा कि पद्य सरलता से पचता है। उन्होंनें तरल एवं ठोस पदार्थों की चर्चा की और कहा कि तरल पदार्थ आसानी से जल्दी पचता है और ठोस देर में। आचार्य जी ने ऋग्वेद का एक मन्त्र बोला जिसमें कहा गया है कि मनुष्य का रक्षक ईश्वर ही है। उसे ही रक्षा के लिये पुकारना चाहिये। आचार्य जी ने कहा कि कौन ईश्वर की उपासना करता है? कौन ईश्वर की गोद में बैठता है? आचार्य जी ने मुंशीराम और महर्षि दयानन्द के प्रश्नोत्तरों को भी प्रस्तुत किया और कहा कि ऋषि दयानन्द ने युवक मुंशीराम को कहा था कि ईश्वर के अस्तित्व का विश्वास ईश्वर ही पात्र मनुष्य को कराते हैं। तुम अपने भीतर पात्रता उत्पन्न करो। यही मुंशीराम बाद में महात्मा मुंशीराम बने और उसके बाद स्वामी श्रद्धानन्द बने। उन्होंने कहा कि परमात्मा जिसका वरण कर लेते हैं उसके सामने अपना स्वरूप प्रस्तुत कर देते हैं।

ईश्वर एक है, जीवात्मा अनेक हैं। संसार में एक ईश्वर ही उपासनीय व स्तुति करने योग्य है। उन्होंने कहा कि पौराणिकों के अनेक भगवान होते हैं। उन्हें वह छोटा व बड़ा मानते हैं। विद्वान आचार्य ने कहा कि परमात्मा अनन्त है और उसके गुण, कर्म व स्वभाव भी अनन्त हैं। हमारी बुद्धि उसे पूर्ण रूप से जानने में समर्थ नहीं है। उन्होंने एक विद्वान का उदाहरण दिया जिसने लिखा कि जब मैं छोटा था तो कम जानता था, तब मुझे अपनी विद्या का अहंकार था। अब मैं कहीं अधिक जानता हूं परन्तु अब मैं अपने ज्ञान को ईश्वर के सम्मुख तुच्छ पाता हूं। मेरा अहंकार अब समाप्त हो गया है क्योंकि मैं जान गया हूं कि ईश्वर सबसे महान है। उन्होंने कहा कि हमारी बुद्धि पूर्ण रूप से परमात्मा को जानने में समर्थ नहीं हो सकती। आचार्य जी ने ऋषि दयानन्द जी की विनम्रता के उदाहरण दिये और बताया कि ऋषि ने कहा है कि यदि वह गौतम और कणाद ऋषियों के समय में उत्पन्न हुए होते तो एक साधारण मनुष्य के समान होते। उन्होंने कहा कि हम पूर्ण कभी नहीं हो सकते। जीवात्मा मुक्त होने पर भी सर्वज्ञ नहीं हो सकती। मुक्ति में भी जीवात्मा अल्पज्ञ ही रहेगी। परमात्मा जिसका वरण करता है उसके सामने अपने स्वरूप का प्रकाश कर देता है। परमात्मा हमारा वरण करें इसके लिये हमे पात्रता प्राप्त करनी है। ओ३म् शम्।

आचार्य वीरेन्द्र शास्त्री जी ने कहा कि जो दुष्टों व शत्रुओं से अपनी रक्षा चाहते हैं वह भगवान की उपासना करते हैं। मनुष्य का मन व आत्मा भगवान का घर है। पत्थरों की मूर्तियों वाले मन्दिर परमात्मा के घर नहीं है। आचार्य जी ने बताया कि बाहर के जगत् में प्रतीती होती है तथा भीतर के जगत में ईश्वर की प्राप्ति होती है। भीतर परमात्मा के आनन्द का भोग होता है। परमात्मा के आनन्द में दुःख का लेश भी नहीं है। परमात्मा के आनन्द का रस समय बीतने के साथ बढ़ता जाता है जबकि बाहरी पदार्थों का आनन्द समय से साथ घटता रहता है। आचार्य जी ने इसके लिये रस गुल्ले का उदाहरण दिया और कहा कि जो सुखानुभूति पहले रसगुल्ले में आती है वह चौथे मे नहीं होती। कोई पांचवा रसगुल्ला दे तो खाने का मन नहीं होता। उसको हम लौटा देते या मना कर देते हैं।

आचार्य जी ने कहा कि धन से कभी किसी मनुष्य की तृप्ति नहीं होती है। बाहर से भौतिक पदार्थों के भरने का नाम वासना है जबकि ईश्वर भक्ति के भीतर से भरने का नाम उपासना है। जो मनुष्य भीतर से खाली है वह बाहर से भी खाली रहता है। उन्होंने कहा कि मन है तो जड़ परन्तु यह चेतन आत्मा को चेतन परमात्मा तक ले जाने वाला साधन है। आचार्य जी ने एक वेदमन्त्र के आधार पर कहा कि प्रभु मेरे दुःख व दुर्व्यस्नों को दूर कर दे। उपासना करने से मनुष्य के मन व आत्मा के दुर्गुण दूर होते हैं। उन्होंने श्रोताओं को अपने दुर्गुणों को देखने का सुझाव दिया। हम अच्छे या बुरे हैं यह हम सबसे अधिक जानते हैं। चालाकी उपासना मे ंनहीं चला करती। चालाकी ईश्वर की प्राप्ति में बाधक है। परमात्मा पाप-पुण्य कर्मों का साक्षी है। परमात्मा हम सभी के सभी पूर्वजन्मों का भी साक्षी है। ईश्वर का भक्त अपने जीवन मे ंसद्गुणों की चाहना करता है। ऐसा व्यक्ति ही ईश्वर की उपासना का पात्र होता है। कार्यक्रम का संचालन कर रहे आर्यसमाज के पुरोहित श्री रणजीत शास्त्री जी ने विद्वान् वक्ता का धन्यवाद किया। उन्होंने अन्य श्री वीरेन्द्र शास्त्री जी को व्याख्यान के लिये आमंत्रित किया।

श्री वीरेन्द्र शास्त्री जी ने व्याख्यान आरम्भ करते हुए एक कहानी सुनाई जिसमें एक व्यक्ति देशाटन करता हुआ एक राजा के दरबार में आता है। राजा के पूछने पर वह उससे एक रुपये की मांग करता है। राजा उसे जेल में डालने का आदेश देता है। वह राजा से अपना अपराध पूछता है। राजा कहता है कि तुमने मेरी हैसियत देख कर नहीं मांगा। वह क्षमा मांगता है और कहता है कि क्या मैं पुनः कुछ मांग सकता हूं? राजा कहता है कि मैंने तुम्हें क्षमा किया, जो चाहो मांगों। वह राजा से एक लाख रुपया मांगता है। इस बार भी राजा उसे जेल भेजने का दण्ड देता है। कारण पूछने पर राजा कहता है कि तुम्हें अपनी हैसियत व योग्यता देख कर मांगना चाहिये था इसलिये तुम जेल जाने के ही अधिकारी हो। श्री वीरेन्द्र शास्त्री ने कहा कि याद रखो, हमें अपनी योग्यता बढ़ानी पड़ेगी। उन्होंने पूछा कि क्या हम इस योग्य हैं कि परमात्मा से कुछ मांगे, क्या मांगे व कितना मांगे। उन्होंने कहा कि आज लोग अपनी योग्यता नहीं देखते। 15 मिनट संन्ध्या करते हैं और ईश्वर से कहते हैं कि हमें आज ही धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति हो जाये। उन्होंने यदि हमें परमात्मा से मांगी वस्तुयें मिल नहीं रही है ंतो हमारी योग्यता में कमी ही सिद्ध होती है।

आचार्य वीरेन्द्र शास्त्री ने पूछा कि सन्ध्या करके हम कहां पहुंचते हैं? हम समर्पण मन्त्र का पाठ कर जाते हैं। आचार्य जी ने समर्पण मंत्र के अर्थ बतायें। उन्होंने पूछा कि क्या हमने अपने अन्दर योग्यता पैदा की। हम सन्ध्या बहुत आराम से करें तो उसमें 15 मिनट लगते हैं। हम क्या मांग रहे हैं? सन्ध्या में हम ईश्वर से धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष मांग रहे हैं। क्या पन्द्रह मिनट की सन्ध्या में हम ईश्वर से धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष मांगने के लायक हैं। आचार्य जी ने एक तोते की कहानी सुनाई। तोता वर्षों से किसी परिवार में रहता था। वह बुद्धिमान था। कहानी सुनाकर आचार्य जी ने कहा कि तोते ने मरने का नाटक किया। परिवार जनों ने उसे बाहर निकाला तो वह मौका देखकर उड़ गया और मुक्त हो गया। श्री वीरेन्द्र शास्त्री जी ने कहा कि सुख इन्द्रियों का विषय है। धनोपार्जन में मनुष्य अपना जीवन लगा देते हैं। मन का उद्देश्य शान्ति की प्राप्ति है। आत्मा आनन्द चाहती है। मनुष्य को तीनों पदार्थ धन, मन की शान्ति व आत्मा का आनन्द मिलें तो उस व्यक्ति की साधना ठीक है। केवल इन्द्रिय सुख मिलें, बाद के अन्य दो न मिलें तो उसकी साधना व पुरुषार्थ में कमी है। आचार्य जी ने श्रोताओं को कहा कि आप दाता, दूसरों के हितैषी, याज्ञिक तथा परोपकारी बनों। आपको ऐसा करके रत्नों की प्राप्ति होगी। मनुष्य आपत्तियों में परमात्मा को याद करता है और सुख में परमात्मा को भूल जाता है। सुख व दुःख अवस्थाओं में समान रहें। ऐसा करना कठिन अवश्य है।

ईश्वर का भक्त सम्पत्ति व विपत्ति में समान रहता है। आचार्य जी ने ऋषि दयानन्द का नवम्बर 1869 में काशी शास्त्रार्थ का उल्लेख किया और कहा कि महर्षि को विजयी होने पर भी पराजित घोषित कर दिया गया परन्तु महर्षि के मन पर इस घटना का किंचित भी प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ा। उनके चेहरे पर मुस्कराहट बनी रही। आचार्य जी ने एक राजकुमार व महात्मा की कथा भी सुनाई जिसमें राजकुमार एक घंटे की कथा सुन कर साधना करता है और वर्षों बाद ईश्वर को प्राप्त कर लेता है जबकि उनके साथ प्रवचन सुनने वाले बाद भी उसी महात्मा से वही कथा सुनते देखे जाते हैं। राजकुमार उन लोगों को पकड़ पकड़ हिलाता है और महात्मा जी व लोगों से पूछता है कि तुममें और पत्थर की मूर्ति में क्या अन्तर है?

आचार्य वीरेन्द्र शास्त्री जी ने एक कथा और सुनाई और कहा कि एक राजा चित्र और ऋषि अलूष में यज्ञ के रहस्य पर वार्तालाप हुआ। ऋषि को यह पता नहीं था यज्ञ किसमें प्रतिष्ठित है। उसने राजा से पूछा तो उसने बताया कि यज्ञ वेद में प्रतिष्ठित है। ऋषि ने राजा से पूछा कि वेद किसमें प्रतिष्ठित है? राजा ने कहा कि वेद वाणी में प्रतिष्ठित है। फिर प्रश्न हुआ कि वाणी किसमें प्रतिष्ठित है तो उत्तर मिला कि वाणी मन में प्रतिष्ठित है। मन को अन्न मे प्रतिष्ठित बताया गया। अन्न जल में और जल तेज में प्रतिष्ठित है। तेज आकाश में प्रतिष्ठि है और आकाश ईश्वर में प्रतिष्ठित है। ब्रह्म स्वयंभू है। ब्रह्म वा ईश्वर वेदज्ञ ब्राह्मण में प्रतिष्ठित है। ब्राह्मण व्रत में तथा व्रत यज्ञ में प्रतिष्ठित होता है। यज्ञ को आचार्य जी ने भुवन की नाभि बताया। यज्ञ की महत्ता के कारण हमें यज्ञ से जुड़ना पड़ेगा। यज्ञ हममें योग्यता व हैसियत देता है। यज्ञ से प्राप्त योग्यता से हम परमात्मा से कुछ मांगने के अधिकारी हो जाते हैं। यज्ञ को अपने जीवन का अंग बनायें। यह कहकर विद्वान् वक्ता ने अपने वक्तव्य को विराम दिया। कार्यक्रम के संचालक पुरोहित जी श्री रणजीत शास्त्री जी ने विद्वान वक्ता की प्रशंसा की। उन्होंने कहा कि हमारा जागने, न सोने और न खाने पर नियंत्रण हैं। हमें अपने जीवन को वैदिक नियमों में ढालना होगा। ऐसा करके ही हमारा जीवन सफल हो सकता है। शान्ति-पाठ के साथ सभा विसर्जित हुई। उसके बात स्कूल के सभी बच्चों तथा सत्संगियों ने मिलकर भोजन किया। पूरी, चावल, छोले, सब्जी तथा मिष्ठान्न से युक्त भोजन की सभी ने प्रशंसा की। इति ओ३म् शम्।

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