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राष्ट्रीय संगोष्ठी में इतिहासकारों ने डॉ. ओझा के योगदान पर की चर्चा

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17 Mar 24
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राष्ट्रीय संगोष्ठी में इतिहासकारों ने डॉ. ओझा के योगदान पर की चर्चा

उदयपुर,  मेवाड़ के प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. गौरीशंकर हीराचंद ओझा का योगदान भारतीय लिपि, धर्म, संस्कृति और पुरातत्त्व में अपूर्व और अद्वितीय रहा है। स्थानीय स्रोतों के वास्तविक उपयोग की जो विधि उन्होंने दी, वह देश - विदेश के इतिहासकारों के लिए बहुत उपयोग की हैं।
यह विचार डॉ. ओझा का भारतीय इतिहास लेखन में योगदान विषयक राष्ट्रीय संगोष्ठी में इतिहासकारों ने प्रकट किए। सिरोही के एसपी कॉलेज में भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद के सहयोग से आयोजित इस संगोष्ठी में  डॉ. श्रीकृष्ण “जुगनू“ ने ओझा के ग्रंथों को मूल्यवान बताते हुए आज भी अधिक बिकने वाला कहा। उनका मत था कि 1894 में लिपि की भारतीय धारणा को जैसा उन्होंने लिखा, 1919 में हड़प्पा की खोज के बाद से उसकी निरंतर पुष्टि होती चली गई। उन्होंने शिलालेख और सिक्कों के अध्ययन की जिस परंपरा का विकास किया, वह आज तक प्रासंगिक है। जब जब भी भारतीय इतिहास पर कार्य होगा, ओझा बराबर याद किए जाते रहेंगे। उन्होंने राजस्थान को सच्चे अर्थों में सम्मान दिलाया।
इतिहासकार डॉ. चंद्रशेखर शर्मा ने डॉ. ओझा के लेखन के तीन सूत्र बताए : सत्य, तथ्य और प्रिय कथ्य। आज भी इतिहासकारों को इनको ध्यान में रखना चाहिए और उनकी पुस्तकों तथा शोधों को ध्यान में रखना चाहिए। ओझा ने अपने इतिहास लेखन में हिंद और हिंदी को रेखांकित कर भारतीय राष्ट्रीय जागरण का शंखनाद किया। राजस्थान विद्यापीठ के डॉ. जीवन सिंह खरकवाल ने राज्य में 120 स्थानों पर आहड़ संस्कृति के मिलने की जानकारी दी और कहा कि अरावली की पहाड़ियों में मानव और उसके संसाधनों के प्रारंभिक प्रमाण मिलते हैं। कानोड़ के इतिहासकार डॉ. जे. के. ओझा और डॉ. प्रियदर्शी ओझा ने  इतिहास लेखन की विशेषताओं पर प्रकाश डाला। डॉ. मनीष श्रीमाली ने ओझा के इतिहास दर्शन को विवेचित किया। प्रारंभ में सुखाड़िया विश्व विद्यालय की पूर्व विभागाध्यक्ष प्रो. मीना गौड़ ने गौरीशंकर हीराचंद ओझा की पुस्तकों को अतीव महत्वपूर्ण बताया। आरंभ में कॉलेज प्राचार्य वी के त्रिवेदी और प्रशासक श्री आशुतोष पटनी ने सभी इतिहासकारों, शोधार्थियों का स्वागत किया और आयोजन के उद्देश्यों पर प्रकाश डाला।


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