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मोर जैसी ध्वनि से कहलाया मोरचंग, वाद्य होगा बजाने वाले बिरले मिलेंगे

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20 Sep 19
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मोर जैसी ध्वनि से कहलाया मोरचंग, वाद्य होगा बजाने वाले बिरले मिलेंगे

उदयपुर । भारत के लोक वाद्यों की कथा भी अनूठी और विलक्षण है। कुछ को कलाकार खुद बनाता है और खुद बनाता है कुछ अपने घर के आस-पास की चीजों को सहेज कर साज का रूप देते हैं। पश्चिम क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र की ओर से शिल्पग्राम में आयोजित ’’लोक और आदिवासी वाद्य यंत्र कार्यशाला‘‘ में आये वादकों के मुंह से ऐसे ही उद्गार निकलते हैं।

शिल्पग्राम के दर्पण सभागार में चल रही एक सप्ताह की कार्यशाला का मुख्य उद्देश्य राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, गोवा केन्द्र शासित प्रदेश सिलवासा में प्रचलित लोक व जनजातीय वाद्य यंत्रों का प्रलेखन करना जिसमें दुर्लभ और विलुप्त वाद्यों को भी शामिल किया गया है। विलुप्त वाद्यों में राजस्थान के थार अंचल के जैसलमेर का वाद्य है ’’नड‘‘। अस्सी के दशक में करण भील जिस वाद्य को बजाता था आज उसके बजाने वाले नहीं के बराबर हैं। नड बांसुरीनुमा वाद्य है जिसमें कलाकार अपने कंठ से ध्वनि निकालने के साथ-साथ उसे नड की आवाज से मिलाते हुए बजाता है जो साज और मनुष्य के सुरों का अनूठा सम्मिलन है।

मरू अंचल में ही लोहे का एक छोटा सा वाद्य है मोरचंग जिसके होठों से लगते ही एक मधुर और आनन्दित करने वाला स्वर निकलता है। मोर जैसी ध्वनि होने के कारण इसे मोरचंग कहा गया। रेगिस्तान में चरवाहों द्वारा पशुओं को नियंत्रित करने तथा खुद के मानेरंजन के लिये इस साज का प्रयोग होता है।

अरब सागर के तट पर बसे गोवा का मिट्टी से बना ’घुम्मट‘‘ बनावट और धमक से अपनी अलग पहचान देता है। मृदा पात्र के ऊपरी मुख पर गोह का चमडा लगाया जाता है। एक जमाने में युद्ध काल में किलों पर चढाई करने के लिये गोह पर रस्सी बांध कर उसे किले की दीवार पर फेंका जाता जो वहां मजबूती से चिपक जाती थी कोंकण प्रदेश वनाच्छादित होने के साथ-साथ अपनी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि भी रखता है। उसी गोह के शरीर का अंश आज एक साज के रूप में आज प्रचलन में है।

गुजरात और महाराष्ट्र के सीमावर्ती अंचल में रहने वाले आदिवासियों द्वारा बोहाडा में प्रयोग में लाया जाने वाला पावरी की बनावट अपने आप में आकर्षक है। लौकी के तुंबे और मारपंख, बांस इत्यादि से बनाई जाने वाली पावरी तकरीबन ४ से ५ फीट की होती है।

 


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