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“आर्यसमाज के विप्र योद्धा शास्त्रार्थ महारथी अमर स्वामी सरस्वती”

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10 Apr 19
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“आर्यसमाज के विप्र योद्धा शास्त्रार्थ महारथी अमर स्वामी सरस्वती”

मध्यकाल के अन्धकारमय युग के पश्चात् महर्षि दयानन्द जी ने पौराणिक, मुस्लिम ईसाई एवं अन्य मतावलम्बियों से भिन्न-भिन्न धार्मिक व सामाजिक विषयो पर शास्त्रार्थ करके सत्य-असत्य का निर्णय करने में सहायक शास्त्रार्थ परम्परा को पुनर्जीवित किया था। महर्षि दयानन्द जी के अनुपम शिष्य स्वामी अमर स्वामी सरस्वती जी ने अपनी अद्भुद प्रतिभा से अनेक मतों का गहन ज्ञान प्राप्त कर वैदिक धर्म के प्रचार के साथ वेदेतर मतानुयायियों से सहस्राधिक शास्त्रार्थ कर विजयी बने। उन्होंने जीवन भर शास्त्रार्थ परम्परा का पोषण किया। उन्होंने अपने ज्ञान, पुरुषार्थ एवं कार्यों से ऋषि दयानन्द के यश को बढ़ाया है।

 

                संन्यास ग्रहण से पूर्व स्वामी जी ठाकुर अमर सिंह के नाम से जाने जाते थे। जिला बुलन्दशहर के अरणियां ग्राम में वत्स गोत्रिय ठाकुर टीकम सिंह चौहान के यहां बैसाख कृष्ण 2, 1951 विक्रमी (अप्रैल, 1894) को आपका जन्म हुआ था। पिता टीकम सिंह ने अनूप शहर में गंगा स्नान के अवसर पर संसार के गुरु महर्षि दयानन्द जी को व्याख्यान देते हुए देखा था।

 

                ठाकुर अमर सिंह जी की शिक्षा ग्राम अरणियां से आरम्भ हुई। राधाकृष्ण संस्कृत पाठशाला खुर्जा में पं0 चण्डी प्रसाद एवं पं0 परमानन्द जी के सान्निध्य में भी आप रहे। आपके चचेरे भाई कु0 सुखलाल आर्यमुसाफिर आपको पं0 भोज दत्त आर्य मुसाफिर विद्यालय, आगरा लाये जहां आपने सन् 1914 से 1918 तक अध्ययन किया। यहां ऋषिभक्त विद्वान पं0 बिहारी लाल शास्त्री से आपने संस्कृत एवं मौलवी करीमुद्दीन तथा मौलवी फाजिल से उर्दू, फारसी के साथ कुरआन का अध्ययन किया। भागवत आदि पुराणों का अध्ययन करते हुए इसमें अनेक बुद्धि विरुद्ध वर्णनों एवं अश्लीलता देखकर सभी पुराणों से आपको घृणा हो गई। अतः आप आर्यसमाजी बन गए।

 

                धौलपुर के महाराजा उदयभान सिंह एवं उनके प्रधान मंत्री काजी अजीमुद्दीन द्वारा आर्यसमाज मन्दिर गिरवाये जाने के विरुद्ध आर्यसमाज द्वारा सत्याग्रह किया गया था। इस सत्याग्रह में पं0 बिहारी लाल शास्त्री, महापण्डित राहुल सांस्कृत्यायन (तब केदारनाथ पाण्डेय), मौलवी महेश प्रसाद के साथ ठाकुर अमर सिंह जी भी शामिल हुए थे। यह सत्याग्रह किन्हीं कारणों से असफल रहा।

 

                आपके गुरु पं0 बिहारी लाल शास्त्री अपने समय के महान विद्वान रहे हैं। अमर सिंह जी के गुणों का उल्लेख कर वह लिखते हैं-‘‘अमर स्वामी जी ने संस्कृत, अरबी, उर्दू तथा हिन्दी गुरुमुख से पढ़ी है। गुरु से प्राप्त ज्ञान को उन्होंने स्वाध्याय द्वारा शतगुणा कर लिया था ..... उनका सबसे बड़ा गुण था सबका हितकारक, सर्वप्रिय व जीवनमुक्त सा रहना।” अन्यत्र शास्त्री जी लिखते हैं ‘‘गुरु भक्ति, बड़ों का सम्मान, परिश्रम ..... ये सब गुण उनमें जन्मजात थे। विद्यालय के दिनों में शास्त्री जी एवं मौलवी करीमुद्दीन उन्हें पढ़ाते थे। रात्रि में डॉ0 लक्ष्मीदत्त जी भाषण शैली, शास्त्रार्थ के ढंग और इस्लाम सम्बन्धी विशेष ज्ञान की शिक्षा देते थे। तीन वर्षों में अमर सिंह जी शास्त्रार्थ कला में दक्ष हो गए और पंजाब प्रादेशिक सभा में उपदेशक हो गए। उपदेशक रहते हुए अमर सिंह जी ने अपने बुद्धि बल और मनोयोग से इतना स्वाध्याय किया कि इस समय (सन् 1978 में) उन्हें सर्व शास्त्रों, मतों के ग्रन्थों का मर्मज्ञ विद्वान कहा जा सकता है। शास्त्रार्थ कानन के तो वह स्वतन्त्र केसरी ही हैं।” शास्त्री जी का अमर सिंह जी पर निम्न पद्य भी उनके व्यक्तित्व को समझने में सहायक हैः

 

                एक ही शौक इनका, एक ही दिल में लगन।

                धर्म प्रेमी सदाचारी देश के बन जाये जन।।

 

                आर्य मुसाफिर उपदेशक विद्यालय, आगरा से सन् 1918 में स्नातक बनने के पश्चात् डी.ए.वी. आन्दोलन के प्रमुख सूत्रधार महात्मा हंसराज जी की प्रेरणा पर आपको आर्य प्रादेशिक प्रतिनिधि सभा द्वारा पंजाब, सिन्ध एवं बिलोचिस्तान आदि में वैदिक धर्म के प्रचार हेतु उपदेशक नियुक्त किया गया। उपदेशक के रूप में कार्य करते हुए सन् 1928 में लाहौर में आपने ‘‘दर्शनानन्द उपदेशक मंडल” एवं ‘‘दर्शनानन्द उपदेशक विद्यालय” की स्थापना की। सन् 1927 में आप होशियारपुर के पुरोहित विद्यालय के आचार्य बने। सन् 1944 में मोहन आश्रम, हरिद्वार में आरम्भ किए गए आर्योपदेशक महाविद्यालय का आपको आचार्य बनाया गया। आर्यसमाज हापुड़ में चलाये गये उपदेशक विद्यालय में भी आप सन् 1963 में आचार्य रहे।

 

                जब आप हरिद्वार में आचार्य थे तो सायंकाल केसरिया वेषभूषा धारण किए अपने शिष्य ब्रह्मचारियों को साथ लेकर ‘‘हर की पौड़ी” जिसे महर्षि दयानन्द जी ने हाड़ की पौड़ी कहा है, वहां जाकर बैठते थे। हिन्दू मत के अन्धविश्वासों का उल्लेख कर आपने एक बार देहरादून में अपने प्रवचन में बताया था कि वृद्ध मातायें व बहिनें वहां उनके शिष्यों के निकट खीर-पूड़ी लेकर आती थीं और उनके केसरिया वस्त्रों से प्रभावित होकर उन्हें पकवान खाने एवं दक्षिणा लेने की प्रार्थना करती थीं परन्तु उनका आचार्य होते हुए भी श्वेत वेशभूषा होने के कारण कोई महिला उनकी ओर देखती तक न थीं।

 

                वैदिक धर्म ईश्वर से निःसृत सार्वभौमिक धर्म है। अज्ञानता के कारण ही संसार में नाना मत-मतान्तर एवं अंधविश्वास प्रचलित हुए हैं। मत-मतान्तरों के आग्रही अनुयायियों को सत्य से परिचित कराना एवं सत्य को मनवाना धर्म प्रचारक का कर्तव्य होता है। कुछ ऐसा ही कर्तव्य एक अध्यापक अपने विद्यार्थी के प्रति एवं चिकित्सक अथवा परिचारक रोगी के पति करते हैं। अमर सिंह जी ने भी सत्य की स्थापना के उद्देश्य से पौराणिक, जैनी, ईसाई, मुस्लिम, कादियानी अहमदियों आदि विभिन्न मतों के विद्वानों से अनेक विषयों पर शास्त्रार्थ किए। इन शास्त्रार्थों में प्रतिपक्षी विद्वानों में प्रमुख कविरत्न पं0 अखिलानन्द, पं0 माधवाचार्य, पं0 कालूराम शास्त्री, पं0 भीमसेन, पं. कृष्ण शास्त्री, पं0 राजेन्द्र कुमार शास्त्री, स्वामी कर्मानन्द (जैनी) पादरी अब्दुल हक मन्तकी, पादरी एस.एम. पाल, पादरी दला राम, पादरी जगन्नाथ, मौलाना सनाउल्ला अमृतसरी, मौलाना लाल हुसैन अख्तर, मौलवी फजल मुहम्मद ‘शर्मा’ मुस्लिम हाफिज रोशन अली, मौलवी कासमी अली, मौलवी अब्दुल रहमान कादियानी अहमदी हैं। शास्त्रार्थ के प्रभाव से मौलाना मुहम्मद अली ने स्वेच्छा से वैदिक धर्म स्वीकार किया था और श्री रोशन लाल नाम ग्रहण किया था।

 

                सन् 1935 में होशियारपुर में पौराणिक मतानुयायी विधवा विवाह के प्रश्न पर विभाजित हो गए। दोनों पक्षों में शास्त्रार्थ की स्थिति उत्पन्न हो गई। विधवा विवाह के पोषक पौराणिक बन्धु अपनी ओर से अमर सिंह जी को शास्त्रार्थ में लाये। उन्होंने विधवा विवाह के पक्ष में वेदमन्त्र ‘‘या पूर्वम् पतिम वित्तवा अयान्यम विन्दते परम।” को प्रस्तुत किया। प्रतिपक्षी पौराणिक विद्वान पं0 अखिलानन्द शास्त्री एवं पं0 कालूराम शास्त्री के इस प्रमाण से सहमत न होने पर अमर सिंह जी ने इस मंत्र का पं0 अखिलानन्द शास्त्री द्वारा ‘‘वैधव्य विध्वंसन चम्पू” में किया हुआ अर्थ प्रस्तुत कर उन्हें निरुत्तर कर दिया। ठाकुर अमर सिंह जी ने अनेक प्रमाण और दिए तथा सभी आपत्तियों का निराकरण किया। शास्त्रार्थ में विधवाओं का पुनर्विवाह शास्त्र सम्मत मानने वालों का प्रश्न विजयी रहा।  इस विजय पर हर्षोल्लास व्यक्त करने के लिए अमर सिंह जी को रथ में बैठाकर हजारों की संख्या में पौराणिकों ने होशियारपुर नगर में एक जलूस निकाला। वर्तमान समय में पौराणिकों में विधवाओं का पुनर्विवाह अपवादों को छोड़कर पूर्णतया प्रचलित है जिसका श्रेय स्वामी दयानन्द एवं अमर स्वामी जी आदि विद्वानों को है।                                   

 

                राजधनवार (बिहार) में दस सहस्र श्रोताओं की उपस्थिति में एकबार अमर सिंह जी का पौराणिक विद्वान पं0 अखिलानन्द शर्मा एवं पं.0 माधवाचार्य से शास्त्रार्थ हुआ। शास्त्रार्थ में नियोग, सन्तानोत्पत्ति प्रकरण एवं शिशु पालन आदि विषयक महर्षि दयानन्द की मान्यताओं पर पौराणिक विद्वानों ने अनुचित आक्षेप किए। अमर सिंह जी ने वेद, महाभारत एवं पुराणों से नियोग को उचित एवं वेदसममत सिद्ध किया। गरुण पुराण के श्लोक ‘‘ऐ पुत्री गुर्वनुज्ञात देवरः पुत्र काम्यया, स पिण्डो वा स गोत्रो व घृताभ्यकतो।” को अमर सिंह जी से सुनकर पौराणिक विद्वानों के होश उड़ गये। पौराणिकों के सभी आक्षेपों का सप्रमाण निराकरण कर अमर सिंह जी ने पुराणों की अवैदिकता पर आक्षेप किए। ब्रह्मवैवर्त पुराण के आधार पर अमर सिंह जी ने कृष्ण रुकमणी के विवाह में अनेक पशुओं को मारकर भोजन बनाने एवं रुकमणी के पिता द्वारा एक लाख गायों के मारने के आदेश का उल्लेख किया। उन्होंने कहा कि गोहत्या के विरुद्ध अधिनियम बनाने में ऐसे स्थल ही बाधक हैं। शास्त्रार्थ में पौराणिक मत की पराजय के फल स्वरूप हजारों की संख्या में लोगों ने वैदिक धर्म ग्रहण किया। सनातन धर्म सभा भंग हो गई। जिस व्यक्ति ने अपनी भूमि बेचकर पौराणिक विद्वानों को शास्त्रार्थ के लिए बुलाया था वह भी हाथों में ‘‘ओ३म्” ध्वज लेकर महर्षि दयानन्द एवं आर्यसमाज की जय-जयकार कर रहा था।

 

                एक शास्त्रार्थ में पं0 अखिलानन्द ने श्रोताओं से कहा, ‘‘मैं भी पहले आर्यसमाजी था और अब आर्यसमाज की छीछालेदर कर रहा हूं।” आगे उसने कहा-‘‘इस घर को आग लग गई, घर के चिराग सें” इसके उत्तर में अमर सिंह जी ने कहा, ‘‘ठीक है कि यह मिट्टी के तेल का चिराग हमारे घर में जलता था, हमारे घर में दुर्गन्ध फैलाता था और हमारे घर की दीवारों को भी काली करता था। हमारे घर को भी इस चिराग (अखिलानन्द) ने आग लगानी आरम्भ कर दी थी। हमने हानि पहुंचने से पूर्व ही उस आग को बुझा लिया और इस मिट्टी के तेल वाले चिराग को उठाकर बाहर फेंक दिया। अब हमारे यहां बिजली के बड़े-बड़े बल्व (स्वामी अभेदानन्द जी, आचार्य रामानन्द, पं. गंगाधर आदि की ओर संकेत कर जो मंचस्थ थे) जगमग जगमग कर रहे हैं और यह मिट्टी का चिराग उस घर में टिमटिमा रहा है जहां घटाटोप अंधेरा था।”

 

                अमर सिह जी कण्ठ संगीत एवं वाद्य संगीत में भी प्रवीण थे। आर्यसमाज बछोमली सम्प्रति पाकिस्तान में है। इसके एक शास्त्रार्थ में पौराणिक पं0 माधवाचार्य ने आप पर व्यंग कर कहा--‘‘लो आ गये मुझसे शास्त्रार्थ करने। यह लाहौर में सारंगी बजाते थे, अब शास्त्रार्थ करेंगे।” इसके उत्तर में अमर सिंह जी ने शालीनतापूर्ण शब्दों में पं0 माधवाचार्य को कहा ‘‘सारंगी बजाने से हमारा सिद्धान्त कम नहीं हो जाता और न ही मेरी योग्यता कम जो जायेगी प्रत्युत मैं भी पौराणिक भगवानों की पंक्ति में सम्मलित हो गया।” आगे ठाकुर अमर सिंह जी बोले - ‘‘आपके शिव जी डमरु बजाया करते थे, श्री कृष्ण बांसुरी बजाया करते थे। वाद्य यन्त्र बजाने वाले थे तुम्हारे देव। आपके नारद जी वीणा बजाया करते थे।” इस उत्तर से लज्जित हुए माधवाचार्य को कुछ सूझा नहीं कि वह क्या कहें।

 

                स्वामी जी यथायोग्य उत्तर देने में भी सिद्धहस्त थे। दानापुर (बिहार) में एक युवक ने सत्संग के पश्चात शंका की कि औरत व जहर में क्या अन्तर है? स्वामी जी ने उत्तर में कहा--‘‘औरत वह है जिसने तुम्हें जन्म दिया है और विष वह है जो तुम्हें मार सकता है। एक का अनुभव तुम्हें हो चुका है, दूसरे की परीक्षा करके देख लो। अन्तर का पता तुम्हें ही नहीं, तुम्हारें सगे-सम्बन्धियों को भी चल जायेगा।”

 

                अमर सिंह जी की दो पुत्रियां व तीन पुत्र थे। उनके विवाह आदि के दायित्वों से मुक्त होकर 73 वर्ष की अवस्था में सन् 1967 में अमर स्वामी जी ने आर्यसमाज स्थापना दिवस चैत्र शुक्ल पंचमी के दिन आर्य वानप्रस्थ सन्यास आश्रम, ज्वालापुर में स्वामी विवेकानन्द तीर्थ से संन्यास की दीक्षा ली। आर्यजगत के विख्यात संन्यासी एवं उर्दू मिलाप पत्र के संस्थापक सम्पादक महात्मा आनन्द स्वामी ने आपका नया नाम अमर स्वामी परिव्राजक प्रसिद्ध किया। संन्यास लेने के पश्चात आपने अपने परिवार से कोई सम्पर्क नहीं रखा यद्यपि इस कारण आपको अनेक शारीरिक एवं मानसिक दुःख सहन करने पड़ें।

 

                अमर स्वामी जी धन बटोरने और सम्मान पाने के लिए आर्यसमाज के प्रचारक, शास्त्रार्थ महारथी या संन्यासी नहीं बने थे। उनका सब धन उपकार में लगता था। आपने पचासों उपदेशक, भजनोपदेशक, अध्यापक एवं आर्य पुरोहित बनाये जिन्होंने सेवा एवं धर्म प्रचार के साथ ही अपने परिवार का पालन भी भली-भांति किया। स्वामी जी हैदराबाद सत्याग्रह सन् 1939 तथा गोरक्षा आन्दोलन में जेल भी गए। स्वामी जी के निकट सहयोगियों के अनुसार वह कांग्रेस आन्दोलन में इसलिए सम्मिलित नहीं हुए कि उन दिनों वह पंजाब में थे और वहां का वातावरण खिलाफत आन्दोलन के कारण साम्प्रदायिकता से दूषित बन गया था।

 

                15 सितम्बर, 1925 ई0 को अमर सिंह जी, रिसर्च स्कालर पं0 भगवददत्त तथा वैद्य राम गोपाल जी, लाहौर के साथ डी0ए0वी0 कालेज के लालचन्द पुस्तकालय के चबूतरे पर बैठे ग्रन्थों में कुछ प्रमाण खोज रहे थे। इसी बीच कालेज के सामने लाला लाजपत राय के हत्यारे पुलिस उपअधीक्षक साण्डर्स की भगत सिंह एवं राजगुरु ने हत्या कर दी। यह सभी देशभक्त इन तीनों शोध विद्वानों के सामने से होकर छात्रावास की ओर भाग गये। यद्यपि हमारे इन विद्वानों ने इन वीर देशभक्तों को देख लिया था परन्तु कुछ देर बाद पुलिस के पहुंचने और पूछताछ करने पर इन विद्वानों ने यह कह कर पुलिस को भ्रमित किया कि हल्ला-गुल्ला तो उन्होंने सुना परन्तु कार्य में तल्लीन होने के कारण वह पहली बार पुलिस के ही दर्शन कर रहे हैं। यह झूठ इतनी सफाई से बोला गया कि पुलिस ने उनका विश्वास कर लिया। क्रान्तिकारियों की प्राण रक्षा के लिए बोला गया यह झूठ स्तुत्य है।

 

                ठाकुर अमर सिंह जी अपने साथियों के प्रति सच्ची सहानुभूति रखते थे। एक बार एक नया भजनोपदेशक पहली बार स्वामी जी के साथ प्रचारार्थ एक आर्यसमाज में गया। समाज के मंत्री जी ने रात्रि के समय अमर स्वामी जी को दूध दिया परन्तु भजनोपदेशक की नहीं दिया। इस पक्षपात के लिए उन्होंने मंत्री को फटकार सुनाई। इसका यह प्रभाव हुआ कि वह भजनोपदेशक स्वामी जी का भक्त बन गया। यह घटना उसने न केवल प्रा0 राजेन्द्र जिज्ञासु जी को ही बताई अपितु अन्यत्र भी वह इस घटना को प्रस्तुत कर स्वामी जी की प्रशंसा करता था।

 

                आर्यसमाज की नींव प्रजातन्त्र पर है। देहरादून के कीर्तिशेष विद्वान प्रा0 अनूप सिंह जी कहते थे कि प्रजातन्त्र में लोगों के सिर गिने जाते हैं परन्तु उन्हें तोला नहीं जाता। अमृतसर के एक आर्यसमाज में एक नेता ने चुनाव में विजयी होने के लिए बड़ी संख्या में नास्तिकों को आर्यसमाज का सदस्य बनाया जिन्होंने सन्ध्या हवन का उपहास किया। इस नेता ने अमर स्वामी जी की उपस्थिति में अवैदिक मतों को उखाड़ने तथा वैदिक अध्यात्मवाद के प्रचार के पक्ष में भाषण दिया। इसका उल्लेख कर स्वामी जी ने अपने सहयोगियों से कहा कि नास्तिकों को आर्यसमाज के मंच पर लाने वाले अब वैदिक अध्यात्मवाद की बात किस मुंह से करते हैं? आर्यसमाज में उन दिनों आरम्भ हुई पद प्रतिष्ठा प्राप्ति के इस रोग पर स्वामी जी की यह अन्तःपीड़ा आज बढ़ती ही जा रही है।

 

                श्री दौलत राम शास्त्री, अमृतसर के अनुसार अमर स्वामी जी ने कुछ निर्धन अनाथों को सहायता देकर अच्छे स्थानों पर लगवाया। स्वामी जी का यह कार्य निष्काम भाव से उन अनाथों की रक्षा व परोपकार का उदाहरण है। स्वामी जी ने नए उपदेशकों को सदैव प्रोत्साहित किया। देश भर की आर्यसमाजों में आपके शिष्य फैले हुए है।

 

                एक बार प्रादेशिक प्रतिनिधि सभा, पंजाब का एक उपदेशक पौराणिकों में जा मिला। संगठन के हित में महात्मा हंसराज जी ने उसे अधिक वेतन का प्रलोभन देकर पुनः सभा में मिला लिया। अमर स्वामी जी इस उपदेशक के वरिष्ठ थे। फिर भी उन्होंने वेतन बढ़ाने की मांग नहीं की। इस पर महात्मा हंसराज जी ने आर्य गजट के सम्पादक चौधरी वेदव्रत से कहा --‘आर्यसमाज व जाति के हित में ठाकुर अमर सिंह के इस त्याग को देख मेरा सिर उनके सामने झुक जाता है।’ स्वयं महात्मा हंसराज जी ने प्रादेशिक सभा अथवा कालेज से बिना वेतन एवं कोई सुविधा लिए निःस्वार्थ भाव से 25 वर्षों से अधिक अवधि तक सेवा की थी। 

 

                सन् 1991 में प्रा0 राजेन्द्र जिज्ञासु जी द्वारा आर्यसमाज, हिसार में स्वामी जी से मृत्यु-इच्छा पूछने पर उन्होंने कहा था, ‘‘पहली व दूसरी पीढ़ी के आर्यों ने अपना घर-बार फूंक कर सभा, संस्थायें व समाज बनाये, परन्तु वर्तमान में ऐसे लोग समाज में घुस आए हैं जो सभा, संस्थाओं व समाजों को फूंक कर अपना घरघाट बना रहे हैं। ऐसे लोगों की आर्यसमाज से रक्षा करो।” इस अवसर पर स्वामी जी ने यह भी कहा था, ‘‘पहले समाज मन्दिर तो कच्चे होते थे परन्तु समाजी बड़े पक्के होते थे। अब समाज मन्दिर पक्के बन गये हैं परन्तु आर्यसमाजी कच्चे हो गये हैं।” आर्यजगत के एक अन्य प्रमुख विद्वान पं0 रामचन्द्र देहलवी जी ने भी अपनी मृत्यु-इच्छा कुछ इसी प्रकार की थी। उन्होंने कहा था कि सफेद, लाल व काली टोपी धारी राजनैतिक व्यक्तियों से समाज को बचाओ।

 

                स्वामीजी अपने पूर्वजन्म में संस्कृत के विद्वान थे और पानी में डूबकर मरे थे। यह घटना स्वामीजी को इस जन्म में भी याद थी। हैदराबाद से मुक्त होकर जब स्वामी जी अहमदनगर आये तो पूर्वजन्म की संस्कृत पाठशाला एवं सरोसर जहां वह डूबे थे, संयोगवश देखने को मिल गये, जिसने पूर्वजन्म की उनकी याद को ताजा कर दिया।

 

                आर्यसमाज बड़ा बाजार, कोलकत्ता ने आपका सार्वजनिक अभिनन्दन किया था। उन्हें सम्मानार्थ जो धनराषि दी गयी थी वह उन्होंने समाज के अधिकारियों को आर्य साहित्य के सृजन एवं प्रकाशन हेतु भेंट कर दी थी। स्वामी अमर स्वामी जी आयुर्वेदिक तथा युनानी चिकित्सा पद्धति से चिकित्सा करने में भी सिद्धहस्त थे और अरनियां के ‘‘अमर औषधालय” के माध्यम से आपने लोगों की धर्मार्थ चिकित्सा की। रसायनशाला और औषधि निर्माण का भी आपको ज्ञान था। आप रोगियों को अपनी बनाई हुई औषधियां ही प्रायः दिया करते थे। आपकी बनाई अमर सुधा तथा अमर घुट्टी का जादू की तरह प्रभाव होना प्रसिद्ध था। सन् 1959 में आपके द्वारा आर्यसमाज, विधानसरणी, कलकत्ता में ‘‘महर्षि दयानन्द दातव्य औषधालय” आरम्भ किया गया था। यहां रहकर आपने औषधियां बनाई एवं रोगियों का उपचार किया।

 

                स्वामी जी शास्त्रीय संगीत एवं नृत्यकला में भी पारंगत थे। ठुमरी, गजल, कव्वाली, ख्याल तथा तराना आदि गाने का आपको गुरु माना जाता था। स्वर तथा लय पर आपका पूरा अधिकार था। सारंगी, तबला, हारमोनियम, सितार आदि प्रत्येक वाद्य आपके हाथ में आते ही स्वमेव बज उठता था। आपने शास्त्रीय गायन पं0 महादेव कत्थक से सीखा था। अमर स्वामी जी कवि हृदय वाले विद्वान थे। आपने हिन्दी तथा उर्दू में समान रूप से कविता की। आपकी एक रचना ‘‘अखिलाधार अमर सुख धाम, एक सहारा तेरा नाम” आर्यसमाज में लोकप्रिय रही है। हमने इसे आपके श्रीमुख से आर्यसमाज धामावाला, देहरादून में कई बार सुना। सन् 1939 में हैदराबाद रिसासत में वहां के मजहबी शासक ने अपनी हिन्दू प्रजा पर अनेक अत्याचार किये। इसके विरुद्ध आर्यसमाज की ओर से वहां सत्याग्रह किया गया। लगभग 1 लाख लोग इस सत्याग्रह में सम्मिलित हुए थे। स्वामी अमर स्वामी जी भी सत्याग्रह कर जेल गये थे। वहां आपने एक प्रसिद्ध गीत रचा जिसके शब्द हैं--‘‘कायम निजाम रह चुका, हो चुकी हुक्मरानियां। जुल्मों-सितम बिला वजह मिटने की है निशानियां।” यहीं पर स्वामी आत्मानन्द जी ने भी एक गीत की रचना की थी। उनका रचा हुआ गीत था ‘‘दयानन्द की है पताका रंगीली, सजी ओ३म् नाम वाली सजीली।” 

 

                स्वामी जी ने आर्यजगत आदि कई पत्र पत्रिकाओं का सम्पादन किया। आपके खोजपूर्ण लेख आर्यसमाज की पत्र-पत्रिकाओं में छपते रहते थे। रात दिन प्रचार कार्यों में व्यस्त रहकर भी आपने गवेषणापूर्ण पर्याप्त साहित्य का सृजन किया। आर्य सिद्धान्त सागर, प्रमाण महापर्व, विधर्मियों की शुद्धि अर्थात् उनका भारतीयकरण, जीवित पितर एवं हनुमान जी बन्दर थे या मनुष्य? आदि उनके प्रमुख ग्रन्थ हैं। रावण वध क्या विजयादशमी को हुआ था? क्या द्रोपदी के पांच पति थे? रामायण दर्पण, गीता और दयानन्द, गीता और वेद, मूर्ति पूजा से हानियां आदि आपकी कुछ अन्य प्रसिद्ध पुस्तकें हैं। आपके शास्त्रार्थ ‘‘निर्णय के तट पर” नामक ग्रन्थ में चार खण्डों में प्रकाशित हैं।

 

                कैंसर रोग से पीड़ित होकर अपने जीवन के 94वें वर्ष में 4 सितम्बर, 1987 को गाजियाबाद में स्वामी अमर स्वामी जी महाराज का महाप्रयाण हुआ। अन्तिम दिनों में भी आप शोध कार्य करने में व्यस्त रहते थे। स्वामी जी के निकटतम आर्य विद्वान प्रा0 राजेन्द्र जिज्ञासु ने उन्हें अपने निम्न श्रद्धा सुमन भेंट किये हैं:

 

                काम किये निष्काम धर्म हित बढ़ चढ़ करके।

                लड़े धर्म हित सदा तली पर सिर धर करके।।

                संकट सहे अनेक  नहीं किंचित घबराये।

                गुणी विप्र-मूर्तिमान सभी के पूज्य कहाये।।

 

                हमारा सौभाग्य है कि हमें सन् 1970-1980 के दशक में स्वामी अमर स्वामी जी महाराज के आर्यसमाज धामावाला, देहरादून में अनेक बार दर्शन करने का अवसर मिला। हमने यहां पर उनकी कथायें सुनी, ईश्वर भक्ति की स्वरचित मधुर एवं हृदय को झकझोरने वाली पंक्तियों का पाठ सुना।  स्वामी जी आर्यसमाज के सत्संगों में प्रवचन के बाद शंका समाधान भी करते थे। आजकल के विद्वानों ने यह कार्य करना छोड़ दिया है। स्वामी अमर स्वामी जी ने धर्म, देश व जाति की सेवा के जो प्रेरक कार्य किये हैं उनके कारण वह सदा अमर रहेंगे। स्वामी जी महाराज को हमारी श्रद्धांजलि एवं भावांजलि अर्पित है।

-मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121


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