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परमात्मा ने पशु-पक्षियों की भांति मनुष्यों को जीवनयापन का ज्ञान नहीं दिया, इसका कारण पता नहीं चलता : डॉ. वागीश शास्त्री

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24 Dec 18
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परमात्मा ने पशु-पक्षियों की भांति मनुष्यों को जीवनयापन का ज्ञान नहीं दिया, इसका कारण पता नहीं चलता : डॉ. वागीश शास्त्री महर्षि दयानन्द द्वारा सन् 1879 में स्थापित आर्यसमाज-धामावाला, देहरादून का तीन दिवसीय वार्षिकोत्सव आज दिनांक 21 दिसम्बर, 2018 को आरम्भ हुआ। आज अपरान्ह द्वितीय सत्र में बिजनौर से पधारे भजनोपदेशक श्री कुलदीप आर्य तथा तबला वादक श्री अश्विनी आर्य जी की टीम के भजन तथा आर्यसमाज के शीर्ष विद्वान डॉ. वागीश आर्य जी का विद्वतापूर्ण व्याख्यान हुआ। श्री कुलदीप आर्य जी ने मुक्ति की चर्चा आरम्भ कर इसके विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला। आपने प्रथम भजन प्रस्तुत किया जिसके बोल थे ‘वायदा जो करके आया उसको तू भूल गया, दौलत औलाद समझी माया में भूल गया, करके नित काम गन्दा होकर विषयों में अन्ध्धा, ईश्वर को तुने भुलाया है’। श्री कुलदीप आर्य ने दूसरा भजन सुनाया उसके बोल थे ‘ईश्वर का गुणगान किया कर, कष्ट और क्लेश मिटाने को, जीवन की यह नाव मिली है, भव सागर तर जाने को।’ तीसरा भजन भी अत्यन्त मधुर एवं अर्थ प्रधान था। इसके बोल थे ‘जय जयकार नहीं है पद की, जय जयकार नहीं इस तन की, तन से जो शुभ काज किये हैं, ये जयकार है उन कर्मण की।’ पडित कुलदीप आर्य जी ने चौथा अन्तिम भजन भी सुनाया जिसके बोल थे ‘नेकी करनी कर ले जग में, नेकी करनी करले जग में। वेद का अमृत पीले, मधुर घूंट पीले बन्दे। कर सेवा सुजनों की तन से, सोच भलाई सबकी मन से’।



भजनों के बाद आर्यसमाज धामावाला के युवा मंत्री श्री नवीन भट्ट जी ने डॉ. वागीश आर्य जी का परिचय दिया और आर्यसमाज आकर वेद प्रवचन करने का निमंत्रण स्वीकार करने के लिये उनका धन्यवाद किया। इसके साथ ही उन्होंने विद्वान आचार्य जी को व्याख्यान के लिए आमंत्रित किया। डॉ. वागीश आर्य जी ने मन्त्र पाठ से अपना व्याख्यान आरम्भ किया। उन्होंने कहा कि कहा जाता है कि मनुष्य जीवन सबसे श्रेष्ठ है। आचार्य जी ने महर्षि वेद व्यास जी के शब्दों को दोहराया और कहा कि उनके अनुसार मनुष्य जीवन से श्रेष्ठ और कुछ नहीं है। समय ही धन है। यह सच है। यह सम्भावनापूर्ण बात है। समय रुपी सम्पदा सबके पास है। यदि इसे धन में बदलना है तो अतिरिक्त प्रयास करने होंगे।



आचार्य जी ने कहा कि समय ही ज्ञान है। उन्होंने पूछा कि क्या यह सत्य है? समय को सत्कर्मों में लगाकर हम धन तथा ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। मनुष्य जीवन में परम आनन्द की प्राप्ति के अवसर भी छुपे हुए हैं। जीवन में जो श्रेष्ठ प्राप्त किया जा सकता है उसकी सम्भावना भी मनुष्य जीवन में ही छुपी हुई हैं। विद्वान आचार्य जी ने कहा कि कोई भी गाय या भैंस दूध नहीं देती है। दूघ निकालना पड़ता है। दूसरे जीवनों में वह सम्भावनायें नहीं हैं जो मनुष्य जीवन में हैं। मनुष्य के पास ऐसी कौन सी चीज है जो दूसरे प्राणियों से उत्कृष्ट व अच्छी है? आपके पास ऐसे कौन से दो अंग हैं जो पशु तथा पक्षियों के पास नहीं हैं? यह दो अंग हमारे हाथ व वाणी हैं। इनके अतिरिक्त पशुओं के पास अन्य जो अंग हैं वह मनुष्यों से अच्छे हैं। बुद्धि व मन मनुष्य के अन्तःकरण के अंग हैं जो पशुओं व अन्य प्राणियों से श्रेष्ठ हैं। उन्होंने कहा यदि मनुष्य अपने मन, वाणी, बुद्धि और हाथों का सदुपयोग नहीं करता तो उसे मनुष्य नहीं कह सकते। पशुओं को मनुष्य की तरह रिश्तों का सुख या तो मिलता नहीं है या थोड़े ही समय के लिये मिलता है। गाय अपने बछड़े से और बछड़ा अपनी मां गाय से बहुत प्यार करता है। दोनों यदि किसी कारण से एक दूसरे से दूर हो जायें तो हजारों गायों व बछड़ों के समूह में भी एक दूसरे को ढूंढ लेते हैं।



आचार्य डॉ. वागीश शास्त्री जी ने कबूतर और कबूतरी का उदाहरण दिया। इन दोनों को दूर जाकर अन्न के जो कण मिलते हैं उन्हें यह स्वयं न खाकर अपने घोसलें में लाते हैं और पहले अपने बच्चों को खिलाते हैं। उनका पेट भर जाये तो बचे हुए अन्न कणों का भक्षण स्वयं करते हैं। जब कबूतर-कबूतरी का बच्चा उड़ने के योग्य हो जाता है तो इनका आपस में माता-पिता व सन्तान का सम्बन्ध समाप्त हो जाता है। इसके विपरीत मनुष्य के रिश्ते जीवन पर्यन्त होते हैं। कुछ रिश्ते भगवान ने निश्चित किये हैं। इन रिश्तों को चुनने का अधिकार जन्म लेनी वाली जीवात्मा अर्थात् हमारे व आपके पास नहीं था। हम सबके माता-पिता, पुत्र व पुत्री तथा भाई व बहिन के रिश्तों का निर्णय भी परमात्मा ही करता है। इनके पास कौन सी आत्मा आनी है, इसका निर्णय भी परमात्मा ही करता है। इन रिश्तों को निभाने के लिये परस्पर प्रेम भी ईश्वर प्रदत्त होता है। मॉं अपने अच्छे व बुरे, सुन्दर व विकलांग बच्चें को प्यार करती है। जो प्यार मां अपने बच्चे से करती है वैसा प्यार वह दूसरे के बच्चों को नहीं करती चाहे वह कितने ही अच्छे व सुन्दर क्यों न हो। ऐसा ही बच्चों का भी स्वभाव होता है। वह भी अपनी मां, वह कैसी भी क्यों न हो, उसी को प्यार करते हैं। परिवारजनों के रक्त सम्बन्धों वा रिश्तों में यह प्रेम नैसर्गिक है।



पति व पत्नी के रिश्ते का फैसला ईश्वर नहीं करता, यह फैसला हमारा अपना होता है। आचार्य जी ने एक उदाहरण दिया और कहा कि एक सज्जन व्यक्ति था। वह किसी कारण पत्थर उठाकर आकाश में फेंकता था। उसके पड़ोसियों को उसकी इस हरकत से आश्चर्य हुआ। उन्होंने सोचा कि इसे डाक्टर को दिखाना चाहिये। उस सज्जन व्यक्ति से इसका कारण पूछा गया? उसने बताया कि 10 दिन पहले उसने सुना कि पति व पत्नी का रिश्ता ऊपर से बनकर आता है। उसकी समस्या उसकी पत्नी थी जिनके बीच मधुर सम्बन्ध नहीं थे। इस कारण उस पुरुष का वह व्यवहार था। आचार्य जी ने हिन्दू व मुस्लिम पतियों की चर्चा की और कहा हिन्दू एक और मुसलमान चार पत्नियों का स्वामी होता या हो सकता है। ऐसा नहीं हो सकता कि ईश्वर हिन्दू को एक और मुसलमानों को चार पत्नियां दें। विद्वान आचार्य जी ने कहा कि पति-पत्नी का रिश्ता हम मनुष्य चुनते हैं। ईश्वर की इसमें कुछ भूमिका तो है परन्तु पूरी-पूरी भूमिका नहीं है। यह प्रतिक्रिया आचार्य जी ने इस किम्वदन्ति के आधार पर की कि विवाह के रिश्ते भी ईश्वर बनाता है।



मनुष्य को भोजन करते हुए ईश्वर का धन्यवाद करना चाहिये। हमें जो भोजन प्राप्त होता है उसमें ईश्वर की कृपा और हमारा पुरुषार्थ दोनों होता है। ईश्वर ने ही सभी अन्न आदि पदार्थ उगाये हैं और हमने पुरुषार्थ किया होता है। आचार्य जी ने दो बच्चों की कथा सुनाई। दोनों स्कूल में लंच बाक्स लाते थे। एक बच्चा ईश्वर का धन्यवाद कर भोजन आरम्भ करता था और दूसरा बिना ईश्वर को याद किये करता था। ईश्वर को याद करने वाले बच्चे ने एक दिन अपने मित्र से पूछा कि क्या तुम्हारे माता-पिता ईश्वर को याद नहीं करते? दूसरा बच्चा बोला कि मेरे पापा ईश्वर का नाम लेते हैं परन्तु मम्मी नहीं लेती। जिस दिन मेरी माताजी मूंग की दाल बनाती हैं तो पिता जी उसे देखकर बोलते हैं कि हे भगवान्, तुमने आज फिर मूंग की दाल बनाई है। आचार्य जी ने माता, पिता, पुत्र आदि के बीच नैसर्गिक एवं कृत्रिम व्यवहारों का भी उल्लेख किया। परमात्मा द्वारा निर्धारित रिश्तों को जिस मनुष्य ने नहीं निभाया क्या वह मनुष्य हैं? आचार्य जी ने कहा कि आजकल कहीं कहीं माता-पिता को ओल्ड एज होम जाना पड़ता है। माता-पिता को वहां भेजने वाले मनुष्य होकर भी उनकी मनुष्यता की परसेन्टेज में कुछ कमी है।



आचार्य जी ने कहा कि मनुष्येतर सभी योनियों में अपने जीवन के निर्वाह का ज्ञान है। उन्होंने मधु मक्खी के छत्ते का उल्लेख किया। उन्होंने कहा कि मधु-मक्खियों ने किसी इंजीनियरिंग स्कूल से इंजीनियरिंग की शिक्षा प्राप्त नहीं की होती है। आचार्य जी ने अमेरिका और यूरोप की नदियों में पाई जाने वाली ‘‘ईल” मछली की चर्चा की और बताया कि जब इन मछलियों के बच्चे देने होते हैं तो सभी मछलियां, नर व मादा, सुदूर एक स्थान बरबूदा पर जाती हैं। वहां बच्चे देने के बाद ये नर व मादा मर जाते हैं। इनके बच्चे कुछ समय बाद पानी के भीतर घूमते व तैरते हुए उसी स्थान पर आ जाते हैं जहां उनके माता-पिता रहा करते थे। यह एक बहुत बड़ा आश्चर्य है। यूरोप व अमेरिका की मछलियों को कौन प्रेरणा व ज्ञान देता है कि तुम्हें बच्चों को जन्म देने अमुक स्थान पर जाना है। कौन उन बच्चों को प्रेरणा व ज्ञान देता है कि तुम्हारे माता-पिता अमुक स्थान पर रहते थे? यह उसी स्थान पर कैसे पहुंच जाती हैं। आचार्य जी ने डारविन के विकासवाद के सिद्धान्त की भी चर्चा की। उन्होंने कहा कि इस समस्या का निवारण डारविन के सिद्धान्त से नहीं होता। आचार्य जी ने बताया कि ईल मछलियां बच्चे देने व उसके लिये सुदूर स्थान पर जाने का यह चक्र हर वर्ष दोहराती है। इसमें वह कभी चूक नहीं करतीं। आचार्य जी ने यह भी पूछा कि इन मछलियों मे ंकौन सा जीपीएस सिस्टम लगा हुआ है? आचार्य जी ने कहा कि मनुष्येतर सभी प्राणियों में अपना जीवन चलाने हेतु ज्ञान होता है परन्तु यही ज्ञान मनुष्य में नहीं होता। मनुष्य को इस ज्ञान से क्यों वंचित किया गया है, यह ज्ञात नहीं है। आचार्य जी ने कहा कि सारे प्राणियों के पास अपना जीवन चलाने का ज्ञान है। सबका ज्ञान पृथक पृथक व अलग प्रकार का है। उन प्राणियों के ज्ञान में समानता नहीं है। मनुष्य को ऐसा ही ज्ञान क्यों नहीं दिया गया, यह पता नहीं चलता?



आचार्य जी ने बच्चों से सम्बन्धित एक घटना सुनाई। उन्होंने कहा कि एक बार एक स्कूल में आग लग गई। पूरी बिल्डिंग जल कर नष्ट हो गई। सभी बच्चे खुश थे परन्तु एक रो रहा था। जो खुश थे उसका कारण था कि अब हमें पढ़ाना नही पड़ेगा। रोने वाले बच्चे से कारण पूछा गया तो वह बोला कि हमारा प्रिंसीपल बहुत बुरे स्वभाव वाला है। वह वृक्ष के नीचे झाड़ में भी कक्षा लगवायेगा। पढ़ाई से छुटकारा नहीं मिल सकता। आचार्य जी ने कहा कि बच्चों को पढ़ाई से तकलीफ होती है। मन स्वभावतः परिश्रम से बचता है। आचार्य जी ने यहां भी विकासवाद के सिद्धान्त की चर्चा की। उन्होंने कहा कि यदि भारत के कुछ पशु अफ्रीका के जंगलों में और वहां के कुछ पशु भारत के जंगलों में छोड़ दिये जाये तो क्या वह भूखे मरेंगे? उन्होंने कहा कि नहीं, वह भूखे नहीं मरेंगे। उन्हें अपने भोजन का ज्ञान है, वह दोनों जगहों पर भोजन प्राप्त कर लेंगे। आचार्य जी ने कहा कि यदि मनुष्यों को दूर दूसरे देश के जंगलों में छोड़ा जाये तो उन्हें अवश्य कठिनता होगी। कौन सा पदार्थ खाद्य एवं सुरक्षित है और कौन सा विषैला, इसका ज्ञान करना कठिन होगा। हो सकता है कि आरम्भ में कुछ लोग जहरीला पदार्थ खाकर मर जायें।



आचार्य डॉ. वागीश शास्त्री जी ने विज्ञान की चर्चा की। उन्होंने एक समाचार पत्र के हवाले से बताया कि वैज्ञानिक ऐसी चिप बना सकते हैं जिसमें पुस्तकों का ज्ञान होगा। वह चिप विद्यार्थी के सिर में लगा दी जायेगी जिससे उसे उस विषय की जानकारी उपलब्ध हो सकेगी। आचार्य जी ने इस बात को विस्तार से समझाया और कहा कि वह चिप या कम्प्यूटर ज्ञान के उपयुक्त-अनुपयुक्त या अच्छे-बुरे आदि का विवेचन अथवा अनेलेसिस कर निर्णय नहीं कर सकते। उन्होंने कहा कि विद्वान चाहे कितनी भी सुविधायें उत्पन्न कर लें, समझना तो मनुष्य को ही पड़ेगा।



विद्वतप्रवर आचार्य डॉ. वागीश शास्त्री जी ने प्रश्न किया कि संसार के पहले मनुष्य को ज्ञान कैसे प्राप्त हुआ था? आज भी मनुष्य को चलना व बोलना सीखना पड़ता है। यदि मनुष्य के बच्चों को बोलने वाले बड़े मनुष्यों से पृथक रखा जाये तो वह बोलना नहीं सीख सकते। उन्होंने बताया कि सीरिया के सम्राट बेनीपाल ने इसका प्रयोग कर इस तथ्य की पुष्टि की थी। आचार्य जी ने कहा कि शिवाजी महाराज ने एक परिवार को 130 एकड़ भूमि दी थी। अब इस परिवार के लोग यूरोप में जाकर रहने लगे हैं। उन्होने वह समस्त भूमि आरएसएस को दे दी है। उस भूमि पर आरएसएस ने एक संस्कार शिविर लगाया और मुझे व्याख्यान के लिये आमंत्रित किया। उस आयोजन में बच्चे अपने अभिभावकों के साथ उपस्थित थे। मैं विचार कर रहा था कि किस विषय पर बोलूं। वहां एक खिड़की से बाहर एक घोड़े को मैंने घास चरते हुए देखा। उसे देख कर मेरे अन्दर कुछ विचार उत्पन्न हुए। मैंने शिविर में उपस्थित बच्चों से पूछा की आप पढ़ाई क्यों करते हो। आचार्य जी ने बच्चों की जिज्ञासाओं की चर्चा भी की। एक बच्चे ने उनके प्रश्न के उत्तर में सच कहा कि वह परीक्षा में पास होने के लिये पढ़ाई करते हैं। कक्षा में पास होकर वह आगे की कक्षा में जायेंगे। सीए, इंजीनियर अथवा डाक्टर आदि बनेंगे। ऐसा करने से वह पैसे कमायेंगे। पैसे से भोजन, कपड़ा, मकान तथा कार आदि मिलती है। वह इससे सुविधाओं से युक्त जीवन जीयेंगे। आचार्य जी ने कहा कि पशुओं को इन वस्तुओं की आवश्यकता नहीं है। वह मजे से रहते हैं।



आचार्य जी ने कहा कि मैंने बच्चों को कहा कि मैं बच्चों को पशु योनि में भेज सकता हूं। एक बच्चा सामने आया। उसने अपनी आप बीती सुनाई कि मुझे सुबह नींद बहुत आती है परन्तु मेरी मां मुझे जगा देती है। मुझे यह अच्छा नहीं लगता। वह बच्चा बोला कि मुझे कहीं भी भेज दो। उसने यह भी कहा कि मुझे वहां अच्छा नहीं लगेगा तो मैं वापिस आ जाऊगां। आचार्य जी ने उससे कहा कि एक बार जाने के बाद वापिस नहीं आ सकोगे तो वह पशु योनि में जाने के लिए नहीं माना। वह तो वहां अपने माता-पिता को भी ले जाना चाहता था। मैंने उसे कहा कि तुम्हें अकेले जाना होगा। माता-पिता को भेजना मुझे नहीं आता। आचार्य जी ने कहा कि मनुष्य जीवन में जरुर कोई खास बात है। आचार्य जी ने सभागार में विद्यमान श्रोताओं से पूछा कि आप मोक्ष क्यों चाहते हो? सुखों की तुलना में दुःख तो बहुत थोड़ा है। कुछ बातें जरुर हैं। सभी को छोटा दुःख भी बड़ा लगता है। उन्होंने कहा कि तुम दुःख को बड़ा करके देखते हो इसलिये दुःख बड़ा दीखता है। तुलना करने पर दूसरों के छोटे सुख भी बड़े दीखते हैं और अपना छोटा दुःख भी बड़ा लगता है।



आचार्य जी ने कहा कि बहुत लोगों को पड़ोसी का बड़ा व सुन्दर मकान तथा अच्छा बिजीनेस देखकर दुःख होता है। एक संस्था ने सर्वे कराया कि महिलायें साड़ी क्यों खरीदती हैं? परिणाम सामने आये तो ज्ञात हुआ कि इसके दो कारण हैं। पहला यह है कि जैसी साड़ी वह खरीद रही है वैसी साड़ी पडोसियों के पास न हो। दूसरा कारण यह होता है कि वह उस साड़ी को खरीदती है जैसी पड़ोसी महिलाओं के पास होती है। आचार्य जी ने इस बात को सुख व दुःख से जोड़ा। उन्होंने कहा कि महर्षि दयानन्द जी ने कहा है कि मनुष्य के जीवन में दुःख कम तथा सुख अधिक हैं। मनुष्य जीवन का उद्देश्य सुख व आनन्द की प्राप्ति है। आचार्य जी ने बूढ़े व वृद्ध व्यक्ति की चर्चा भी की। उन्होंने कहा कि वो बूढ़े अभागे हैं जिन्होंने ईश्वर की उपासना का आनन्द प्राप्त करने का प्रयत्न नहीं किया।



आचार्य जी ने कहा कि जीवन में वृद्धावस्था सबसे अच्छा भाग है। यदि हमने जीवन में ज्ञान प्राप्ति, पुरुषार्थ व उपासना की है तो हमारी वृद्धावस्था सुखद होगी। वेद मनुष्य को आदेश देते हैं कि तुम अदीन रहते हुए जीवित रहो। आचार्य जी ने अदीन शब्द की भी व्याख्या की। अपने व्याख्यान को विराम देते हुए आचार्य जी ने चर्चा की कि मृत्यु के समय मनुष्य को चारपाई नीचे उतार देते हैं। उन्होंने कहा कि इसका कारण आध्यात्मिक है जिसे वह अपने अगले प्रवचन में बतायेंगे। समय हो चुका था अतः आचार्य डॉ. वागीश शास्त्री जी ने अपने व्याख्यान को विराम दे दिया।



आर्यसमाज के मंत्री श्री नवीन भट्ट जी ने आचार्य जी व भजनोपदेशक श्री कुलदीप आर्य जी का धन्यवाद किया। डॉ. महेश कुमार शर्मा जी ने कहा कि आचार्य जी ने हमें अमृतमय प्रवचन सुनाया है। उन्होंने हमें जीवन के लक्ष्य को बताने का प्रयास किया है। उनके प्रवचन व बोलने की शैली असाधारण होने सहित सरल व बोधगम्य है। शर्मा जी ने श्रोताओं के कल के प्रवचन में परिवार व मित्रों के साथ आने का निवेदन किया। उन्होंने दानदाताओं से प्राप्त धनराशि की सूचना सहित कुछ अन्य सूचनायें भी दीं। पुरोहित जी द्वारा शान्ति पाठ के साथ आज का सायंकालीन कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। इसके बाद सबने अल्पाहार किया। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121


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