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साहित्य की भूमिका और हिन्दी रचनाएं

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02 Jun 25
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साहित्य की भूमिका और हिन्दी रचनाएं

यह पुस्तक क्यों ?  परिवार और कॉलेज में हिंदी साहित्य के वातावरण में पली और साहित्यकार पति के सहयोग की लंबी चर्चा कर इसका उत्तर लेखिका ने "अपनी बात" में करीने से दिया है। वह  लिखती हैं, " मेरा खास मकसद यह है कि हम आज के बदलते परिवेश में साहित्य की बदलती स्थिति व स्वरूप के बारे में विचार करें। विभिन्न लोगों की विपरीत प्रतिक्रियाओं और कई प्रसंगों से उनके मन में अनेक प्रश्न उत्पन्न होते रहे कि क्या अब साहित्य, कला व संस्कृति अप्रासंगिक व अनुपयोगी हो गए हैं, मनुष्य को इनकी जरूरत नहीं रह गई है ? क्या शिक्षा का उद्देश्य केवल रोजी-रोटी कमाना ही है, इन्सानियत का कोई मूल्य नहीं है? क्या अब साहित्य पढ़ना और लिखना बेमानी हो गया है? यदि इसका कुछ भी मूल्य है तो आज की चुनौतियों का सामना करते हुए हम साहित्य, विशेष रूप से हिन्दी साहित्य से रिश्ता क्यों रखें, कैसे रखें, उसकी क्या भूमिका है, क्या प्रभाव व आयाम हो सकते हैं, उसका स्तर क्या होता जा रहा है और क्या दिशा हो ? उसके प्रति आस्था और अभिरुचि कैसे विकसित कर सकते हैं? आदि। इन प्रश्नों के उत्तर खोजते खोजते कई विचार उनके मन में उत्पन्न होते रहे। वे ही इनके लेखन में अभिव्यक्त होकर पुस्तक के रूप में संचित होते गए। इन्हें अधिक स्पष्टता से उजागर करने और प्रभावशाली व रोचक बनाने के लिए इन्होंने हिन्दी साहित्य की कुछ रचनाओं के अंशों के विश्लेषण सहित उदाहरण देने जरूरी समझे। ये उदाहरण केवल नमूने के तौर पर ही, कुछ झलकियों के रूप में दिए गए हैं। हिन्दी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की विपुल निधि है, उनकी अनेकानेक विशेषताएँ व महत्ता है। अनेक रचनाओं ने इन्हें प्रभावित किया है, इनके मन में वे रची-बसी हैं। प्रस्तुत पुस्तक में आधुनिक काल की कुछ रचनाओं के उदाहरण देने ही संभव हो सके हैं उसका कारण  पुस्तक की अपनी सीमाएँ हैं।"

(पृष्ठ 5) 

          लेखिका द्वारा उठाए गए सवालों का उत्तर है यह पुस्तक। पुस्तक की भूमिका में डॉ. नरेंद्र शर्मा ' कुसुम ' लिखते हैं पुस्तक के ग्यारह निबंधों में नवीनता और मौलिकता है। विचारों का प्रवाह है। वे पुस्तकों की पठनीयता के संकट पर भी अपनी चिंता जताते हुए कहते हैं यह पुस्तक पाठकों को पढ़ने के लिए प्रेरित करेगी ऐसी उम्मीद है।"

     ' वर्तमान परिवेश और साहित्य ' संग्रह का पहला निबंध है। वैज्ञानिक आविष्कारों, यांत्रिकी संसाधनों, तेजी से विकसित हो रही तकनीकी क्रांति, जीवन के हर पहलू पर छा गए टीवी, मोबाइल, कंप्यूटर, स्मार्टफोन, इंटरनेट, फेसबुक और सोशल मीडिया के लाभों से सभी चमत्कृत हैं। इन सब के रहते हमारी स्थितियां और वृति कहां जा रही है, इसका विश्लेषण भी जरूरी है..... ( पृष्ठ 15 ) इस संदर्भ में डॉ. नरेंद्र शर्मा कुसुम की ये पंक्तियां उद्धत करती हैं........

 

कह रहे हैं लोग हम आगे बढ़े हैं, /ज्ञान और विज्ञान के ऊँचे शिखर पर चढ़े हैं, /दीखते हमको गगनचुम्बी सफलता के नज़ारे, /पर दिखते नहीं इन्सानियत के तैरते शव, /जो बहा ले जा रही वक्त की मैली नदी है।/ यह सदी कैसी सदी है?

 

इन्हीं संदर्भों में ये साहित्य का अर्थ और प्रयोजन , साहित्य का महत्व, साहित्य नहीं होता तो क्या होता एवं साहित्य की दशा और दिशा किस ओर जैसे गंभीर बिंदुओं पर साहित्य की स्थितियां बताने का प्रयास किया गया है। डॉ. विद्यानिवास मिश्र, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, उपन्यास और कहानीकार प्रेमचंद आदि साहित्य मनीषियों के उद्धरणों से अपनी बात को पुष्ट किया है। अंत में लिखती हैं, " विषम परिस्थितियों में भी कई लोग हिंदी साहित्य से प्रेम, निष्ठा और आस्था रखते हुए उनसे अपना रिश्ता बनाए हुए सक्रिय हैं। वे निरंतर अध्ययन,लेखन,संगोष्ठियों,पुस्तक मेले आदि कर रहे हैं। वे हमारे लिए प्रेरणादायक हैं."( पृष्ठ 31)

      भारतीय साहित्य ने विभिन्न विचारधाराओं को अपना कर , समन्वित करते हुए जीवन - मूल्यों को रेखांकित किया, समय के अनुसार नए - नए विचारों को अपनाया और इस प्रकार संस्कृति का विकास किया। इन्हीं भावनाओं पर आधारित है संग्रह का निबंध ' संस्कृति - दर्शन का संवाहक  संपोषक '। साहित्य में आध्यात्मिकता के महत्व पर साधना पत्रिका से उद्धत कर लिखती हैं, " सच्ची आध्यात्मिकता जिसकी शिक्षा हमारे पवित्र ग्रंथों में दी गई है वह शक्ति है जो आंतरिकता और बाह्यता पारस्परिक शांतिपूर्ण संतुलन से निर्मित होती है।" ( पृष्ठ 33 ) इसी पृष्ठ पर आगे लिखती हैं, "  साहित्य में  मूल्य संवेदनात्मक रूप से अभिव्यक्त हुए हैं और इनका समुचित प्रभाव भी हुआ है। तुलसीदास कृत 'रामचरितमानस' से लेकर सूर, मीरा, रसखान, कबीर आदि के भक्ति काव्य में आध्यात्मिकता के रस में डूबे उदात्त मूल्यों की प्रतिष्ठा हुई है। आज भी आदर्श गुणों और आचरण के लिए इन रचनाओं के उदाहरण दिए जाते हैं। लोक-मानस में इनकी पंक्तियाँ रची-बसी हैं। राम और कृष्ण के चरित्रों, प्रसंगों और आदर्शों को और अन्य पौराणिक प्रसंगों को लेकर विपुल मात्रा में साहित्य की रचना हुई है और आज भी हो रही है। साहित्य आध्यात्मिकता के विकास में सहायक है।"

       लोक - परलोक का सामंजस्य, आस्था - परमात्मा की एकता और व्यापक प्रेम, आत्म की अमरता और शरीर एवं संसार की नश्वरता, योग - वैराग्य - भोग और जान - कर्म - भक्ति का समन्वय, संयम और अपरिग्रह, वसुदेव कुटुंबकम् ,अहिंसा परमो धर्म की विविध प्रसंगों और उद्धरणों से सटीक व्याख्या कर इनका मूल और जीवन में महत्व बताते हुए मिल कर चलो, मिल कर बोलो का प्रभावी संदेश दिया है। हमारे दर्शन, भाषाओं, शास्त्रों,साहित्य, ललित कलाओं प्रतिबिंबित मूल्यों को संरक्षण और संवर्धित करने की जरूरत साहित्य के माध्यम से ही संभव है। इन मूल्यों को आचरण और व्यवहार में लाने की आवश्यकता है। ( पृष्ठ 47 )

 

 "असतो मा सद्गमय /तमसो मा ज्योतिर्गमय/ मृत्योर्मा अमृतंगमय ।।" 

 

     " मानव की भावना का विकास" में कई ग्रंथों से उद्धत प्रसंगों, विद्वानों कीकविताओं, नाटक,कहानियों, निबंध और संस्मरण के माध्यम से संदेश दिया है कि मानवता को प्रशस्त करने में साहित्य की क्षमता और भूमिका का कितना महत्व है। " मनुष्य की अनेक भौतिक उपलब्धियाँ और सफलताएँ हैं जो महत्वपूर्ण और उपयोगी हैं, लेकिन उसके जीवन की सबसे बड़ी सार्थकता तथा सफलता नेक इन्सान बनने में है। प्राचीन काल से लेकर आज तक के साहित्य में मानवता की भावना दिखाई देती है। तुलसी, सूर, मीरा, कबीर आदि संत-भक्तों के नीति परक दोहों और काव्य में विपुलता से मानवीय गुणों की अभिव्यक्ति हुई है। मैथिलीशरण गुप्त और अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' ने अपने काव्य में पौराणिक पात्रों को लेकर मानवीय मूल्यों का प्रतिपादन किया है। हरिऔध ने 'प्रिय प्रवास' महाकाव्य में राधा और कृष्ण को मानवीय क्रियाकलापों और मनोवृत्तियों से समन्वित कर और प्रेम का उदात्तीकरण कर उन्हें विश्वप्रेमी और विश्वसेवी के रूप में चित्रित किया है। राधा कृष्ण के प्रेम में निमग्न होकर लोक-सेविका के रूप में गोप-समाज को लोक कल्याण की ओर ले जाने का प्रयास करती है। गुप्त ने 'साकेत' महाकाव्य में राम और सीता को आदर्श मानव के रूप में चित्रित किया है। राम दिव्यता का संदेश देने नहीं अपितु कर्त्तव्य परायणता और सद्भचरण से लोक हित करने हेतु आए हैं। ( पृष्ठ 48)  वे कहते हैं......

 

संदेश यहाँ मैं नहीं स्वर्ग का लाया,

इस भूतल को ही स्वर्ग बनाने आया।

 

" ध्रुवस्वामिनी नाटक के माध्यम से नारी के साहस, स्वाभिमान, स्वतंत्रता, अधिकार और सम्मान का संदेश दिया है । "( पृष्ठ 54 ) " धन आवश्यक होना ही सब कुछ नहीं है ,दूसरों की मदद करके हम दुख व संतोष प्राप्त कर सकते हैं और बेहतर इंसान बन सकते हैं।"( पृष्ठ 63 )

       "यथार्थ का साक्षात्कार और मार्मिक अनुभूति" निबंध में  " कितनी विडम्बना है कि परिचितों के बीच भी अजनबीपन का अहसास हो, बनावटीपन, घुटन और सूनेपन का दर्द हो। हमारे समय की ऐसी त्रासद स्थितियों-अनुभूतियों को अभिव्यक्त किया है डॉ.मनोहर प्रभाकर ने अपने इस नवगीत ( महुए महक गये' काव्य संग्रह ) में। कुछ अंश इस प्रकार हैं, ( पृष्ठ 65 ).........

 

परिचित हर चेहरा है, जाना पहचाना है /फिर भी यूँ लगता है, जैसे बेगाना है/ बाहर से खुले खुले, बन्द मगर अन्दर से /यारों के घर भी अब लगते हैं दफ्तर से/ घुटता हर शीश महल, ज्यों बन्दीखाना है/ जीवन के इर्द-गिर्द कुछ ऐसा घेरा है/ गढ़ के ज्यों निकट कहीं दुश्मन का डेरा है/ रीते हैं चषक सभी, उजड़ा मयखाना है।

 

        उपभोक्तावादी अपसंस्कृति में धन का वर्चस्व इतना अधिक बढ़ गया है कि मानवीय मूल्यों में गिरावट आ रही है। ऐसे में कला और संस्कृति भी उपेक्षित हो रही है, कलाकार की अवस्था दयनीय हो रही है। भवानी प्रसाद मिश्र ने 'गीत फरोश' कविता में कवि की विवशता व दुर्दशा पर इस प्रकार व्यंग्यात्मक प्रकाश डाला है-

 

जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ, तरह-तरह के गीत बेचता हूँ/ जी, माल देखिए दाम बताऊँगा, बेकाम नहीं काम बताऊँगा / कुछ गीत लिखे हैं मस्ती में मैंने, कुछ लिखे हैं पस्ती में मैंने/ जी, पहले कुछ दिन शर्म लगी मुझको, पर पीछे पीछे अक्ल जगी मुझको/ जी, लोगों ने तो बेच दिए ईमान, जी आप न हों सुनकर ज्यादा हैरान/ मैं सोच-समझकर आखिर अपने गीत बेचता हूँ।

 

जिस समाज में लोगों ने अपने ईमान बेच दिए हों, वहाँ कवि और कलाकार का महत्व गिरने लगता है। उपर्युक्त पंक्तियों में सामाजिक और राजनैतिक व्यवस्थाओं पर भी परोक्ष में कटाक्ष किया गया है।  साहित्यकार अपनी रचनाओं में जीवन के यथार्थ के विभिन्न रूपों को चित्रित करता है और उसकी मार्मिक अनुभूति करता है, यही इस निबंध का मूल मर्म है जिसको पाठकों तक पहुंचाने के लिए कवियों की रचनाओं के साथ - साथ कहानियों का पुट भी दिया गया है।

          " अंधेरे से उजाले की ओर"  से (पृष्ठ 85) " अमृत-पुत्रों को समृद्धि लाने के लिए शक्तिशाली, विजयी, निडर, आशावान और उत्साही बनने का अह्वान कामायनी', श्रद्धा में यूं किया गया है ......

 

  और क्या तुम सुनते नहीं, विधाता का मंगल वरदान/ 'शक्तिशाली हो, विजयी बनो', विश्व में गूँज रहा जय-गान। / डरो मत, अरे अमृत संतान ! अग्रसर है मंगलमय वृद्धि, / पूर्ण आकर्षण जीवन-केन्द्र, खिंची आवेगी सकल समृद्धि ।।

 

 " प्रकृति - चित्रण से सुंदर भाव- चिंतन - संदेश" से (  पृष्ठ 101)  छायावादी काव्य में प्रकृति चित्रण बहुलता से मिलता हैं। उनमें हरी मृदु घास पर बिछी ओस की बूँदों, उषा की सुनहरी किरणों, संध्या की छवि, घनी अमराइयों से छन - छन कर आती चाँदनी आदि के सरस बिम्ब मन को आनंदित करते हैं। पंत का 'पल्लव', प्रसाद की 'कामायनी', निराला का 'परिमल' और महादेवी वर्मा की 'यामा' प्राकृतिक सुषमा की अनुपम निधियाँ हैं। महादेवी वर्मा की इस रचना में प्रातःकालीन प्रकृति की शोभा का अद्भुत चित्र देखिए-

 

सौरभ का फैला केश- जाल, करती समीर-परियाँ विहार, / गीली केसर-मद झूम झूम, पीली तितली के नव कुमार,/  मर्मर का मधुर संगीत छेड़ देते हैं हिल पल्लव अजान ! /फैला अपने मधु पंख, उड़ गई नींद क्षितिज पार,/ अध-खुले दृगों के कंज कोष पर छाया विस्मृति का खुमार,/ रंग रहा हृदय ले अश्रु हास, यह चतुर चितेरा सुधि-विहान !

 

" प्रेम के विविध आयाम और गहन - व्यापक अनुभूति" निबंध से....( पृष्ठ 118)....  

प्रकृति के उपादानों से नारी-सौन्दर्य के सूक्ष्म व भाव परक चित्र शालीन, सहज व अप्रतिम हैं-

 

सुमित्रानंदन पंत ने प्रेयसी के आगमन पर अपनी प्रेम-अनुभूति व्यंजित की है। वह अपने सुन्दर अंगों का मधुर वैभव प्रदान करती है। उसको चुपचाप अपलक निहारकर मन में सपनों की कलियाँ खिल जाती हैं- 

तुम आती हो, नव अंगों का, शाश्वत मधु-विभव लुटाती हो।/ अपलक रह जाते मनोनयन, कह पाते मर्म-कथा न वचन, / तुम आती हो, तंद्रिल मन में, स्वप्नों के मुकुल खिलाती हो।

दग्ध हृदय में प्रणय की कामना जगाकर अपार ममता देने वाली प्रेयसी कवि पंत को मर्म-व्यथा में सोने-सी तपी हुई दिखाई देती है..........

 

प्राणों में चिर व्यथा बाँध दी। क्यों चिर दग्ध हृदय को तुमने,/  वृथा प्रणय की अमर साध दी। प्राण गलेंगे, देह जलेगी,/  मर्म व्यथा की कथा ढलेगी, सोने-सी तप कर निकलेगी, प्रेयसी प्रतिमा, ममता अगाध दी।

 

     संग्रह के निबंध " राष्ट्रीय और देशभक्ति",( पृष्ठ 128 ), पुराण,इतिहास,महापुरुषों के अवदान,आधुनिक संदर्भों में मौलिक व्याख्या"(पृष्ठ 138 ) तथा " साहित्य से रिश्ता कैसे बढ़ाए" ( पृष्ठ 157 )अपने-अपने विषय का महत्व प्रतिपादित करते हैं।

       निबंधों की विशेषता है बोलचाल की सहज सरल भाषा शैली। कथ्य और मंतव्य को पुष्ट करने के लिए पौराणिक संदर्भों के साथ - साथ आधुनिक युग बोध के साहित्य, कहानियों, नाटकों, उपन्यासों के अंश, संस्मरणों आदि के प्रेरक विवरण दिए गए हैं। प्रत्येक निबंध संदेश प्रधान और समाज के यथार्थ पर केंद्रित है। इनको पढ़ने पर पाठक को लगता है कि साहित्यिक संदर्भों से उसके दिल की बात ही कही गई है और वह इन्हें अपने जीवन से जुड़ा हुआ ही महसूस करता है। यहीं लेखिका की लेखकीय दक्षता और सफलता सामने आती है


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