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कविता:मरू में खेजड़ी 

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30 Sep 21
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कविता:मरू में खेजड़ी 

वर्षों से
मरु के धोरो 
के बीच 
उगी खेजड़ी
सदा धूप से 
छाया के लिए 
भिड़ी 
सदियों से 
अकाल में 
मानव की 
भूख से 
लड़ी 
उगती इसमें 
पोष्टिक 
सांगरी की 
लड़ी 
गाय बकरी 
खाती इसकी 
पत्तियां है
खड़ी
रेगिस्तान में 
इस वृक्ष की 
पूजा होती 
बड़ी
कम पानी में 
मरुभूमि का
हरा-भरा
श्रृंगार 
करती हर 
घड़ी।
 


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