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“किसी नास्तिक को ईश्वर पर विश्वास ईश-कृपा से ही होता है”

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25 Oct 19
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“किसी नास्तिक को ईश्वर पर विश्वास ईश-कृपा से ही होता है”

ईश्वर है, इसका प्रमाण ईश्वर की बनाई यह सृष्टि वा जगत है। जो लोग ईश्वर को नहीं मानते व स्वयं को नास्तिक कहते हैं, उन्हें यह बताना चाहिये कि यह सृष्टि कब व कैसे बनी? बिना ज्ञान व कर्म (पुरुषार्थ अथवा प्रयत्न) के कोई रचना नहीं होती। यह सृष्टि भी परमाणुओं से बनी है। परमाणु भी नित्य व अविनाशी रचना नहीं हैं। यह भी सृष्टि की उत्पत्ति के बाद ही अस्तित्व में आये हैं। अतः परमाणुओं का उपादान कारण अति सूक्ष्म अनादि व नित्य प्रकृति को जिसने परमाणु, अणुओं व अन्त में इस स्थूल सृष्टि के रूप में किसने किया है, इसका उत्तर देना नास्तिकों का कर्तव्य है। यदि वह ऐसा नही करते तो उनका ईश्वर को और उसके वेदज्ञान को न मानना उनकी अज्ञानता व विवेक बुद्धि के अभाव का प्रमाण ही कहा जा सकता है। परमात्मा ने न केवल इस सृष्टि की रचना की है अपितु उसी ने सृष्टि के आदि में वेदों का ज्ञान भी चार ऋषियों को दिया था। मनुष्य आदि सभी प्राणियों को भी परमात्मा बनाता व उन्हें मृत्यु प्रदान कराता है। यह यथार्थ स्थिति है एवं अकाट्य तर्कसंगत सिद्धान्त भी है। हमारे वैज्ञानिकों द्वारा पृथिवी की कक्षा में जो उपग्रह आदि स्थापित किये जाते हैं अथवा  चन्द्र व मंगल आदि ग्रहों पर जो राकेट आदि भेजे जाते हैं वह पृथिवी पर परमात्मा द्वारा बनाये गये पदार्थों से ही बनाये जाते हैं और पृथिवी से ही छोड़े जाते हैं। सृष्टि की रचना से पूर्व प्रलय अवस्था होती है। उस प्रलय अवस्था में इस सृष्टि व उसके ग्रह व उपग्रहों को बनाने के लिये केवल आकाश ही था। सर्वव्यापक ईश्वर ने परमाणुरूप व उससे पूर्व की स्थिति में विद्यमान सत्व, रज व तम गुणों वाली प्रकृति में क्षोभ पैदा कर वैज्ञानिक प्रक्रिया से इस सृष्टि को बनाया है। उसके नियम कितने सत्य एवं निर्दोष हैं कि सृष्टि बनने से अब तक 1.96 अरब वर्षों से अधिक समय बीत जाने पर भी पृथिवी, चन्द्र व सूर्य आदि असंख्य लोक-लोकान्तर आपस में भिड़े नहीं हैं जबकि संसार में प्रतिदिन सैकड़ों व हजारों सड़क दुर्घटनाओं सहित यदा-कदा रेल दुर्घटनाओं के बारे में हम सुनते रहते हैं। वेदों में परमात्मा ने बताया है कि ईश्वर ने इस सृष्टि व इसके सभी लोक लोकान्तरों आदि को धारण किया हुआ है। इसी के कारण सृष्टि में सभी ग्रह सृष्टि के आरम्भ से अपनी अपनी कक्षा में घूम रहे व गति कर रहे है। इनका कभी परस्पर टकराव नहीं हुआ। यदि ऐसा होता तो लाखों वर्ष पूर्व ही प्रलय हो जाती। यह कदापि नहीं माना जा सकता कि यह विशाल ब्रह्माण्ड बिना परमात्मा के अपने आप बन गया। किसी महद् बुद्धि के द्वारा योजनानुसार बनी इस महान सृष्टि का स्वयं बनना व स्वयं नियमों में चलना स्वीकार नहीं किया जा सकता।

 

                स्वामी श्रद्धानन्द जी (पूर्वनाम मुंशीराम) (1856-1926) के जीवन में प्रसंग आता है कि वह मत-मतान्तरों के आचार्यों की अनेक बुराईयों को देख कर नास्तिक हो चुके थे। धर्म व ईश्वर पर उनका आस्था और विश्वास समाप्त हो चुका है। पुलिस विभाग में कार्यरत उनके पिता नानक चन्द जी को मुंशीराम जी की इस स्थिति का ज्ञान था। वह स्वयं एक पौराणिक सनातनी विश्वास वाले पुरुष थे। जिन दिनों ऋषि दयानन्द बरेली में आये हुए थे, मुंशीराम जी के पिता नानक चन्द जी की डयूटी स्वामी दयानन्द के उपदेशों में शान्ति व्यवस्था कायम करने के लिए लगी थी। उन्होंने स्वामी दयानन्द जी के उपदेश सुने तो उन्हें लगा था कि उनके पुत्र की नास्तिकता इस संन्यासी के विचार सुनकर दूर हो सकती है। अतः वह मुंशीराम जी की नास्तिकता दूर करने के लिये आग्रहपूर्वक उन्हें ऋषि दयानन्द जी के उपदेशों में ले जाते हैं। मुंशीराम जी ने इस समस्त प्रकरण का उल्लेख अपनी आत्म-कथा में विस्तारपूर्वक किया है। स्वामी दयानन्द के सत्संग के बाद मुंशीराम जी के स्वामी दयानन्द जी से ईश्वर के अस्तित्व पर प्रश्नोत्तर होते हैं। स्वामी दयानन्द उनके प्रत्येक प्रश्न वा शंका का युक्तिपूर्वक समाधान करते हैं। तीन दिन तक ऐसा होता हुआ। अन्त में मुंशीराम जी के सभी प्रश्न समाप्त हो गये। वह स्वामी दयानन्द जी को कहते हैं कि आपके तर्क एवं युक्तियों ने मुझे निरुत्तर तो कर दिया परन्तु मेरी आत्मा में ईश्वर के अस्तित्व के प्रति विश्वास उत्पन्न नहीं हुआ। स्वामी दयानन्द उन्हें समझाते हैं कि तुमने प्रश्न किये मैंने उनके उत्तर दिये। यह ज्ञान व तर्क की बात थी। मैंने तुम्हें ईश्वर के प्रति विश्वास दिलाने का वायदा नहीं किया था। कोई व्यक्ति किसी बुद्धिमान व्यक्ति को ईश्वर के होने का विश्वास नहीं दिला सकता। स्वामी जी ने मुंशीराम जी को कहा था कि ‘मुंशीराम! तुम्हें ईश्वर पर उसी दिन होगा जब ईश्वर स्वयं तुम्हें अपने अस्तित्व का विश्वास करायेंगे।’ वस्तुतः ऐसा ही हुआ। मुंशीराम जी बाद में ईश्वर के ऐसे विश्वासी बने की उन्होंने इसके प्रमाण अनेक अवसरों पर दिये। उन्हें अपने प्राणों का मोह तक नहीं था। जीवन में उन्होंने बडे-बड़े निर्णय लिये जो कि एक साधारण मनुष्य के लिये सम्भव नहीं होता। उन्होंने देश की आजादी के आन्दोलन में भाग लिया और वह आन्दोलन के कद्दावर नेताओं में से एक थे। बाद में वह महात्मा मुंशीराम बने और प्राचीन संस्कृत एवं वेद विद्या के प्रचार-प्रसार के लिये उन्होंने सन् 1902 में गुरुकुल कागड़ी की स्थापना की। एक आचार्य के रूप में उन्होंने उसका संचालन भी किया। यह विद्यालय अपने समय का विश्व का चर्चित विद्यालय बना। इंग्लैण्ड के प्रधानमंत्री श्री रैम्जे मैक्डानल इंग्लैण्ड प्रधानमंत्री बनने से पूर्व भारत आये और महात्मा जी के साथ गुरुकुल कांगड़ी में रहे थे। उन्होंने स्वामी श्रद्धानन्द जी को जीवित ईसामसीह की उपाधि दी थी।

 

                स्वामी दयानन्द जी के जीवन में एक युवक पंडित गुरुदत्त विद्यार्थी आता है। यह अत्यन्त मेधावी युवक था। यह अपने विद्यार्थी जीवन में आर्यसमाज लाहौर के सम्पर्क में आया। महात्मा हंसराज जी तथा लाला लाजपतराय जी इसके सहपाठी थे। सन् 1883 में स्वामी दयानन्द जी को जोधपुर में प्रचार करते हुए विष दिया गया था। उनका उपचार भली प्रकार से न होकर उसमें असावधानियां की गई थी। यहां तक हुआ कि जोधपुर के प्रशासन ने स्वामी दयानन्द को विषपान कराने वाले अपराधी की जांच तक नहीं की। स्वामी जी का स्वास्थ्य बिगड़ता गया था और मृत्यु से पूर्व उन्हें अजमेर लाया गया। उनका स्वास्थ्य अत्यधिक बिगड़ जाने और मृत्यु का समय निकट आने पर अनेक स्थानों से आर्यजन अजमेर पहुंचने लगे थे। आर्यसमाज लाहौर के प्रतिनिधि के रूप में श्री जीवनदास पेंशनर तथा पं0 गुरुदत्त विद्यार्थी जी को भेजा गया था। वह लाहौर से ऋषि दयानन्द के पास पहुंचे। पं0 गुरुदत्त जी के विचार नास्तिकता लिये हुए थे। आर्यसमाज में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं था जो उनकी नास्तिकता को दूर कर सकता। पं0 गुरुदत्त जी ने लाहौर पहुंच स्वामी दयानन्द जी की स्थिति का अध्ययन व उस पर विचार किया। विष से सारा शरीर फोड़े के समान गल व पक गया था। शरीर से रक्त व पीप का प्रवाह होता था। उनके श्वांस चलने की गति भी असामान्य थी। उससे जो स्वर उत्पन्न होता था वह भयावह सा होता था। उनका भोजन आदि भी पूर्णतया बन्द था। इससे स्वामी जी के कष्टों का अनुभव किया जा सकता था। ऐसी स्थिति में भी स्वामी जी ने सर्वथा शान्ति बनाई हुई थी। उनकी सहन शक्ति देखकर सभी आश्चार्यान्वित होते थे। स्वामी शान्त भाव से इन दुःखों को सहन कर रहे थे। इस दृश्य को देख कर पं0 गुरुदत्त विद्यार्थी जी को ऋषि दयानन्द का परम आस्तिक होना ही इन दुःखों को सहन करने का प्रमुख कारण अनुभव हुआ था। इसके अगले दिन दीपावली थी। दीपावली की सायंकाल के समय उनकी मृत्यु होती है। जिस समय स्वामी जी ने अपनी आत्मा व प्राणों से युक्त सूक्ष्म शरीर को शरीर से बाहर निकाला और ईश्वर की स्तुति के कुछ शब्द कहे, तो पं0 गुरुदत्त विद्यार्थी जी इन सब बातों को बहुत ध्यान से देख रहे थे। स्वामी जी ने बड़े भक्तिभाव से ईश्वर को कहा कि ‘हे ईश्वर! तेरी यही इच्छा है, तूने अच्छी लीला की। तेरी इच्छा पूर्ण हो।’ यह कह कर उन्होंने अपना नाशवान पार्थिव शरीर छोड़ दिया था। गुरुदत्त जी पर इस दृश्य व घटना का मार्मिक प्रभाव पड़ा और उनकी नास्तिकता तत्काल समाप्त हो गई। उसके बाद वह लाहौर लौटे और पूर्णतया ऋषि दयानन्द के मिशन के लिये समर्पित होने सहित ईश्वर ईश्वर तथा वेदधर्म पर परम आस्थावान हो गये। यहां भी पं0 गुरुदत्त को ईश्वर ने ही अपने अस्तित्व का विश्वास दिलाया था और उसमें स्वामी दयानन्द जी का मृत्यु का दृश्य सहायक बना था। गुरुदत्त का ईश्वर पर विश्वास होने से आर्यसमाज को बहुत लाभ हुआ। इसके बाद गुरुदत्त जी ने स्वयं को संस्कृत अध्यापन, मौखिक प्रचार, लेखन, शंका समाधान कार्यों में स्वयं को समर्पित कर दिया था। वह डी0ए0वी0 आन्दोलन के लिये धनसंग्रह करने देश भर में घूमे थे। उनके व्यक्तित्व और वाणी का ही प्रभाव था कि डी0ए0वी0 की स्थापना के आवश्यक धन का संग्रह हो गया था। इस घटना से यह पता चलता है कि जिस गुरुदत्त विद्यार्थी को सत्यार्थप्रकाश आदि पढ़ने से ईश्वर पर विश्वास नहीं हो पाया था, ईश्वर ने ऋषि दयानन्द का मृत्यु का दृश्य दिखाकर उसे अपना भक्त बना लिया। उस मेधावी पं0 गुरुदत्त जी ने भी अनुभव किया था कि वेदप्रचार कार्य से बढ़कर कोई महान कार्य नहीं है। इस काम को करते हुए ही उन्होंने 26 वर्ष से भी कम आयु में अपने प्राणों को छोड़ा था।                 

 

                ऋषि दयानन्द जी के जीवन का भक्त अमीचन्द, जेहलम से जुड़ा प्रसंग भी ईश्वर की कृपा का एक अद्वितीय उदाहरण हैं। अमीचन्द जी एक कवि, संगीतज्ञ तथा गायक थे। आपका जन्म पंजाब के जिला जेहलम की तहसील पिंडदादन खां के ग्राम हरणपुर में हुआ था। यह मुहियाल ब्राह्मण थे तथा इनकी उपजाति बाली थी। डा0 भवानीलाल भारतीय जी के अनुसार आपका आरम्भिक जीवन दुराचार का जीवित चित्र था। मेहता अमीचन्द जी की मृत्यु 29 जुलाई, 1893 को हुई थी। ऋषि दयानन्द जिन दिनों वेद प्रचार करते हुए पंजाब प्रान्त के जेहलम नगर में पहुंचे थे, वहां अमीचन्द जी उनके सत्संग में निर्धारित समय से काफी पहले ही पहुंच जाते थे। आश्चर्य है कि एक नशा करने वाला तथा चारित्रिक दुर्बलताओं से युक्त व्यक्ति एक धार्मिक सत्संग में समय से बहुत पहले पहुंच जाता था। लगता है कि ईश्वर अमीचन्द जी का उसके पूर्वजन्म के किन्हीं कर्मों व संस्कारों के कारण कल्याण करना चाहते थे। सत्संग आरम्भ होने में कुछ समय शेष था। अमीचन्द जी श्रोताओं में सबसे आगे बैठे थे। आपने स्वामी दयानन्द जी के निकट जाकर प्रार्थना की कि महाराज आपका व्याख्यान आरम्भ होने में अभी कुछ समय शेष है। यदि आप आज्ञा दें तो मैं एक भजन गा दूं। स्वामी जी ने उसको देखा और उसको भजन गाने की अनुमति दे दी। भजन समाप्त हुआ। भजन बहुत अच्छा गाया गया था। स्वामी जी ने अमीचन्द जी के भजन की जमकर तारीफ कर दी। इस भजन के बाद सत्संग आरम्भ हुआ और समय पर समाप्त हो गया। सत्संग के आयोजकों ने स्वामी दयानन्द को मेहता अमीचन्द जी के निन्दित जीवन का परिचय दिया और बताया कि आपने उसकी प्रशंसा कर शायद उचित नहीं किया। अगले दिन पुनः सत्संग से पूर्व स्वामी जी पहुंचे। मेहता अमीचन्द उस समय वहां पहले से ही उपस्थित थे। उन्होंने स्वामी जी से एक भजन गाने की अनुमति मांगी। स्वामी जी ने अनुमति दे दी। अमीचन्द जी ने सुर-ताल और अपने मधुर कण्ठ के स्वरों से एक प्रभावशाली भजन प्रस्तुत किया। भजन निःसन्देह अच्छा रहा होगा। स्वामी जी को भी भजन अच्छा लगा, अतः वह आज पुनः अमीचन्द जी की प्रशंसा करने से स्वयं को रोक न सके। उन्होंने अमीचन्द जी के भजन की प्रशंसा की और यह भी जोड़ दिया कि ‘अमीचन्द! तुम हो तो हीरे, लेकिन कीचड़ में पड़े हुए हो।’ इसका अमीचन्द जी के मन, मस्तिष्क एवं आत्मा पर तत्काल प्रभाव हुआ। उन्होंने कुछ सोचा और बोले, ‘महाराज! अब मैं आपको अपना मुंह तब दिखाऊंगा जब कीचड़ से निकल जाऊंगा।’ इसके बाद अमीचन्द जी ने अपनी सारी बुराईयां तत्काल छोड़ दी और एक गिरी हुई चारित्रिक अवस्था से इतने ऊपर उठे कि वह आज भी सभी ऋषिभक्तों के लिये प्रेरणादायक एवं अनुकरणीय बने हुए हैं। अमीचन्द जी के जीवन में जो परिवर्तन आया उसे भी हम ईश्वर की प्रेरणा ही कह सकते हैं जिसका अनुभव कर अमीचन्द जी का जीवन ऐसा बदला कि उन्होंने अपनी सभी बुराईयों का त्याग कर दिया। कोई महात्मा भी शायद ऐसा न कर सकेगा। हम अमीचन्द जी को उनके जीवन परिवर्तन और उसके बाद के आदर्श जीवन व्यतीत करने के लिये सादर नमन करते हैं।

 

                मनुष्य को स्वाध्याय सहित विद्वानों तथा सच्चे महात्माओं की संगति अवश्य करनी चाहिये। यही बातें मनुष्य को ईश्वर के निकट ले जाकर उसका ईश्वर पर विश्वास उत्पन्न करती हैं और उसे सच्चा उपासक बनाती है। स्वाध्याय का जीवन में बहुत महत्व है। योगदर्शन में नियमों में भी स्वाध्याय को स्थान दिया गया है। ‘स्वाध्यायान् मा प्रमदः’ एवं ‘सं श्रुतेन गमेमहि मा श्रुतेन वि राधिषि (अथर्ववेद1-1-4)’ प्राचीन काल से प्रचलित वैदिक परम्पराओं के आदर्श वाक्य हैं। हमें जीवन में प्रतिदिन पर्याप्त समय तक स्वाध्याय करना चाहिये। हमें लगता है कि स्वाध्याय करने से सत्संग का लाभ प्राप्त होता है। इसके साथ ही महापुरुषों के जीवन चरित्र व उनके साहित्य को पढ़ने से उनके साथ संगतिकरण भी हो जाता है। हम समझते हैं कि कोई मनुष्य यदि ऋषि दयानन्द के समस्त ग्रन्थों का ही अध्ययन कर ले तो वह सच्चा आस्तिक बन सकता है। ईश्वर की जब मनुष्य पर कृपा होती है तो वह ‘विश्वानि देव सवितुर्दुरितानि परासुव’ वेदमन्त्र के अनुसार बुराईयों से छूट कर सद्गुणों में प्रवृत्त हो जाता है। इन्हीं शब्दों के साथ हम इस चर्चा को विराम देते हैं। ओ३म् शम्। 

-मनमोहन कुमार आर्य

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देहरादून-248001

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