GMCH STORIES

“देश की आजादी और आर्यसमाज”

( Read 18166 Times)

15 Aug 19
Share |
Print This Page
“देश की आजादी और आर्यसमाज”

सृष्टि के आदि काल से महाभारत काल तक भारत का सारी दुनिया पर चक्रवर्ती राज्य रहा है। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में भी प्रायः पूरे विश्व के राजा आये थे और उन्होंने युधिष्ठिर को अपना नेता व चक्रवर्ती राजा स्वीकार किया था और उनको अपने अपने देश की मूल्यवान वस्तुयें भेंट में दी थी। महाभारत युद्ध के कारण भारत का पतन हुआ। सबसे बड़ा पतन वेदों के ज्ञान व विज्ञान का अध्ययन-अध्यापन व प्रचार बन्द हो गया जिससे भावी देशवासी अज्ञानी व अल्पज्ञानी होकर आपस में ही विवाद करने लगे। इससे देश में छोटे-छोटे राज्य अथवा रिसायतें अस्तित्व में आईं। एक बार वेदज्ञान के विलुप्त होने पर उसको पुनः प्राप्त करना व जन-जन तक उसका प्रचार व उससे अवगत कराना सरल कार्य नहीं था। अतः देश की भावनात्मक एकता भी वेदज्ञान के लोप होने से भंग होना आरम्भ हो गयी। इसका परिणाम था कि समय के साथ-साथ देश में अविद्यायुक्त मत उत्पन्न होना आरम्भ हो गये। इन मतों ने अज्ञान व अन्धविश्वासों को दूर करने के स्थान पर स्वमेव नये-नये अन्धविश्वासों व कुपरम्पराओं को जन्म दिया। समय के साथ-साथ अविद्यायुक्त मत-मतान्तरों की संख्या में वृद्धि होती गई और देश कमजोर होता रहा। आवश्यकता तो धर्म व मतों की अविद्या को दूर करने का था परन्तु मत-मतान्तरों ने यह भ्रान्ति पाल ली की उनकी सभी मान्यतायें पूर्णतया सत्य पर आधारित हैं। उन पर विचार व उनमें संशोधन की आवश्यकता ही नहीं है। सभी मत अपने विरोधी मतों को बुरा कहते रहे परन्तु अपने मत की अविद्यायुक्त बातों को दूर करने का किसी ने प्रयत्न नहीं किया।

 

                भारत से बाहर भी महाभारत काल के बाद मतों का आविर्भाव हुआ जिनमें अविद्या विद्यमान थी परन्तु किसी मत व उसके आचार्य ने अविद्या को जानने व पहचानने तथा उसे दूर करने की प्रक्रिया को अपनाया हो, इसका उदहारण व प्रमाण नहीं मिलता। ऋषि दयानन्द ने मत-मतान्तरों की अविद्या व उससे मनुष्य समुदाय को होने वाली हानियों पर विचार किया और उसे अपने अमर ग्रन्थ ‘‘सत्यार्थ-प्रकाश” में स्थान दिया है। इस कारण सत्यार्थप्रकाश अविद्या को जानने व उसके निवारण के उपायों को बताने का एक प्रमुख साधन बन गया है। सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन करके देश-देशान्तर का कोई भी मनुष्य मत-मतान्तरों की अविद्या सहित विद्या को जान सकता है और उसका पालन करते हुए विद्या से प्राप्त होने वाले अमृत, मोक्ष व परमानन्द को प्राप्त कर सकता है। इस दृष्टि से सत्यार्थप्रकाश संसार का सबसे उत्तम व महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। सभी लोगों को इस ग्रन्थ का अध्ययन करना चाहिये और इससे लाभ उठाना चाहिये। संसार में सत्य से बढ़कर कोई भी उत्तम व मूल्यवान पदार्थ नहीं है और असत्य से घटिया, निकृष्ट तथा मनुष्य जीवन को हानि पहुंचाने वाला पदार्थ नहीं है। मनुष्य के जन्म-जन्मान्तरों में दुःख का साधन असत्य व तद्जनित पाप कर्म ही होते हैं, यह यथार्थ ज्ञान सत्यार्थप्रकाश को पढ़कर इसके अध्येता को होता है। सत्यार्थप्रकाश से प्राप्त होने वाला ज्ञान वेदों का ज्ञान है जो सृष्टि के आरम्भ में इस सृष्टि के उत्पत्तिकर्ता सर्वव्यापक, सर्वज्ञ व सर्वशक्तिमान ईश्वर ने चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा को दिया था।

 

                ईसा की 19वी शताब्दी के आरम्भ में देश से वेदों का ज्ञान प्रायः विलुप्त हो गया था। आज हम जिस गायत्री मन्त्र का गान करते हैं और उसका अर्थ भी सर्वसुलभ है, उस मन्त्र व उसके अर्थ को कोई जानता ही नहीं था। यह सब आर्यसमाज के संस्थापक ऋषि दयानन्द की देन है। ऋषि दयानन्द का जन्म दिनांक 12-2-1825 को को गुजरात के मौरवी नगर के ग्राम टंकारा में एक पौराणिक शिवभक्त पिता के परिवार में हुआ था। आयु के चैदहवें वर्ष में उन्हें मूर्तिपूजा से जुड़ी अलौकिक व अन्धविश्वासों से युक्त बातों की असत्यता के दर्शन हुए थे। उन्होंने मूर्तिपूजा छोड़कर सच्चे शिव वा ईश्वर की खोज आरम्भ कर दी थी। घर में बहिन और चाचा की मृत्यु से उन्हें वैराग्य हो गया था। अतः उन्होंने ईश्वर व मृत्यु की औषधि की खोज में अपने घर व परिवार का त्याग कर दिया और देश भर में घूम कर साधु-संन्यासीं-योगियों व धर्मज्ञानियों की शरण में ज्ञानप्राप्ति हेतु गये। वह उनसे प्रश्नोत्तर करते रहे और उनसे सत्य को जानने का प्रयास करते रहे। इस बीच उन्हें दो सच्चे योग गुरु मिले जिनसे योग सीख कर और योग का अभ्यास कर उन्होंने योग की अन्तिम सीढ़ी ‘‘समाधि” का भी साक्षात अनुभव कर ईश्वर का प्रत्यक्ष किया। इस उच्च योग्यता को प्राप्त करने पर भी ऋषि दयानन्द की तृप्ति नहीं हुई। वह और अधिक विद्या प्राप्त कर अपनी आत्मा को ज्ञान से आलोकित करना चाहते थे। स्वामी पूर्णानन्द सरस्वती जी की प्रेरणा से ऋषि दयानन्द सन् 1860 में मथुरा में स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी के पास अध्ययन के लिये पहुंचें तथा उनसे अष्टाध्यायी, महाभाष्य, निरुक्त, उपनिषद, दर्शन, वेद आदि का ज्ञान प्राप्त कर ज्ञान की उच्चतम स्थिति को प्राप्त किया। तीन वर्ष में अपनी विद्या को पूरा करके गुरु दक्षिणा के अवसर पर उन्हें गुरुजी ने समाज व देश से अविद्या दूर कर विद्या का प्रचार व प्रकाश करने की प्रेरणा की। दयानन्द जी ने अपने गुरु की इच्छा को तथास्तु कहकर स्वीकार किया। उसके बाद से वह अविद्या दूर करने के कार्यों में लग गये।

 

                विद्या के स्रोत चार वेदों को उन्होंने प्राप्त कर उनकी परीक्षा की और अपने सभी सिद्धान्तों पर वेदों पर आधारित किया। वेद सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अनादि और नित्य स्वरूप वाले ईश्वर का प्रतिपादन करते हैं और स्तुति, प्रार्थना तथा उपासना सहित सदाचरण से उसकी प्राप्ति बताते हैं। ऋषि दयानन्द ने मत-मतान्तरों में विद्यमान अविद्या का खण्डन और सत्य व तर्कयुक्त वैदिक मान्यताओं का मण्डन आरम्भ किया। वह देश भर में घूमे। अपने समय के योग्य व ज्ञानी पुरुषों से मिले। सबसे उन्होंने मन्त्रणा की और वेदों के महत्व को समझाया। बहुत से लोगों ने महत्व को समझा परन्तु अपने हितों व स्वार्थों को छोड़ न सकने के कारण ऋषि दयानन्द से सहयोग न कर सके। ऋषि दयानन्द अपना उद्देश्य, कर्तव्य व लक्ष्य निर्धारित कर चुके थे। वह अपने मार्ग पर आगे बढ़ते रहे और देश व समाज को अविद्या के अन्धकार व गड्ढे से निकालने का प्रयत्न करते रहे। इसका परिणाम ही आर्यसमाज की स्थापना, सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, वेद भाष्य आदि ग्रन्थों की रचना, मौखिक प्रचार सहित लोगों से शास्त्रीय वार्ता एवं शास्त्रार्थ आदि कार्य रहे। उन्होंने अन्धविश्वासों की समीक्षा कर उन्हें छोड़ने की प्रेरणा की और बाल विवाह, विधवाओं पर अत्याचार, छुआछूत, ऊंच-नीच, फलित ज्योतिष, जन्मना जातिवाद का पुरजोर विरोध व खण्डन किया। वह वेद व योग सहित आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के अध्ययन के आग्रही थे। इसके परिणाम से देश में जागृति उत्पन्न हुई। स्वामी दयानन्द ने ही स्त्रियों को उनके वेदाधिकार व समाज में उच्च गौरवमयी स्थिति को प्राप्त कराया। देश में ज्ञान-विज्ञान का जो प्रकाश हुआ एवं समाज का वर्तमान में जो आधुनिक स्वरूप बना है, उसकी नींव में ऋषि दयानन्द के विचार व कार्य ही हमें दृष्टिगोचर होते हैं। देश की आजादी में भी उनके ही प्रयत्नों की देन है। देश की आजादी का विचार भी सर्वप्रथम उन्होंने ही अपने अमर ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश के माध्यम से देश को दिया था।

 

                देश अपनी अविद्या, अन्धविश्वासों एवं मिथ्या व अनुचित सामाजिक परम्पराओं से विश्रृंखलित होकर पहले मुसलमानों का तथा बाद में ईसाई मतानुयायी अंग्रेजों का गुलाम बना। इन सभी ने देश का शोेषण किया तथा आर्य-हिन्दू जाति पर अमानवीय अत्याचार किये। बड़ी भारी संख्या में हिन्दुओं का धर्मान्तरण वा मतांतरण भी किया गया। आज देश में इन समुदायों के जो लोग दिखाई देते हैं वह सब धर्मान्तरण के कारण ही अस्तित्व में आयें हैं। देश का सामाजिक स्वरूप इन कारणों से बिगड़ा और आर्य-हिन्दुओं को अनेक दुःखद विपरीत परिस्थितियों से गुजरना पड़ा। हम जब देश की आजादी की बात करते हैं तो हमें सत्यार्थप्रकाश में ऋषि दयानन्द के लिखे शब्द स्मरण हो आते हैं। उन्होंने सत्यार्थप्रकाश में लिखा है ‘‘कोई कितना ही करे परन्तु जो स्वदेशीय राज्य होता है वह सर्वोपरि उत्तम होता है। अथवा मत-मतान्तर के आग्रहरहित, अपने और पराये का पक्षपातशून्य, प्रजा पर पिता-माता के समान कृपा, न्याय और दया के साथ विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं है।” उन्होंने इसके आगे लिखा है ‘परन्तु भिन्न-भिन्न भाषा, पृथक्-पृथक् शिक्षा, अलग व्यवहार का विरोध छूटना अति दुष्कर है। विना इसके छूटे परस्पर का पूरा उपकार और अभिप्राय (देश की स्वतन्त्रता की प्राप्ति, अविद्या का नाश और समाजोन्नति) सिद्ध होना कठिन है। इसलिये जो कुछ वेदादि शास्त्रों में व्यवस्था वा इतिहास लिखे हैं उसी का मान्य करना भद्रपुरुषों (देशभक्त स्वतन्त्रता-प्रेमियों) का काम है।’  

 

                ऋषि दयानन्द ने सन् 1883 में जब सत्यार्थप्रकाश में उपर्युक्त शब्दों को लिखा था तब भारत में कोई राजनीतिक या सामाजिक दल नहीं था। धार्मिक संस्थायें अनेक थी परन्तु उनमें किसी प्रकार का परस्पर सहयोग नहीं था। कोई धार्मिक संस्था अंग्रेजों के विरोध में नहीं थी। इसके विपरीत ब्रह्मसमाज जैसी संस्थायें तो अंग्रेजी राज्य को वरदान मानती थी। देश की जनता अज्ञान व अन्धविश्वासों में फंसी हुई थी। ऐसी स्थिति में ऋषि दयानन्द ने उपर्युक्त शब्द लिखकर देशवासियों को आजादी प्राप्त करने की प्रेरणा की थी। सत्यार्थप्रकाश से इतर अपने अन्य ग्रन्थों में भी उन्होंने देश को स्वतन्त्र कराने के लिये प्रेरणा की है। ईश्वर से प्रार्थना करते हुए वह कहते हैं कि ‘हमारे देश विदेशी राजा न हों’। ‘हम कभी परतन्त्र न हों’ आदि। आर्यसमाज की सन् 1875 में स्थापना के बाद सन् 1885 में कांगे्रस की स्थापना हुई। उन दिनों काग्रेस का गठन अंग्रेजों का विरोध करने के लिये नहीं अपितु अपने लिये उनसे कुछ अधिकार प्राप्त कर उनके साथ सहयोग करने के लिये बनी थी। कालान्तर में इससे नये-नये नेता जुड़ते रहे और तब इसमें देश को अधिक अधिकार देने की बातें की जाने लगीं। देश को पूर्ण आजादी का निर्णय तो सन् 26-1-1930 में लिया गया था। यह भी एक तथ्य है कि कांग्रेस के अनुगामियों में सहयोग करने वाले लोगों में अधिकांश आर्यसमाज के अनुयायी ही थे। ऐसा माना जाता है कि 80 प्रतिशत आर्यसमाजी कांग्रेस के आजादी के आन्दोलन से जुड़े थे।

 

                यह भी ज्ञातव्य है कि देश में नरम व गरम दो दलों ने आजादी के आन्दोलन में योगदान दिया है। गरम दल वा क्रान्तिकारियों का प्रथम नेता पं0 श्यामजी कृष्ण वम्र्मा को माना जाता है। वह ऋषि दयानन्द के साक्षात् शिष्य थे। वर्मा जी ने इंग्लैण्ड जाकर आजादी के लिये कार्य किया था। भारत से जाने वाले अनेक क्रान्तिकारी युवक पं0 श्यामजी कृष्ण वर्मा द्वारा स्थापित इण्डिया हाउस में रहते थे व उनसे छात्रवृत्ति प्राप्त करते थे। वीर सावरकर भी इनमें से एक थे। वीर सावरकर जी ने सन् 1857 को देश की आजादी का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम कहा था। उनका लिखा इस शीर्षक का ग्रन्थ अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं खोजपूर्ण होने सहित इतिहास के अनेक रहस्यों का अनावरण करता है। सभी क्रान्तिकारियों का एक ही ध्येय था कि देश को अंग्रेजों की दास्ता से मुक्त कराना है। यह लोग हिंसा का उत्तर हिंसा से देने में संकोच नहीं करते थे। कहावत भी है कि ‘प्रेम तथा युद्ध में सब जायज है’। देश को मिली स्वतन्त्रता में देश के क्रान्तिकारियों का सर्वाधिक योगदान है। देश की आजादी में इन लोगों को किसी प्रकार का पुरस्कार नहीं मिला जबकि अहिंसात्मक आन्दोलन में भाग लेने वाले सभी लोग अनेक पदों व पेंशन आदि से पुरस्कृत हुए। देश के 72 वर्ष के शासन से यह बात सामने आयी है कि अहिंसा से देश नहीं चल सकता। आजादी के बाद से भारत के चीन तथा पाकिस्तान से अनेक युद्ध हो चुके हैं। यदि हम अहिंसा की ही नीति पर चलते तो आज देश के अस्तित्व का बचना भी कठिन था। बंगला देश के लोगों ने भी गुरिल्ला युद्ध करके तथा भारत की सहायता से ही पाकिस्तान के जुल्मों से आजादी प्राप्त की थी। रामायण एवं महाभारत इतिहास के ग्रन्थ हैं। यह भी धर्म व देश रक्षा के लिये युद्ध व वर्तमान में आन्दोलन करने की प्रेरणा देते हैं। अतः आर्यसमाज ने देश को आजाद कराने के लिये न केवल अपने ग्रन्थों सत्यार्थप्रकाश एवं आर्याभिविनय आदि के माध्यम से प्रेरणा की अपितु इसके अनुयायियों ने देश की गरम व नरम धारा से जुड़ कर देश को आजाद कराने में अन्य सभी संस्थाओं से कहीं अधिक योगदान दिया है। ऋषि दयानन्द के भक्त स्वामी श्रद्धानन्द, लाला लाजपत राय, भाई परमानन्द, पं0 रामप्रसाद बिस्मिल एवं शहीद भगतसिंह जी का परिवार आर्यसमाज के ही सक्रिय अनुयायी थे। सरदार पटेल भी आर्यसमाज के प्रशंसक थे। उन्होंने हैदराबाद में आर्यसमाज द्वारा किये गये आर्य सत्याग्रह को हैदराबाद रियासत के भारत में विलय को महत्वपूर्ण माना था और इसके लिए आर्यसमाज की प्रशंसा की थी।

 

                आर्यसमाज के संस्थापक एवं इसके अनुयायियों का देश की आजादी में प्रमुख योगदान है। आजादी की 72 वीं वर्षगाठ पर सभी देशवासियों को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनायें। ओ३म् शम्।       

-मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121


Source :
This Article/News is also avaliable in following categories : Literature News
Your Comments ! Share Your Openion

You May Like