देश और देश भक्ति क्या है यह हमें ज्ञात होना चाहिये। केवल स्वार्थ के वशीभूत होकर अपने देश व समाज की उपेक्षा करना मनुष्यत्व न होकर सबसे निन्दित कर्म व कृत्य होता है। इसके अनेक कारण हैं जिसका वर्णन हम लेख में आगे प्रस्तुत करेंगे। यह हमारे देश का दुर्भाग्य है कि कुछ लोग किसी विचारधारा व अपने स्वार्थों के कारण अपने विचारों, वक्तव्यों एवं कृत्यों से देश के हितों को हानि पहुंचाते हैं। आजकल ऐसे लोगों की देश में बाढ़ आयी हुई है। यह बात ठीक है कि सबको बोलने की आजादी है परन्तु आजादी का अर्थ मर्यादा का उल्लघंन कदापि नहीं है। आजकल अपनी भड़ांस मिटाने के लिये भी राजनीतिक व सामाजिक संगठनों से जुड़े लोग सरकार व देश के प्रधानमंत्री सहित गृहमंत्री व अन्य देश का हित करने वाले प्रमुख सेनापति आदि को इशारों में व कई बार स्पष्ट रूप में अमर्यादित आलोचना करते हुए दिखाई देते हैं। हमारे देश का यह दुर्भाग्य है कि हमारे देश में अशिक्षा व नागरिकों में वैदिक श्रेष्ठ संस्कारों की न्यूनता है। उन्हें राजनीति के चतुर खिलाड़ी तुष्टीकरण व अन्य प्रकार से गुमराह करने की कोशिश करते हैं। कई दल व उसके नेता तो शत्रु देश के सुर में सुर मिलाते हुए स्पष्ट दृष्टिगोचर होते हैं। यदि वह सत्ता में नहीं है तो वह समझते हैं कि हमें सरकार के देशहित के अच्छे कामों की भी आलोचना कर जनता को गुमराह कर वोट बटोरने का अधिकार है। यह सुखद बात है कि आज सोशल मीडिया ने देश की युवा पीढ़ी को जागरूक बना दिया है। वह लोग देशहित को समझने लगे हैं। इसी का परिणाम विगत देश के दो निर्वाचनों में प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी को पूर्ण बहुमत प्राप्त होना है। श्री नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनकर अपने पूर्व नेताओं से अलग हटकर जनता के हित व देशहित के ऐसे अनेक कार्य किये हैं जिससे देश को अपूर्व लाभ हुआ। विश्व में भारत का सम्मान बढ़ा है और शत्रु देशों के हौसले पस्त हुए हैं। हम पूर्व सरकारों व नेताओं से कभी स्वप्न में भी सर्जिकल स्ट्राइक, बालकोट एयर स्ट्राइक सहित कश्मीर में आतंकवादियों के सफाये की कल्पना भी नहीं कर सकते थे। प्रधानमंत्री जी ने नोटबन्दी सहित जीएसटी जैसे अपूर्व फैसले लिये। देश के सभी निर्धन नागरिकों को घर देने के साथ उनके यहां रसोई गैस पहुंचाईं और घरों में शौचालयों का निर्माण कराकर एक ऐसी मिसाल कायम की है कि हमें पूर्व के अच्छा काम करने वाले प्रधानमंत्री भी श्री नरेन्द्र मोदी की सोच व क्षमता के सम्मुख फीके दिखाई देते हैं। मजदूरों तक को पेंशन देने, दुर्घटना बीमा, किसानों को फसलों की बुआई के लिए नकद धन देने आदि कार्य भी सराहनीय हैं। उद्यमियों को बिना गारण्टी के बैंक ऋण देने की भी अनेक योजनायें चलाई हैं। ईश्वर से हमारी यही प्रार्थना करते हैं कि हमारे देश के प्रधानमंत्री स्वस्थ एवं निरोग होकर आगामी दस-पन्द्रह वर्षों तक सक्रिय रूप से काम करते रहें अथवा अपने मार्गदर्शन में अपने सहयोगियों से देशहित व समाज हित के काम कराते रहें। देश मजबूत, अपराजेय, सुखी एवं समृद्ध बने। देश में जो स्वार्थी प्रवृत्ति के नेता व दल हैं, उनका पराभव जनता द्वारा किया जाये, ऐसी सोच हर देशभक्त देशवासी की है। वेद अपने संगठन सूक्त में सब देशवासियों को एक मन, एक विचार, एक सुख-दुःख, सत्य मतावलम्बी, सत्याचरण करने तथा सत्य के ग्रहण और असत्य के त्याग की प्रेरणा देने सहित सबको सबकी उन्नति करने में प्रवृत्त होने का सन्देश देता है।
देश क्या है? देश किसी स्थान को कहते हैं जहां हम निवास करते हैं। जहां हमारा जन्म हुआ है वह स्थान जिस देश का अंग व हिस्सा है वह हमारा देश होता है। हम देहरादून में उत्पन्न हुए हैं। देहरादून उत्तराखण्ड राज्य और भारत का हिस्सा है। अतः हम राज्य की दृष्टि से उत्तराखण्ड तथा देश की दृष्टि से भारत के नागरिक व इसके सभ्य हैं। हम अपने देश से न केवल निवास, अन्न, भोजन, वस्त्र, व्यवसाय, सम्मान, उन्नति आदि को प्राप्त करते हैं अपितु इसके साथ ही हमारी रक्षा भी देश का एक नागरिक होने के कारण होती है। देश से ही हमें माता-पिता व सम्बन्धियों सहित जीवन-संगिनी, पुत्र-पुत्रिया, इष्टमित्र सहित आत्मकल्याण व ईश्वर-साक्षात्कार करने के लिये साधना के अवसर मिलते हैं। अतः इन सब लाभों को लेने के कारण हमारा भी इस देश के प्रति कुछ कर्तव्य बनते हैं जिन्हें हमें निभाना होता है। इन कर्तव्यों का पूरी सिद्दत व सत्यनिष्ठा से पालन ही देशभक्ति व देश प्रेम कहलाता है। जिस प्रकार हम अपनी माता, पिता व आचार्यों के उपकारों के ऋण से ऋणी होने के कारण उनको सम्मान व सेवा-सत्कार करते हैं, उसी प्रकार हमें देश, मातृभूमि से उनसे भी कहीं अधिक लाभ मिला व मिलता है। अतः हमें अपने देश व मातृ-भूमि को संसार का सर्वोत्कृष्ट व उत्तम देश बनाने के लिये तन, मन व धन से काम करना है। हमारे सामने वैदिक परम्परायें, ऋषि दयानन्द, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, वीर सावरकर, पं0 रामप्रसाद बिस्मिल, पं0 चन्द्रशेखर आजाद, शहीद भगत सिंह, शहीद खुदीराम बोस आदि देशभक्तों के जीवन हैं। इन महान् पुरुषों ने अपने सिर देश की आजादी व उन्नति के लिये दिये हैं। हमें उनके आदर्शों को अपने जीवन में ढालना है। ऐसा करने से ही हमारा जीवन धन्य होगा और हम देश व इन महापुरुषों के ऋण से उऋण हो सकते हैं। यदि हम इसके विपरीत आचरण करेंगे तो हमारा जीवन पशुओं के समान होगा जो बुद्धि न होने के कारण केवल अपनी उदरपूर्ति में ही लगे रहते हैं, उन्हें समाज के प्रति अपने कर्तव्यों का ज्ञान नहीं होता।
हमारे देश की वेदों पर आधारित जीवन शैली एवं उसके अनुरूप ही संस्कृति भी रही है। महर्षि दयानन्द ने वैदिक धर्म एवं संस्कृति की मान्यताओं व सिद्धान्तों की तुलना विश्व के सभी प्रमुख मतों व संस्कृतियों से की है। वेदों के समान ज्ञान व विज्ञान सहित सत्य मान्यताओं से युक्त कोई सामाजिक संगठन व विचारधारा विश्व में नहीं है। वेद की संस्कृति ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ एवं ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया’ की पोषक है। यह विश्व को एक आदर्श परिवार बनाना चाहती है जबकि वेदेतर सभी मत व सम्प्रदाय अपने मत के अनुयायियों की छल, कपट, लोभ, बल, अत्याचार व अन्यायों से संख्या में वृद्धि कीयोजना बनाते व उसे अंजाम देने में लगे रहते हैं। इतिहास में अनेक मतों के अनेक अमानवीय कार्यों का वर्णन मिलता है। बुद्धि एवं विवेक रखने वाले युवाओं व मनुष्यों को इन सभी मतों के इतिहास का अध्ययन करना चाहिये कि कैसे यह मत फले फूले हैं। इनमें ज्ञान व विज्ञान का वातवारण व उसके प्रति उत्साह है अथवा नहीं? यदि नहीं है तो क्या इनको अपनाकर या इनमें बने रहकर हमारी आत्मा सहित सामाजिक उन्नति हो सकती है? सभी उत्तम विचार हमें वेदों व वैदिक साहित्य में ही मिलते हैं। अतः देशवासियों को ज्ञान प्रधान वेद और वैदिक मत को, जो मनुष्य मात्र का कल्याण करने की भावना से ओतप्रोत हैं, उसी का आचरण व अनुसरण करना चाहिये। इसी का आचरण कर ही हम देश के प्रति कर्तव्यनिष्ठ बने रहकर इसकी उन्नति व रक्षा में अपनी भूमिका निभा सकते हैं। वेद का महत्व इस कारण भी है कि इसी में ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति-सृष्टि का सत्य ज्ञान पाया जाता है। वेद ही हमें बताते हैं कि परमात्मा ने हमारे पूर्वजन्मों के कर्मो का फल देने के लिये हमें यह जन्म दिया है। हमें वेदाचरण कर व पूर्व कर्मों के फलों का भोग कर पाप से सर्वथा मुक्त होकर ईश्वर साक्षात्कार करना व जन्म व मरण पर विजय प्राप्त करनी है। इसी का नाम मोक्ष है। मोक्ष आनन्द की चरम अवस्था वा पराकाष्ठा है। मोक्ष को प्राप्त होकर आत्मा को अपने अन्तिम लक्ष्य की प्राप्ति हो जाती है। मोक्ष में आत्मा का अस्तित्व बना रहता है और जीवात्मा ईश्वर के सान्निध्य से उसके आनन्द को भोगता है। संसार में यह ज्ञान, विचार व भावना विद्यमान नहीं है। न किसी को मनुष्य जीवन का लक्ष्य पता है और न उसकी प्राप्ति के उपायों का। इस कारण उनका लक्ष्य पर पहुंचा असम्भव है। इस कारण भी संसार के लोगों को वैदिक धर्म की शरण में आकर अपने ही जीवन को ही उन्नति के शिखर पर पहुंचाना नहीं है अपितु देश, देशवासियों एवं समस्त मानवता का कल्याण भी करना है।
हमारे देश में वीर शिवाजी, महाराणा प्रताप तथा गुरु गोविन्द सिंह जी जैसे महान् देशभक्त, वीर व पराक्रमी आदर्श महापुरुष हुए हैं। हमें इनके जीवन चरित्रों का अध्ययन कर इनके गुणों को अपने जीवन में धारण करना है। ऐसा करके हम देशभक्त भी बने रहेंगे और इससे हम देश की भावी पीढ़ियों के लिये एक अच्छा उदाहरण भी प्रस्तुत कर सकते हैं। हमारे विद्वानों को वेद और वैदिक साहित्य का गहन अध्ययन कर उससे उत्तम-उत्तम रत्न खोजने चाहिये और उन्हें पुस्तक व लेखरूप में सुरक्षित कर उसे देशवासियों के कल्याण के लिये प्रस्तुत करना चाहिये। यह आशा हम वेदों के सच्चे उत्तराधिकारी संगठन आर्यसमाज से ही कर सकते हैं। अतीत में आर्यसमाज के विद्वानों ने उत्तम कार्य किये हैं। वर्तमान व भविष्य में भी वह ऐसा ही करें जिससे मानवता को लाभ हो। उनका ऐसा करना सभी के हित में है।
देशभक्ति व देश हित के विषय में यह आवश्यक है कि जो हमारे समाज व राजनीति के नेता है उनके लिये या तो कोई नियमावली वा कोड आदि बने जिससे वह देश के लोगों को गुमराह न कर सकें, देशहित के विरुद्ध बातें व बयानबाजी न कर सकें और राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिये जनता को धर्म, जाति, सम्प्रदाय, मत-मतान्तर आदि में बांट न सके। जो भी व्याक्ति व नेता देशहित की विरोधी बातें व कार्य करें, उनको यथोचित दण्ड मिलना चाहिये और उन्हें देशहित से सम्बन्धित नियमों के आधार पर दण्डित किये जाने सहित उनके अधिकारों से उन्हें वंचित किया जाना चाहिये।
ऋषि दयानन्द ने अपने विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘‘सत्यार्थप्रकाश” के ग्यारहवें समुल्लास में ब्राह्मसमाज और प्रार्थनासमाज की समीक्षा करते हुए देशभक्ति व राष्ट्रवाद पर बहुत महत्वपूर्ण शब्द लिखी हैं। वह कहते हैं ‘‘भला! जब आर्यावर्त्त में उत्पन्न हुए हैं और इसी देश का अन्न जल खाया पिया, अब भी खाते पीते हैं। अपने माता, पिता, पितामहादि के मार्ग को छोड़ कर दूसरे विदेशी मतों पर अधिक झुक जाना, ब्राह्मसमाजी और प्रार्थनासमाजियों का एतद्देशस्थ संस्कृत विद्या से रहित अपने को विद्वान् प्रकाशित करना, इंग्लिश भाषा पढ़के पण्डिताभिमानी होकर झटिति एक मत चलाने में प्रवृत्त होना, मनुष्यों का स्थिर और वृद्धिकारक काम क्योंकर हो सकता है?’’ इसी प्रकरण में कुछ आगे वह लिखते हैं कि अंग्रेजों ने अपने देश इंग्लैण्ड का चाल चलन नहीं छोड़ा है और तुम भारत के लोगों में से बहुत से लोगों ने उनका अनुकरण कर लिया। इसी से तुम निर्बुद्धि व मूर्ख तथा वे बुद्धिमान ठहरते हैं। अनुकरण करना किसी बुद्धिमान का काम नहीं। हमें ऋषि दयानन्द की बातों को पढ़कर उनके निहितार्थों को अपने जीवन में स्थान देना चाहिये। इनका निहितार्थ यही है कि देश के प्रति पूर्ण निष्ठावान रहना है तथा विदेशियों की भौतिकवादी सोच एवं रहन-सहन व खान-पान आदि का अन्धानुकरण नहीं करना है। आर्यसमाज के प्रकरण में ऋषि दयानन्द ने कहा है ‘‘जो उन्नति करना चाहो तो ‘आर्यसमाज’ के साथ मिलकर उसके उद्देश्यानुसार आचरण करना स्वीकार कीजिये, नहीं तो कुछ हाथ न लगेगा। क्योंकि हम और आपको अति उचित है कि जिस देश के पदार्थों से अपना शरीर बना, अब भी पालन होता है, आगे भी होगा, उसकी उन्नति तन, मन, धन से सब जने मिलकर प्रीति से करें। इसलिए जैसा आर्यसमाज आर्यावर्त्त देश की उन्नति का कारण है वैसा दूसरा नहीं हो सकता।” आर्यसमाज के अधिकारी महानुभाव भी ऋषि की इन पंक्तियों पर ध्यान दे और अपने आचरण को इसके अनुरूप बनायें। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
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