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“क्या सभी उपासना पद्धतियां सत्य तथा समान रूप से हितकर हैं?”

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09 Aug 19
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“क्या सभी उपासना पद्धतियां सत्य तथा समान रूप से हितकर हैं?”

मनुष्य बचपन से ही इस संसार को देखकर विस्मित एवं आश्चर्यान्वित होता रहा है। बड़ा होने पर बहुत से मनुष्य इस संसार को देखकर इसके रचयिता को ईश्वर के रूप में स्वीकार करते हैं। उन्हें न तो स्कूलों में और न ही घरों में माता-पिता व दादा-दादियों द्वारा ईश्वर व आत्मा के विषय में कुछ बताया जाता है। इस कारण उनका ईश्वर के विषय में ज्ञान शून्य प्रातः रहता है। वह घर की परम्पराओं सहित पण्डितों व आचार्यों द्वारा पूजा पाठ को कराते देखकर उसे ही पर्याप्त समझ लेते हैं जबकि ऐसा करना उचित नहीं होता। यही कारण है कि न केवल सामान्य-जनों में अपितु हमारे धर्म के आचार्यों, पुजारियों एवं पुरोहितों सहित अन्य मतावलम्बियों में भी ईश्वर के स्वरूप व उसके गुण, कर्म व स्वभाव के प्रति गहन अन्धकार व अज्ञानता का भाव है। हमारे युवाओं के पास समय ही नहीं है कि वह ईश्वर, जीवात्मा व धर्म आदि विषयों का ज्ञान प्राप्त करने की जिज्ञासा रखे। ईश्वर आदि के विषय में जिज्ञासा को को सच्ची आध्यात्मिक भूख कह सकते हैं। वह भूख किसी में दिखाई नहीं देती। हमारे पुजारी व पुरोहितों ने जो अपने अध्यापकों व पारिवारिक जनों से सीखा होता है, उसी के अनुसार वह पूजा पाठ करते-कराते दीखते हैं। न वह अपना ज्ञान बढ़ाने के प्रति विद्यार्थी जैसी जिज्ञासा का भाव रखते हैं और न ही उन्हें इसके प्रति कहीं से प्रेरणा प्राप्त होती है। हम यह पाते हैं कि पूरा संसार ही धर्म व ईश्वर के विषय में यथार्थ व बुद्धि संगत ज्ञान नहीं रखता। यदि उन्हें ज्ञात होता तो वह मत-मतान्तरों का त्याग कर सत्य की राह पर स्वयं चलते और औरों को भी चलाते। यह निर्विवाद है कि सत्य एक ही होता है। इस सिद्धान्त के अनुसार ईश्वर, जीवात्मा, धर्म, धर्माचार, परम्परायें आदि के सम्बन्ध में सब मतों की मान्यतायें सत्य पर आधारित हैं तो वह सब समान व एक जैसी होनी चाहिये जो कि नहीं हैं। सत्य मान्यताओं में परस्पर विरोधाभास होने का प्रश्न ही नहीं होता। इतिहास का अध्ययन करने पर हम पाते हैं कि संसार में जितने भी मत-मतान्तर हैं वह सब 5000 वर्ष पूर्व प्रचलित व प्रचारित हुए और सभी महाभारत युद्ध के बाद ही अस्तित्व में आये हैं। वर्तमान में देश-देशान्तर में प्रचलित अधिकांश मत-मतान्तर तो विगत 2000 वर्ष पूर्व व उसके बाद ही अस्तित्व में आये हैं। मतों का आविर्भाव ईश्वर व धर्म आदि के सम्बन्ध में अविद्या व अज्ञान को दूर करना होता है। परीक्षा व विवेचना से यह देखा गया है कि सभी मतों में अविद्या व अज्ञान विद्यमान हैं। कुछ मत तो ईश्वर, जीवात्मा, प्रकृति के अनादित्व सहित पुनर्जन्म के सत्य सिद्धान्त से भी अनभिज्ञ हैं और इन्हें जानते व मानते ही नहीं हैं। सभी सत्य मान्यताओं के ज्ञान के लिये ‘सत्यार्थप्रकाश’ पुस्तक को एक मानक ग्रन्थ कह सकते हैं जो मत-मतान्तरों की अविद्या पर सप्रमाण प्रकाश डालता है। मत-मतान्तरों की अविद्या के कारण ही सभी मतों की ईश्वर व धर्म विषयक मान्यताओं में अन्तर है और इसी कारण सबकी उपासना पद्धतियां भी अलग-अलग हैं। सभी मतों के आचार्य और उनके अनुयायी कभी इस बात पर विचार ही नहीं करते कि उनकी उपासना पद्धति निर्दोष है अथवा नहीं, निर्दोष है तो कैसे और नहीं है तो क्यों? इसका सभी मतों के आचार्यों और अनुयायियों को विचार करना चाहिये। इससे उन्हें सत्य ज्ञान प्राप्त हो सकता है जो उन्हें इस जीवन में आत्म-ज्ञान सहित जीवन के उद्देश्य व लक्ष्य का परिचय कराकर उनकी प्राप्ति में भी प्रवृत्त करा सकता है। इससे वह उसे प्राप्त कर अपना व अन्यों का कल्याण कर सकते हैं।

 

                मत मतान्तरों में जो अविद्या है उसका प्रभाव उनकी उपासना पद्धतियों पर भी देखने को मिलता है। उनसे यदि पूछा जाये कि उपासना क्यों करते हैं और उससे क्या लाभ होता तो इसका वह उचित उत्तर शायद नहीं दे सकते? ईश्वर ने सृष्टि को बनाकर आदिकाल में मनुष्यों को अपना सत्य व पूर्ण ज्ञान वेद दिया था। वेदों में ईश्वर, जीवात्मा, सृष्टि सहित मनुष्यों के कर्तव्यों व उपासना पद्धति का भी ज्ञान है। महर्षि पतंजलि ने वेदों को समझकर ही योगदर्शन का प्रणयन किया। योगदर्शन आत्मा और परमात्मा के स्वरूप व उपासना से सम्बन्धित आवश्यक बातों का विस्तार से वर्णन कर उपासना के आठ अंगों यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान व समाधि पर प्रकाश डालता है। प्रत्येक मनुष्य को उपासना को यथार्थ रूप में जानने के लिये योगदर्शन का अध्ययन अवश्य करना चाहिये। योगदर्शन से ही यह ज्ञात होता है कि उपासना का अर्थ ईश्वर के समीपस्थ होना व उसको प्राप्त करना है। समाधि उपासना की सबसे उच्च सीढ़ी है जहां पहुंच कर जीवात्मा वा मनुष्य को अपनी आत्मा के भीतर सर्वव्यापक और सर्वान्तर्यामी ईश्वर का साक्षात्कार होता है। ईश्वर साक्षात्कार मनुष्य व आत्मा के लिए आनन्द की एक ऐसी स्थिति है कि जिस सुख की तुलना किसी भी सांसारिक सुख से नहीं की जा सकती। यही कारण था कि प्राचीन काल में हमारे देश में अधिकांश लोग अपने सांसारिक दायित्वों का निर्वाह करते हुए भी उपासना को महत्व देते थे और पचास वर्ष की आयु तक ही गृहस्थ जीवन का भोग करने के बाद वह वानप्रस्थी होकर जीवात्मा और ईश्वर के चिन्तन व साधना में अपना पूरा व अधिकांश समय व्यतीत किया करते थे। उपासना से आत्मा में ईश्वरीय सात्विक गुणों एवं त्यागपूर्वक जीवन व्यतीत करने की प्रेरणा प्राप्त होती है। स्वाध्याय में रूचि बढ़ती है और परोपकार एवं विद्या सहित सुपात्रों को धन का दान की प्रेरणा मिलती है। अतः उपासना की पद्धति के लिये वेदों व वैदिक ग्रन्थों का अध्ययन करने से ज्ञान वृद्धि का लाभ होने के साथ उपासना का प्रयोजन, उसकी आवश्यकता एवं लाभों का ज्ञान विदित होता है। स्वाध्याय से ही मनुष्य उपासना के अर्थ ईश्वर के गुणों का चिन्तन, मनन, सत्यासत्य का विवेचन, ईश्वर की स्तुति, प्रशंसा व प्रार्थना को जानकर ईश्वर को प्राप्त करने में कृतकार्य होता है।

 

                ऋषि दयानन्द वेदों के प्राचीन ऋषियों ब्रह्मा से जैमिनी मुनि की परम्परा के एक ऋषि हैं। उन्होंने वेदों का समस्त ज्ञान आत्मसात किया था। उनका जीवन वेदों की सभी शिक्षाओं, मान्यताओं व सिद्धान्तों के सर्वथा अनुरूप था। वह वेदनिहित व वेदनिर्दिष्ट विधि से ही ईश्वर की उपासना करते थे। उन्होंने अपने वेदों के गहन अध्ययन व ज्ञान के अनुसार ही लोगों की सहायता व लाभ के लिये उपासना की पद्धति ‘सन्ध्योपासना’ पुस्तक लिखी है जिसमें ईश्वर का ध्यान करने व उसे प्राप्त करने की पद्धति दी है। सन्ध्या व उपासना अपनी बाह्य व आन्तरिक शुद्धि कर शुद्ध मन से ईश्वर का ध्यान करने को कहते हैं। इसमें वेद एवं ऋषियों के बनाये उपनिषद व दर्शन आदि ग्रन्थों का अध्ययन भी सहयोगी होता है। वेदानुकूल ग्रन्थों का अध्ययन करते हुए ऋषि दयानन्द की पद्धति से ईश्वर का ध्यान व सन्ध्या करना ही उपासना कहलाती है और वही ईश्वर की प्राप्ति में सहायक एवं समर्थ है, ऐसा सभी साधको को अपने ज्ञान व अनुभव के आधार पर लगता है। उपासना के मार्ग में असत्य का आचरण, दुगुर्ण व दुव्र्यसन जिनमें मांसाहार, मदिरापान, ब्रह्मचर्य के विपरीत जीवनचर्या बाधक होती है। ऐसे लोग कभी भी ईश्वर को प्राप्त नहीं कर सकते। दुर्गुणों व दुव्र्यसनों को छोड़कर मनुष्य को वेदानुकूल सत्य व श्रेष्ठ गुण, कर्म व स्वभाव को धारण करना होता है। जिस मनुष्य का जीवन आचरण की दृष्टि से सर्वथा शुद्ध व पवित्र होता है, वही उपासना का पात्र होता है व उसी को उपासना से होने वाले लाभ मन व आत्मा की शुद्धता व पवित्रता सहित ईश्वर का सहाय, ईश्वर की निकटता व साक्षात्कार का आनन्द प्राप्त होता है।

 

                ऐसा भी कहा जाता है कि ईश्वर की उपासना के दो मार्ग ज्ञानमार्ग व कर्म-मार्ग हैं। हमें लगता है कि केवल ज्ञान प्राप्त कर लेने व श्रेष्ठ कर्म कर लेने मात्र से ही ईश्वर का साक्षात्कार नहीं हो सकता। ज्ञान व कर्म से हम अच्छे मानव, महात्मा व साधु तो बन सकते हैं परन्तु योग विधि जिसकी पद्धति ऋषि दयानन्द ने सन्ध्या की पुस्तक में दी है, उसका लम्बे समय तक अभ्यास करने के बाद ही उपासना से ईश्वर की प्राप्ति का लाभ होता है। यदि उपासना वा योगाभ्यास किसी योग्य गुरु के मार्गदर्शन में किया जाये तो यह शीघ्र लाभकारी होता है। ऋषि दयानन्द ने योग के दो अनुभवी विद्वानों महात्मा ज्वालानन्द पुरी और महात्मा शिवानन्द गिरी जी से योग का प्रशिक्षण लिया था। ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने ऋषि दयानन्द को उपासना को सिद्ध करने के अनेक उपायों सहित उसकी विधि की बारीकियों को भी उन्हें बताया था। आजकल योगासन व प्राणायाम आदि सिखाने वाले प्रशिक्षक तो मिल जाते हैं परन्तु ऐसे गुरुओं का अभाव है जो स्वयं ईश्वर का साक्षात्कार कर चुके हों। साधकों को ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों सहित योगदर्शन वा उसके भाष्यों का अध्ययन भी करना चाहिये और उसके बाद प्रातः सायं समय अधिक से अधिक समय तक ध्यान का अभ्यास करना चाहिये। इसी विधि से लाभ हो सकता है। कुछ लिखी व स्मरण की हुई स्तुति व प्रार्थना के शब्द बोल लेने मात्र से व पौराणिक विधि से पूजा कर लेने से ईश्वर की प्राप्ति सम्भव नहीं है। ईश्वर की उपासना का लक्ष्य ईश्वर का साक्षात्कार है। यह लक्ष्य ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों के स्वाध्याय सहित उपनिषद व दर्शन ग्रन्थों के अध्ययन एवं लम्बे समय तक निरन्तर प्राणायाम, ध्यान व समाधि का अभ्यास कर ही प्राप्त हो सकता है। उपासना की यही विधि है। इसकी संसार में अन्य कोई विधि नहीं है। इस कारण हम समझते हैं कि ईश्वर की प्राप्ति के लिये सभी मतों के अनुयायियों को योग विधि से ही उपासना करनी चाहिये। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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